लेखक : प्रोफेसर (डॉ.) सोहन राज तातेड़
पूर्व कुलपति सिंघानिया विश्वविद्यालय, राजस्थान
www.daylife.page
भारत राष्ट्र की महानता का कारण यहां का धर्म और दर्शन का संदेश है। यहां के महापुरूषों और शास्त्रों का आदेश अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह है। वेदों और उपनिषदों में सत्य अहिंसा की महिमा का गुणगान है। भगवान बुद्ध, भगवान महावीर, श्री मदाद्यशंकराचार्य की यह धरती है। यहां के संतों ने लौकिक सुख को उतना महत्व नहीं दिया जितना आध्यात्मिकता को। अध्यात्म यहां के कण-कण में समाया हुआ है। व्रत उत्सव त्यौंहारों के माध्यम से अध्यात्म का संदेश दिया जाता है और कण-कण में आत्म तत्व का दर्शन किया जाता है। संत वही है जो शांत रहता है। संत की प्रकृति शांत होती है। उसके मन में राग, द्वेष, मद, लोभ नहीं रहता है। भारत राष्ट्र की महता संतों के कारण है। प्राचीन काल से लेकर आज तक के इतिहास पर दृष्टिपात करें तो हम यही देखते हैं कि भारत के कण-कण में अध्यात्म समाया हुआ है। वेदों में सर्वहित की कामना की गई है। मन को शुभ संकल्पों से युक्त करने का उपदेश दिया गया है- तन्मे मनः शुभ संकल्पमस्तु।
भारत को विश्व गुरू बनाने वाले संत ही हैं। विवेकानन्द ने विश्व संसद में जब व्याख्यान दिया तो लोगों का ध्यान उनकी और आकृष्ट हुआ। उनकी वेशभूषा को देखकर जो लोग उनकी हँसी उड़ा रहे थे उनका व्याख्यान सुनकर बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने भारत का नाम विश्व में रोशन किया। हर देश के नागरिक को अपने देश से प्रेम होता है। यह प्रेम स्वाभाविक है। जो व्यक्ति जिस देश में रहता है, वहां का अन्न, जल ग्रहण करता है वहां की सांस्कृतिक पहचान को अपनाता है तो प्रेम होना स्वाभाविक है। भारत एक ऐसा देश है जिसकी सांस्कृतिक पहचान हर देशों से अलग है। यहां के नागरिक इस देश को भारत माता कहकर पुकारते हैं। जैसे माता के प्रति बच्चों का स्वाभाविक आकर्षण होता है वैसे ही इस देश के नागरिकों का देश के प्रति स्वाभाविक आकर्षण है। भारत का इतिहास बहुत ही गौरवशाली है।
भारत नामकरण के पीछे भी अनेक ऐतिहासिक किंबदन्तियां हैं। शकुन्तला के पुत्र भरत या भगवान् ऋषभ के पुत्र भरत के नाम पर इस देश का नाम भी भारत पड़ा। यहां पर अनेक धर्मों और सम्प्रदायों के लोग प्रेम से जीवन-यापन करते हैं। यहां अनेकता में एकता दिखलाई पड़ती है। अनेकता में एकता की पृष्ठभूमि में संतों, सूूफियों और महात्माओं का योगदान सर्वाेपरि है। संत लोग पैदल भ्रमण करके पूर्व से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण एकता का संदेश देते हैं। यही कारण है कि सभी धर्मों और सम्प्रदायों के लोग अपने-अपने मत के अनुसार जीवन-यापन करते हुए सद्भाव पूर्वक रहते हैं और भाईचारे का संदेश देते हैं। अनेकता में एकता का संदेश संतों और महात्माओं के जीवन से मिलने वाला संदेश है। भारत प्रारम्भ से ही विभिन्नताओं का देश रहा है; किन्तु यहां की सांस्कृतिक उदात्तता के कारण इनमें एकता का ही स्वर मुखर रहा। उपनिषदों में कहा गया है कि जो दुश्चरित्र हैं, जिनका मन अशान्त और विक्षिप्त है, वे प्रज्ञान द्वारा भी आत्मा को नहीं प्राप्त कर सकते हैं ऐसे लोगों को बार-बार इस भवसागर में जन्म और मरण के बन्धन में बधना पड़ता है। शास्त्रों द्वारा प्रतिपादित सदाचरण एवं भगवच्चरणों की पूजा तथा भक्ति पवित्र करने वाली है और सभी प्रकार के पापों का नाश करने वाली है-
चरणं पवित्रं विततं पुराणं येन पूतस्तरति दुष्कृतानि।
तेन पवित्रेण शुद्धेन पूता अतिपाप्मानमराति तरेम्।।
पांच यमों और पांच नियमों में सभी प्रकार के सदाचार का अन्तर्भाव हो जाता है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, दया, सरलता, क्षमा, धृति, मिताहार और शुचिता-ये दस यम हैं तथा तप, सन्तोष, आस्तिकता, दान, ईश्वरपूजन, शास्त्रीय सिद्धान्त का श्रवण, लज्जा मति, जप एवं व्रत ये दस नियम हैं। शीतोष्णाहार, निद्रा पर विजय, सर्वदा शान्ति, निश्चलता तथा विषयेन्द्रियनिग्रह-ये यम हैं तथा गुरुभक्ति, सत्यमार्गानुरक्ति, मनोनिवृत्ति, सुखागत वस्तु आत्मा का अनुभव, सन्तोष, निसंगता, एकान्तवास, कर्मफल की अभिलाषा का न होना तथा वैराग्य-ये नियम हैं। सदाचार के रूप में पालनीय धर्मों का वर्ण, आश्रम, आयु, अवस्था, जाति, लिंग आदि भेद से वर्णन किया जा सकता है।
सत्यनिष्ठा, सत्यव्रत एवं सत्याचरण के अभाव में सभी व्रत, कर्म एवं ‘आचरण’ निष्फल हो जाते हैं। ‘सत्य’ ही ब्रह्म है, सत्य ही धर्म है। इस सत्य धर्म से बढ़कर कुछ नहीं है-सत्यमेवब्रह्म, धर्मात् परतरं नास्ति यो वै धर्मः सत्यं वै तत्। जैसे पृथ्वी के नीचे दबी हुयी सम्पत्ति का ज्ञान उक्त भूप्रदेश के ऊपर घूमने-फिरने वाले व्यक्ति को नही ंहोता, इसी प्रकार नित्यसुषुप्त दशा में ब्रह्म के समीप जाने वाली प्रजा को भी अपने हृदय में अन्तर्यामीरूप से वास करने वाले ब्रह्म का ज्ञान असत्य से आच्छदित होने के कारण नहीं होता।
मानव द्वारा किया गया अच्छा कर्म सदाचार कहलाता है। सदाचार में स्वयं को सुख मिलता ही है, साथ ही साथ अन्य प्राणियों को भी सुख और आनन्द मिलता है। आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् अर्थात् जो अपने प्रतिकूल हो वैसा आचरण दूसरे प्राणियों के साथ नहीं करना चाहिए। मानव-मानव से प्रेम करना सदाचार का सबसे अच्छा उदाहरण है। संतों का उपदेश जियो और जीने दो की भावना में परिलक्षित होता है। पृथ्वी पर जितने भी प्राणी हैं सबमें आत्मदर्शन करना और सबको अपने समान मानना संतों के उपदेश का लक्ष्य है। संत वाणी में जीव हिंसा का पूर्णतः निषेध रहता है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)