मानव जनित गतिविधियों से बढ़ रहा धरती का ताप : ज्ञानेन्द्र रावत
लेखक : ज्ञानेन्द्र रावत

लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद हैं।

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धरती तप रही है। धरती के दिनोंदिन तपने के कारण पूरी दुनिया के लोगों की सेहत और बहुतेरी असंख्य प्रजातियों का अस्तित्व खतरे में है। हालात सबूत हैं कि बीते नौ सालों में गर्मी से होने वाली मौतों के आंकडो़ं में 85 फीसदी की बढो़तरी हुयी है। बदलते मौसम के मिजाज से  जानलेवा संक्रामक बीमारियां तेजी से फैल रही हैं। देखा जाये तो वायुमंडल में तापमान बढा़ने वाली ग्रीनहाउस गैसों की सांद्रता ने साल 2022 में एक बार फिर एक नया रिकार्ड बनाया और सबसे बडे़ दुख की बात यह है कि इस बढ़ती प्रवृत्ति पर कोई रोक नहीं लग पा रही है। विश्व मौसम विज्ञान संगठन की मानें तो ग्रीनहाउस गैस में सबसे अधिक प्रभावशाली मानी जाने वाली कार्बन डाई आक्साइड यानी सीओ 2 की वैश्विक औसतन सांद्रता पहली बार 2022 में औद्योगिक काल से पूर्व 1850-1900 के स्तर से अधिक होकर 50 फीसदी अधिक हो गयी। फिर बदलते मौसम के मुताबिक गर्म समुद्रों ने विब्रियो बैक्टीरिया के प्रसार के लिए समुद्र तट के इलाके को साल 1982 के बाद से ही हर साल 329 किलोमीटर तक बढा़ दिया है। 

हकीकत में यह हर साल लोगों की बीमारी और मृत्यु का कारण बन रहा है। इस बदलाव के कारण रिकार्ड 1.4 अरब लोगों को डायरिया जैसे जानलेवा गंभीर रोग होने का अंदेशा है। इससे 2022 में 264 बिलियन डालर का आर्थिक नुकसान हुआ जो 2010 से 2014 की तुलना में 23 फीसदी ज्यादा है। विशेषज्ञों के अनुसार जलवायु परिवर्तन के कारण दुनिया भर में अरबों लोग जीवन और आजीविका की कीमत चुका रहे हैं। वहीं लाख कोशिशों के बावजूद कार्बन उत्सर्जन में कमी नहीं कर पा रहे हैं। जबकि 1981 से 2010 की तुलना में 2021 में 122 देशों में 12.7 करोड़ से अधिक लोगों को गंभीर खाद्य संकट का सामना करना पडा़ है। दि लैंसेट पत्रिका में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक अगर तापमान दो डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाता है तो अगले  तीन दशकों में गर्मी से सम्बंधित मौतों में 370 फीसदी की वृद्धि होने का अंदेशा है जो मौजूदा संख्या से लगभग पांच गुना अधिक होगी।

विशेषज्ञों की मानें तो अभी भी दुनिया में प्रति सैकेण्ड 1.327 टन कार्बन डाई आक्साइड उत्सर्जित हो रही है। इससे गर्मी की घटनाओं में बढो़तरी हो रही है। इसका परिणाम मौतों के बढ़ते आंकडे़ के रूप में सामने आया है। यदि यही हाल रहा तो इससे 2050 तक सालाना गर्मी से होने वाली मौतों का आंकडा़ 4.7 गुणा बढ़ जायेगा। इसमें कुपोषण के मामले हीटबेव के चलते और तेजी से बढे़ंगे। उस दशा में जबकि मौजूदा हालात में 1.14 डिग्री सेल्सियस ताप भी स्वास्थ्य पर गंभीर रूप से प्रतिकूल प्रभाव डाल रहा है। गौरतलब यह है कि जब जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के चलते तापमान बढो़तरी में प्राकृतिक प्रक्रिया की हिस्सेदारी केवल और केवल 0.04 डिग्री की ही है।

असलियत यह है कि मौजूदा समय में औद्योगीकरण से पूर्व की तुलना में तापमान बढो़तरी 1.32 डिग्री तक पहुंच चुकी है। जबकि सदी के अंत तक इसे 1.5 डिग्री तक सीमित रखने के प्रयास किये जा रहे हैं। लेकिन सबसे बडी़ चिंता की बात यह है कि 2023 में ही यह 1.32 डिग्री तक बढ़ चुका है। 2023 अब तक का सबसे गर्म साल रहा है, इस सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता। हाल ही में जारी क्लाइमेट सैंट्रल की रिपोर्ट जो नेचर जरनल में प्रकाशित हुयी है, के अनुसार अलनीनो के प्रभाव के चलते समुद्र की सतह गर्म होने से इस साल यानी 2024 की गर्मी पर इसका असर दिखाई देगा। इससे 2024 के और भी ज्यादा गर्म होने का अनुमान है। क्योंकि तापमान में अभी तक जो 1.32 डिग्री की बढो़तरी हुयी है, उसमें 1.28 डिग्री की बढो़तरी के लिए मानव जनित गतिविधियां ही जिम्मेदार हैं। इसमें ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन, वनों का कटान होने से कार्बन सोखने की क्षमता में आयी बेतहाशा कमी की अहम भूमिका है। इस तरह तो प्राकृतिक कारणों एवं प्रक्रियाओं जैसे अलनीनो जैसे कारणों से जो गर्मी बढी़ है, वह तो महज 0.04 डिग्री ही बढी़ है। 

निष्कर्षतः मौजूदा तापमान बढो़तरी के लिए इंसान ही जिम्मेदार है। यहां यह जान लेना जरूरी है कि साल 1970 में धरती के औसत तापमान में महज .2 डिग्री की ही बढो़तरी हुयी थी। जबकि तापमान बढो़तरी का आंकडा़ साल 2020 में बढ़कर एक डिग्री तक पहुंच गया। फिर कोरोना के बाद जीवाश्म ईंधन की खपत में हुयी बढो़तरी को नजरंदाज करना बेवकूफी होगी। क्योंकि यह तापमान बढो़तरी का महत्वपूर्ण कारक है। दुनिया के वैज्ञानिकों और बहुतेरी एजेंसियों का मानना है कि यदि जलवायु परिवर्तन के खतरों से निपटने के प्रयास इसी ढर्रे पर चलते रहे तो इस सदी के अंत तक इस तापमान में बढो़तरी तीन डिग्री तक हो जायेगी जिससे दुनिया को जलवायु आपातकाल का सामना करना पड़ सकता है।

ऐसी स्थिति के लिए धरती को सुरक्षित रखने के जो आठ उपाय किये गये थे, उनकी नाकामी सबसे बडा़ कारण है। उनमें धरती का तापमान एक डिग्री सेलसियस बढ़ने से रोकना, कार्यात्मक अखण्डता, सतह के जलस्तर का उपयोग, भूजल स्तर घटने से रोकना, नाइट्रोजन और फास्फोरस का सीमित उपयोग और एयरोसोल का कम उत्सर्जन शामिल है। हकीकत में दुनिया की लगभग 52 फीसदी भूमि पर अतिक्रमण करके दो या उससे अधिक उपायों का उल्लंघन किया जा रहा है। इसके परिणाम स्वरूप दुनिया की कुल आबादी का 86 फीसदी हिस्सा प्रभावित हुआ है। यही नहीं इससे भारत सहित दक्षिण एशिया के अन्य देश योरोप और अफ्रीका के साथ साथ हिमालय की तलहटी इन उपायों के उल्लंघन से हाटस्पाट बन गयी है। 

दरअसल वायुमंडल, जलमंडल, भूमंडल, जीवमंडल और क्राथोस्फीयर और उनकी आपस में जुडी़ प्रक्रियाओं यथा कार्बन, पानी और पोषक चक्र पर निर्भर करते हैं। सच तो यह है कि इन्हें मानवीय गतिविधियों से सबसे ज्यादा खतरा है। ये भविष्य के विकास को प्रभावित कर सकते हैं। गौरतलब यह है कि अभी धरती को बढ़ते ताप से बचाने की दिशा में अभी आठवां उपाय जिसमें धरती के तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेलसियस तक रोकना शामिल है, का उल्लंघन नहीं किया गया है। इस बारे में पृथ्वी आयोग का मानना है कि जलवायु से जुडे़ उपायों का उल्लंघन रोकना हिममंडल और जैवमंडल में होने वाली गतिविधियों पर आधारित है। यह ध्यान देने वाली बात है कि धरती का औसत तापमान एक डिग्री सेलसियस पहले ही बढ़ चुका है। यह 1.5 से दो डिग्री सेलसियस बढ़ने पर जलवायु प्रतिक्रियाओं पर नकारात्मक प्रभाव डालेगा। 

पृथ्वी आयोग के हालिया शोधपत्र जो नेचर जरनल में प्रकाशित हुआ है के अनुसार जैवमंडल में होने वाले विभिन्न प्राकृतिक कार्यों को बनाये रखने के लिए  50-50 फीसदी जमीन प्राकृतिक गतिविधियों और क्षेत्रों के लिए छोड़ने की जरूरत है लेकिन हकीकत में केवल 40 फीसदी जमीन ही इसके लिए छोडी़ गयी है। शोध पत्र में जल स्रोतों और नदियों के 20 फीसदी पानी के प्रवाह को बदलने की सिफारिश की गयी है और पर्यावरणीय जरूरतों के लिए इनके 80 फीसदी पानी के प्रवाह को अपरिवर्तित छोड़ देना चाहिए लेकिन असलियत में 34 फीसदी ही पानी का प्रवाह परिवर्तित किया जा रहा है। इसके अलावा पूरी दुनिया में कृषि क्षेत्र में नाइट्रोजन और फास्फोरस का अधिकाधिक इस्तेमाल करके इन उपायों का उल्लंघन किये जाने से धरती के ताप को कम करने की आशा बेमानी प्रतीत होती है। 

इसमें धन कुबेरों की भूमिका को भी नकारा नहीं जा सकता जो 16 फीसदी कार्बन उत्सर्जन के लिए अकेले जिम्मेदार हैं। आक्सफैम की हालिया रिपोर्ट ने इस तथ्य का खुलासा किया है। रिपोर्ट के अनुसार वातानुकूलित जीवन जीने वाले अमीरों के द्वारा अत्याधिक कार्बन उत्सर्जन किये जाने के कमजोर समुदायों और जलवायु आपातकाल से निपटने के वैश्विक प्रयासों को धक्का लगेगा। इससे 13 लाख अतिरिक्त लोगों की भीषण गर्मी से मौतें होंगीं जो डबलिन और आयरलैंड की आबादी के बराबर होगी। रिपोर्ट इस बात पर बल देती है कि अमीरों पर अत्याधिक कर लगाने से जलवायु परिवर्तन और असमानता दोनों पर अंकुश लगाने में मदद मिलेगी। इसलिए अब यह कटु सत्य है कि मानव सभ्यता तभी बची रह पायेगी जबकि हम धरती को बढ़ते ताप को बचाने में जितनी जल्दी हो, समर्थ हों। इसके सिवा कोई चारा नहीं है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)