व्यंग्य : आ खंभा नोचें : रमेश जोशी
लेखक : रमेश जोशी 

व्यंग्यकार, साहित्यकार एवं लेखक, प्रधान सम्पादक, 'विश्वा', अंतर्राष्ट्रीय हिंदी समिति, यू.एस.ए., स्थाई पता : सीकर, (राजस्थान)

ईमेल : joshikavirai@gmail.com, ब्लॉग : jhoothasach.blogspot.com

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आज तोताराम ने एक बड़ा विचित्र सुझाव दिया- मास्टर, तू अपनी इस ‘बरामदा संसद’ के मध्य में एक खंभा लगवा ले। 

हमने कहा- यह अपनी जमीन पर तीन ओर दीवार से घिरा बरामदा है। कोई दलबदल या हॉर्स ट्रेडिंग की तरह छज्जा निकाल कर किया गया अवैध कब्ज़ा थोड़े है। और फिर साइज़ भी बड़ा नहीं है कि खंभों की जरूरत पड़े।  केवल आठ गुना साढ़े चार फुट में ही तो है। जगह कहाँ ह ? कोई गिरने का खतरा भी नहीं है। खंभा लगवाने के बाद ढंग से बैठने की जगह भी नहीं बचेगी। और जब नए संसद भवन में एक ही छत के नीचे 1200 लोगों के बैठने की व्यवस्था है और इतने बड़े हाल में एक भी खंभा नहीं है तो यहाँ क्या जरूरत है। 

बोला- उसकी बात और है । वहाँ तो दशकों बाद देश को मिले स्पष्ट बहुमत वाला मोदी जी जैसा एक सशक्त नेता है। ऊपर से हाथ में ‘सेंगोल’ वाला राजदंड। बड़ी से बड़ी छत क्या, आकाश गिरे तो उसे भी थाम सकते हैं तो फिर खंभों की क्या जरूरत। बिना बात कीमती जगह खराब करने से क्या फायदा। अब तो लोकतंत्र के चार खंभों तक की जरूरत नहीं रह गई है। कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया की हालत देख ही रहे हो। हुए न हुए बराबर हैं। विधायिका में तो ‘एकोहं द्वितीयो नास्ति’ है ही। वहाँ तो सब कुछ बिना खंभों के ही छत से लटका हुआ है। 

मैं तो अपने लोकतान्त्रिक बरामदे के हिसाब से सोच रहा हूँ। लोकतंत्र में खंभे बहुत जरूरी हैं। एक कमजोर हो तो दूसरा संभाल ले। एक सेंगोल और एक आदमी पर टिके तंत्र को भ्रष्ट और नष्ट होने में कोई देर नहीं लगती ।पता है ना, बिना खंभों के मोरबी के पुल का क्या हाल हुआ? इस देश का लोकतंत्र इसीलिए टिकाऊ बना रहा कि वह केवल लोकतंत्र के चार  खंभों या एक सेंगोल पर ही नहीं टिका था बल्कि पुराने संसद भवन के चौसठ योगिनी मंदिर के डिजाइन की तरह 144 खंभों पर टिका था। 

हमने कहा- तोताराम, अब तू एक क्या, हजार खंभे लगवा ले लेकिन हमें नहीं लगता कि न्याय और समता के प्रह्लाद को बचाने के लिए किसी खंभे से कोई नृसिंह भगवान प्रकट होंगे। फिर बिना बात बेकार खंभा लगवाकर क्या करेंगे?

बोला- अब लोकतंत्र के लिए जो समय आने वाला उसे देखते हुए अपनी खीझ मिटाने लिए हम जैसे बुजुर्गों को नोचने के लिए कोई खंभा तो चाहिए। 

हमने कहा- क्यों, कपड़े फाड़ ले। नोचने ही हैं तो बाल नोच ले। 

बोला- वे तो पहले से नुच नुचकर अल्पमत में आ चुके हैं। जो कुछ बचे हैं उन्हें कुपोषण के लोकसभा अध्यक्ष ने पूरे सत्र के लिए निष्कासित कर दिया है।

हमने कहा- तो फिर एक ही उपाय है, सौ बीमारियों की एक ही दवा है नीतीश की तरह फिर से भाजपा में चला जा। खंभा या बाल नोचने की नौबत ही नहीं आएगी। ताली बजा, हो ही, हो ही जप और मौज कर। 

बोला- तो क्या नीतीश की तरह अपने और पराए- तरह तरह के थूक चाटने के अलावा और कोई उपाय नहीं है?

हमने कहा- है। है क्यों नहीं। पर उसके लिए कुछ हिम्मत चाहिए। अपने बाल और खंभा नोचने की जगह इन ‘दाढ़ीजारों’ की दाढ़ी और झूठ दर झूठ बोलने वालों का मुँह नोचने की हिम्मत दिखा। तुझे पता चलेगा कि जिसे ऋषि समझकर तू हनुमान की तरह पानी पीने रुका है वह रावण का भेज हुआ मायावी राक्षस है जो तुझे संजीवनी लाने के कर्तव्य से भटकाने के लिए वेश बदलकर बैठा है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)