आज महात्मा गांधी की जरूरत क्यों है?

महात्मा गांधी की जयंती पर विशेष लेख

लेखक : वेदव्यास

लेखक वरिष्ठ साहित्यकार व पत्रकार हैं

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राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का जन्म 153 साल पहले हुआ था और देहांत 75 साल पहले। इस तरह गांधी हमारे आजाद लोकतंत्र की व्यावहारिक राजनीति से बहुत पहले बाहर हो चुके हैं। देश की स्वतंत्रता के ठीक पहले ही भारत-पाक विभाजन को लेकर गांधी की बात जब से ठुकरा दी गई थी तब से हमें उनकी ये बात आज भी याद आती है कि अब मेरी कोई नहीं सुनता। जिस तरह इतिहास बताता है कि अमेरिका की राजनीति से अब्राहम लिंकन, रूस की लोकधारा से लेनिन-मार्क्स, चीन के विकास से माओत्से तुंग, वियतनाम से होचीमिन्ह, फ्रांस से डिगोल, दक्षिण अफ्रीका के उदय से नेल्सन मंडेला और क्यूबा से फिडेल कास्ट्रो जैसे राष्ट्र निर्माता भी नई पीढ़ी की समझ से आज ओझल हो चुके हैं उसी तरह महात्मा गांधी भी 1948 के बाद से लगातार सत्ता और राजनीति को लेकर भारत में लगातार अनावश्यक माने जा रहे हैं। पीढ़ियों का ये परिवर्तन इतना बेरहम हो गया है कि गांधी अब केवल राजघाट पर मिलते हैं या फिर भारत के लाखों गांवों में दरिद्रनारायण बनकर अपने को याद करते नजर आते हैं। स्थिति ये बन गई है कि पहले कांग्रेस ने तो अब भारत ने गांधी को अधिग्रहण कर लिया है और प्रत्येक सरकारी दफ्तर और अखाड़े में गांधी को सत्यमेव जयते के साथ दीवार पर टांग दिया है। फिर भी गांधी भारत ही नहीं अपितु दुनिया के हर देश में आज भी सत्य, अहिंसा और आजादी की  अंतप्रेरणा का संदर्भ बनकर आस्था के रूप में जीवित हैं। आज भी गांधी का विकल्प दुनिया में किसी के पास नहीं है क्योंकि हमने दो विश्व युद्ध भुगत कर भी शांति और न्याय का रास्ता छोड़ा नहीं है। इस तरह महात्मा गांधी मनुष्य की प्रकृति और सहज इच्छाओं का पर्याय हैं।

महात्मा गांधी को दरकिनार करने की वर्तमान राजनीति का ही ये परिणाम है कि गांधी की पहली वारिस कांग्रेस अपने अस्तित्व को बचाने की लड़ाई लड़ रही है तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी जनसंघ और भाजपा तक आते हुए और बदलते हुए ‘जय श्रीराम‘ की शरण में जाकर आस्था के नाम पर सांस्कृतिक हिंदू राष्ट्रवाद को अपना मोक्षधाम मान रही है। सभी राजनीतिक दल जाति, धर्म, क्षेत्रीयता और भाषाई दलदल में फंसे हैं और गांधी की सेवा की राजनीति को त्यागकर सत्ता बल, धन बल और भुज बल की राजनीति को अपनाकर इस लोकतंत्र को साम, दाम, दंड, भेद से लहूलुहान कर रहे हैं।

लेकिन हमें ये बात याद करनी चाहिए कि जहां कहीं भी सत्ता और व्यवस्था ने लोकतंत्र और मानवाधिकारों का दमन किया है और सामाजिक, आर्थिक गैर बराबरी का समाज विकसित किया है वहां गांधी, अंबेडकर, पटेल, मौलाना आजाद, भगत सिंह, सुभाष बोस, सुब्रमण्यम भारती जैसे हजारों देशभक्तों ने बार-बार आजादी और समानता के लिए हम भारत के लोगों की भावना और कर्तव्यों को जगाया है। भारत में लोकतंत्र की जो मशाल गांधी के नेतृत्व में कभी हमारे किसान-मजदूरों ने जलाई थी उसी प्रभातफेरी का आज से सुफल है कि हम अपने लोकतंत्र, संविधान और आजादी को बचाए हुए हैं। इसलिए समझ लीजिए कि भारत में गांधी की हत्या करवाने वालों, गालियां देने वालों और गांधी को अपनी प्रोपर्टी बनाने वालों के पास इस लोकतंत्र में विविधता और एकता का प्रार्थना-प्रवचन करने-सुनने का अब कोई विकल्प नहीं है। यही कारण है कि जो भी सत्ता में आता है और लालकिले से गरजता बरसता है वो पहले राजघाट पर बापू की समाधि को ढोक देता है और संसद की चैखट को चूमता है। अब आप विकास और परिवर्तन की आंधी चलाकर प्रौद्योगिकी के नए हथियार बनाकर और खुले बाजार की अर्थव्यवस्था लाकर भारत की अंतरआत्मा से गांधी को नहीं निकाल सकते। क्योंकि इस देश के 140 करोड़ देशवासी गांधी के हिंदू स्वराज का कोई दूसरा आधार और विचार नहीं जानते और 1947 से लेकर 2023 तक हम यही देख रहे हैं कि जवाहर लाल नेहरू, सरदार पटेल और मौलाना आजाद के बाद हमारी सामाजिक-आर्थिक नीतियों ने गरीब को और अधिक गरीब तो अमीर को और अधिक अमीर बनाया है। टेक्नोलॉजी के अत्यधिक प्रयोग ने भारत माता की संवेदना और सहिष्णुता को कमजोर किया है।

हम साम्राज्यवाद से मुक्त होकर अब पुनः आर्थिक उपनिवेशवाद के चंगुल में फंसते जा रहे हैं तो सामंतवाद को हराकर नए सत्ता के सामंतवाद की शरण में जा रहे हैं। भारत के लोकतंत्र को धर्म और जाति की हिंसा में धकेल रहे हैं। हमने दलित, आदिवासी, महिलाएं और अल्पसंख्यकों के बीच एक नया वर्गभेद और वर्ण संघर्ष फैला दिया है क्योंकि हम गांधी के प्रिय अछूतों को भूल गए हैं जो आज भी समाज के गटर की गंदगी में शहीद हो रहा है। अब आप बताइए कि गांधी को किसने मारा है और गांधी को किसने धोखा दिया है और गांधी को किसने भुलाया और क्यों भुलाया है? इन प्रश्नों का हल कांग्रेस का धर्मनिरपेक्ष-समाजवाद और संघ परिवार का एकात्म मानववाद और धार्मिक राष्ट्रवाद-भला कैसे भूल रहा है? हमें फिर ये ही दिखता है कि गांधी का जीवन दर्शन आज की सत्ता व्यवस्था में नष्ट करके हम गांवों में रहने वाले करोड़ों देशवासियों तथा लोकतंत्र का अपमान कर रहे हैं क्योंकि स्वच्छता मिशन का गांधी तो आज भी अछूत और अधिकार विहीन है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)