निराले स्वाद के कारण आज भी प्रसिद्ध है सांभर की "फीणी"

सांभर में एक शताब्दी से अधिक पुराना है फीणी का इतिहास

शैलेश माथुर की रिपोर्ट 

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सांभरझील। करीब एक शताब्दी से अधिक समय से सांभर की फीणी राजधानी में ही नहीं अपितु राजस्थान में भी अपने निराले स्वाद के कारण आज भी उतनी ही प्रसिद्ध और लोकप्रिय है। शीतकाल में इसकी मांग चार से पांच गुणा तक बढ़ जाती है। गत वर्ष के मुकाबले इसका उत्पादन अधिक हुआ हो रहा है। यहां के पानी की तासीर की वजह से इसकी गुणवत्ता में आज भी कोई फर्क नहीं पड़ा है। ढूंढाड़ और मारवाड़ क्षेत्र में विशेषकर मकर सक्रान्ति के अवसर पर फीणी को भेंट के तौर पर देने की परम्परा बदस्तूर जारी है। यूं तो यहां फीणी का उत्पादन पूरे वर्ष भर ही चलता है, लेकिन सर्दियों के मुकाबले ग्रीष्मकाल में इसकी खपत आधी रह जाती है। यह सांभर का एक पारम्परिक मिष्ठान है। फीणी को बनाने में मुख्य अवयव मैदा, घी और चीनी है। फीणी बनाने में अनुमानतः 100 टन से अधिक मैदा, 75 टन से अधिक घी और 50 टन से अधिक चीनी की मांग रहती है। यह व्यवसाय अब वर्तमान में जबरदस्त प्रतिस्पर्धा के दौर से गुजर रहा है। जिसके कारण लाभांश अब कम होता जा रहा है। 

कई दशक पहले फीणी के उत्पादन में इने-गिने कारीगरों का वर्चस्व और जबरदस्त कमाल हासिल था और बाकायदा उनके नाम से फीणी बिकती थी। इस बात में कोई अतिशयोक्ति नहीं कि अब फीणी उत्पादन आर्थिक आधार बनता जा रहा है और इसके बावजूद इसकी गुणवत्ता कोई फर्क नहीं पड़ा है, हालाकि यहां की फीणी आगरे की पेठे की तरह ही मशहूर है और यही कारण रहा है कि इसका जिले से बाहर अन्य प्रान्तों में भी बहुतायात से निर्यात होता है। खुदरा विक्रेताओं की ओर से इसकी गुणवत्ता का पूरा ख्याल रखा जाता है। वर्ष 1960 से काफी वर्ष पहले तक यहां केवल महज देशी घी से निर्मित फीणी की साँधी खुशबू नसीब होती थी लेकिन कालान्तर में वनस्पति घी ने फीणी के वास्तविक स्वाद को ही गौण कर दिया है। 

यहां आज भी मांग के आधार पर  फीणी बनाई जाती है, जो सामान्य फीणी की तुलना में भले ही कई गुणा महंगी हो लेकिन स्वाद में इसका कोई सानी नहीं है। यूं तो सांभर में वर्ष भर ही फीणी का उत्पादन होता है, लेकिन दिसम्बर से जनवरी के बीच यहां लगभग प्रतिदिन 30 क्विण्टल से अधिक फीणी का उत्पादन होता है, लेकिन सितम्बर से नवम्बर के मध्य दशहरा दीपावली आदि त्यौहारों के समय इसकी मांग घटकर करीब आधी ही रह जाती है। अनुमान के मुताबिक सांभर में फीणी व्यवसाय का आकार 4200 से 4500 क्विण्टल के बीच का माना जाता है। यहां निर्मित होने वाली फीणी का करीब 80 फीसदी हिस्सा आज भी बाहर ही निर्यात होता है। मंहगाई की मार ने यद्यपि फीणी के उत्पादन एवं इसके शौकीनों पर भी इसका खासा असर पड़ा है। मकर सक्रान्ति एवं विशेष पर्व के दिनों में इसके दामों में और इजाफा हो जाताहै। 

फीणी बनाने की प्रक्रिया तीन दिन में पूरी होती है। सर्वप्रथम घी को गरम करके जमाया जाता है। दूसरे दिन मैदा को पानी में डालकर मिलाया जाता है। इस मैदा को भली-भाति गोंदा जाता है, फिर गीले कपड़े से ढककर इस प्रकार रखा जाता है कि मैदा में न तो अधिक सुखापन हो और न ही अधिक गीलापन रहे। पानी अधिक होने पर फीणी में तार चिपक जाते हैं और पानी कम हो तो उसका चूरा बन जाता है, इसीलिए इस कार्य में दक्ष कारीगरों की ओर से इस ओर विशेष ध्यान रखा जाता है। 

गौदी हुई मैदा को बाद में चाकू से काटकर छोटे गोलाकार टुकड़े तैयार किए जाते हैं, जिसे गैंदी कहा जाता है। इस गौदी को हाथों से खींच खींचकर लम्बा किया जाता है। इसके पश्चात पहले दिन जमाए हुए घी में मिश्रित कर इस गैंदी पर भी चढ़ाया जाता है और इसके छह सांटे बनाए जाते हैं तथा घी की सहायता से यही प्रक्रिया चार बार दोहराई जाती है। इसके बाद इस मैदा को इन मैदा के सांटों को अंगुली की मदद से गोलाकार किया जाता है, जिन्हें टिकड़ी कहा जाता है। टिकडियों को कढ़ाई में मध्यम आंच पर तला जाता है। यही टिकड़ी सिककर जब बाहर निकलती है तो यही परिवर्तित रूप फोणी कहलाती है। माना जाता है कि एक सही विधि से तैयार की गई फीणी में 1296 तार होते हैं जो इसकी खूबसूरती और स्वाद को भी उजागर करते हैं।