तमिलनाडु में दलित और कुलीन ईसाइयों में बढ़ता टकराव
लेखक : लोकपाल  सेठी

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक एवं राजनीतिक विश्लेषक 

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यह आम धरना है कि जातिवाद केवल हिन्दु धर्म में ही है और किसी धर्म में नहीं। विश्व में सबसे बड़े धार्मिक समुदाय ईसाई धर्म में तो एकदम भी नहीं।  लेकिन सच्चाई यह है कि हमारे देश के ईसाई समुदाय में हिन्दू धर्म की तरह वर्ण व्यवस्था में यह मौजूद है। यह अलग बात है कि इस किस्म का जाति  भेदभाव किसी राज्य में कम है तो किसी राज्य में यह कुछ अधिक है। लेकिन अगर तमिलनाडु और इसके सटते केंद्र शासित प्रदेश पुदुचेरी में यह बहुत अधिक है। इस राज्य में ईसाई समुदाय में दलित ईसाईयों का बाहुल्य है तथा कुलीन अथवा स्वर्ण ईसाई कम संख्या में है। लेकिन चर्चों के प्रबंधन में दलित ईसाइयों का स्थान नगण्य है। राज्य में कार्यरत 18 बिशपों में केवल एक ही दलित समुदाय से आता है। कई ईसाई कब्रगाहों में दलितों को दफ़नाने नहीं दिया  जाता। अगर कहीं दफना भी दिया जाता है तो मृत व्यक्ति की कब्र पर उसकी नाम पट्टी नहीं लगाने नहीं दी जाती। चूँकि कुछ चर्चो में उनके प्रवेश पर अघोषित प्रतिबंन्ध है जिसके चलते इस समुदाय ने अपने चर्च बना लिए हैं।  

राज्य में दलित ईसाई समुदाय ने अपनी संस्थाएं बना रखी है जो इस भेदभाव को दूर करने के लिए संघर्ष कर रही हैं लेकिन फ़िलहाल उन्हें इस काम में कोई सफलता मिलती नज़र नहीं आती। देश में ईसाई समुदाय के चर्च तथा अन्य संस्थायों के शीर्ष स्थानों पर बैठे लोगों इस भेदभाव से पूरी तरह अवगत है लेकिन इस दिशा में कोई ठोस  कदम उठाते नज़र नहीं आते। अगर कहीं ऐसे कदम उठाये भी गए हो तो इसका कोई प्रभाव नज़र नहीं आ रहा। 2016 में हुई कैथोलिक  बिशप कॉन्फ्रेंस में इस मुद्दे पर लम्बा विचार विमर्श हुआ था। इस बैठक में इस सच को मान लिया गया कि चर्च में मध्य क्रम की संस्थायों शायद ही कोई इक्का दुक्का दलित हो लेकन शीर्ष पर तो एक भी नहीं। लगभग एक दशक पूर्व तमिलनाडु राज्य अल्पसंख्यक आयोग के तत्कालीन अध्यक्ष एम प्रकाश   ने सार्वजानिक रूप से कहा था कि राज्य के ईसाईयों में जातिवादी मतभेद उतना ही जितना हिन्दू समुदाय में है। लेकिन उन्होंने साथ में यह भी कहा था कि  राज्य सरकार इस मामले में कुछ नहीं कर सकती। यह ईसाई समुदाय की आन्तरिक समस्या है तथा इसका हल समुदाय के नेतृत्व को ही निकलना पड़ेगा .  तमिलनाडु और पुद्दुचेरी में ईसाई जनसंख्या लगभग 45 लाख है। इनमे दलित ईसाई लगभग 80 प्रतिशत दलित समुदाय से आते है। इसी प्रकार मद्रास हाई की मदुरै बेंच में इस भेदभाव को लेकर एक याचिका भी दाखिल की गई थी। कोर्ट ने राज्य सरकार और तमिलनाडु बिशप कौसिल को एक नोटिस भी जारी  किया था। पर इस मामले आगे क्या हुआ इसकी कोई खबर सुनने में नहीं आई। 

2019 में जब पॉप जॉन पॉल द्वितीय भारत की यात्रा पर आये थे तो तमिलनाडु और पुदुचेरी के दलित ईसाई नेताओं, जो क्रिश्चियन लिबरेशन मूवमेंट से जुड़े है, ने उनसे मिलने का प्रयास किया था लेकिन कुछ कारणों के चलते नहीं उनकी मुलाकात नहीं हो पाई। राज्य के एक संगठन तमिलनाडु अछूत उन्मूलन  फ्रंट ने भी समुदाय में दलित ईसाइयों के साथ हो रहे भेदभाव पर के विस्तृत रिपोर्ट राज्य सरकार को सौंपी थी। 

दलित ईसाई लेखक, पत्रकार और साहित्यकार अपनी लेखनी के जरिये अनवरत रूप  समुदाय के साथ हो रहे भेदभाव को उजागर कर रहते है। कईं वर्ष पहले   एक दलित ईसाई और जाने माने लेखक ने करुकू शीर्षक पुस्तक, जो उनकी आत्मकथा है, में इस भेदभाव का मार्मिक उल्लेख किया है। कुछ समय पूर्व  इसी  समुदाय के फादर मार्क स्टीफेन  ने अपनी चर्चित पुस्तक में भेदभाव के बारे में विस्तार से लिखा है। एक पुस्तक, जो हाल ही में प्रकाशित हुई है, इन दिनो बहुत चर्चा में है इसकी लेखिका निवेदिता लुईस ने क्रिस्तुनुवती जाति (ईसाई धर्म में जातिवाद) पर विस्तार से लिखा है। 

तमिलनाडु और देश के अन्य भागो में रह रहे ईसाईयों में जातिवाद को लेकर जो भी पुस्तकें लिखी गई है उनका कुल मिलाकर  सार  यह है  कि जब ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन काल में ईसाई पादरी  धर्म प्रचार के लिए भारत आये तो उन्होंने तमिलनाडु में  जिन लोगों  को पहले  ईसाई  धर्म अपनाने के लिए प्रेरित किया उनमे अधिकतर दलित थे। वे या तो लालच में ईसाई बने या फिर किसी तरह के दवाब में। वे  ईसाई तो बन गए लेकिन हिन्दू जातिवाद के ताने बाने से बहार नहीं आये। मिशनरियों का लक्ष्य उनको ईसाई बनाना था और उन्होंने इन नए ईसाई वर्ग को हिन्दू धर्मं के जातिवादी से निकालने के कोई विशेष ध्यान नहीं दिया। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)