कविता "बे-शर्माई" : तिलकराज सक्सेना

लेखक : तिलकराज सक्सेना

जयपुर।

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बे-शर्माई बोली बड़ी बेशर्माई से,

मैंनें बे-शर्माई को घोल कर पीलिया है,

इस जग में नंगा होकर,

खुश रहना मैंने सीख लिया है।

ज़माने की कोई कड़वी बात,

अब मुझ पर असर नहीं करती,

जैसे चिकने घड़े पर,

पानी की बूंद ठहरा नहीं करती।

मेरी बहिनों शर्म, नैतिकता और मर्यादा को देखो,

हर दिन सूरज उगते ही शर्मिंदा होती हैं,

जाने किस-किससे, कभी गैरों से कभी अपनों से,

हाथ जोड़ अपनी आबरू बचाने को कहतीं हैं,

कोई नहीं सुनता उनकी, वो रोज़ बेआबरू होतीं हैं,

रात ढले किसी अंधेरे कोने में छुपा मुहँ अपना,

तकिये को अपने अश्क़ों से भिगोती हैं।

कोई नहीं सुनता उनकी, बे-शर्मों का ज़माना है,

निर्लज्ज बेशर्मी के आगे, कौन अपना कौन बेगाना है,

इसलिये मैंनें भी बे-शर्माई को घोलकर पी लिया है,

इस जग में नंगा होकर खुश रहना सीख लिया है।