जातिय असन्तोष से सुरक्षा को खतरा : डाॅ. सत्यनारायण सिंह

सवाल आरक्षण की सीमा का

लेखक : डाॅ. सत्यनारायण सिंह

लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी है 

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देश के अधिकांश भागों में खुल्लम खुल्ला साम्प्रदायिकता व जातीयता को बढ़ावा दिया जा रहा है। हालिया घटनाक्रमों ने धर्म निरपेक्षता के सिद्धान्त को पीछे दखेल दिया और साम्प्रदायिक तनाव सतह पर दिखाई देने लगा। समाज में तेज ध्रुवीकरण बन रहा है। गो हत्या और लव जिहाद जैसे कानूनों से अलगाव वाली मानसिकता में इजाफा हुआ है। आरक्षण के लिए जातियों की मांग बढ़ रही है। मिजोरम में हुआ दंगा इसका स्पष्ट उदाहरण है।

पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी व आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत की टिप्पणी आरक्षण कहा ले जायेगा, उच्च्तम न्यायालय के फैसले के विरूद्ध अगड़ो के लिए आरक्षण लागू किया। उच्च्तम न्यायालय ने इन्द्रा साहनी बनाम भारत सरकार में तय किया था केवल आर्थिक आधार पर, सम्पत्ति व आय के आधार पर आरक्षण नहीं हो सकता। आरक्षण की सीमा भी पचास प्रतिशत निर्धारित की थी। भाजपा सरकार ने संविधान संशोधन से 50 प्रतिष््रात से बाहर 10 प्रतिशत आरक्षण आर्थिक आधार, आय के आधार पर कर दिया।

हमारे संविधान निर्माताओं ने संविधान के अनुच्छेद 330-334 के अन्तर्गत अनुसूचित जाति और जनजातियों के लिए लोकसभा में दस वर्ष के लिए आरक्षण व्यवस्था इस उद्देश्य से की थी कि सामाजिक और शैक्षण्किा दृष्टि से पिछड़े इन वर्गो के व्यक्ति दस वर्ष में प्रगति करके अन्य देशवासियों के लगभग इतने समान हो जायेंगे  िकवे संविधान द्वारा प्रदत्त स्वतंत्रता व समानता के अधिकारों का उपयोग सहज रूप से कर सके। 1951 में संविधान में संशोधन कर यह व्यवस्था की गई कि सामाजिक व शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े हुए वर्गो के लिए कोई विशेष उपबन्ध किए जाएं। इस संशोधन के तरिये एससी, एसटी व पिछड़ा वर्गो का आरक्षण की व्यवस्था कर दी। 

आरक्षण की अवधि को निरन्तर संशोधनों के द्वारा बढ़ाया जाता रहा तथा इस व्यवस्था में बाद में ऐसे वर्गो को भी शामिल कर दिया जिनका पिछड़ापन विवादास्पद था। इससे सवर्ण जातियों में रोष उत्पन्न हुआ और परिणामस्वरूप राजपूत, ब्राह्मण, वैश्य, कायस्थ तथा अगडी समझी जाने वाले व स्वयं को अगडी जाति मानने वाली जातियों ने आरक्षण की मांग उठाई। राजनेताओं ने राष्ट्रीय दृष्टि से मिल बैठकर विचार करने के बजाय वोट बैंक को बढ़ाने के उद्देश्य से अगड़ों को आरक्षण दे दिया। पिछड़ा वर्ग लिस्टों का रिवीजन नहीं हुआ, नाम हटाने के बजाय लगातार जाति नाम राजनैतिक आधार पर जोड़े जाते रहे।

आजादी के बाद आरक्षण की इस व्यवस्था से किसको कितना लाभ मिला और किसको हानि तथा देश पर इसका क्या व कैसा प्रभाव पड़ा इसकी विस्तृत समीक्षा आवश्यक है। यह जरूर है कि शासकों ने नीति के अनुसार नियत नहीं रखी और इसलिए नियती यह रही कि अनेक पिछड़ी जातियों को आरक्षण का लाभ नहीं मिला। निर्धारित कोटे के अनुसार भी पद नहीं मिले। मोटे तौर पर यह स्पष्ट है कि समाज में जो व्यक्ति और परिवार वास्तव में पिछड़े हुए है, वे अब भी उतने ही पिछड़े हुए हैं जितने पहले थे। यह किसी विशेष जाति तक सीमित नहीं है।

आरक्षित वर्ग के जो लोग काफी तरक्की कर चुके हैं, अब आरक्षण की मलाई चाट रहे है। सरकारी नौकरियां कम होती जा रही है। नौकरियां विशिष्ट लोगों तक सिमट गई है। निजीकरण ने नौकरियां कम कर दी है। क्रिमीलेयर को आरक्षण के दायरे से बाहर करने का आदेश फिजूल हो चुका है, उसकी सीमा बढ़ती जा रही है।

आरक्षण वर्तमान व्यवस्था में जातिवाद, सम्प्रदायवाद व परिवारवाद के चलते कम योग्य व्यक्ति प्रशासनिक व तकनीकि क्षेत्रों में आगे बढ़कर कार्य कुशलता को भी प्रभावित कर रहे हैं। उनमें हीनता की भावना परिलक्षित होती है, वर्ग विशेष के आधार पर योग्य होते हुए भी उपेक्षा की दृष्टि से शिकार होते हैं। अब तक 64-65 प्रतिशत सरकारी क्षेत्रों को आरक्षित कर दिया है। जातिय जपगणना नहीं होने से प्रत्येक समाज में अपने द्वारा निर्धारित जनसंख्या के अनुसार आरक्षण की मांग उठी है। योग्यता के आधार पर की जाने वाली नियुक्तियां जो वर्तमान में 35-36, अब जातिय आरक्षण बढ़ने से और कम होने की संभावना हैं। एससी, एसटी जनसंख्या के अनुसार क्रमशः 17 व 13 प्रतिशत मांग रहे है, जो पिछड़े जनसंख्या के अनुसार तथा राजस्थान में 27 प्रतिशत मांग रहे हैं। नतीजा मेरिट की सीटें 30 प्रतिशत से भी कम हो जायेंगी। दिव्यांग व भूतपूर्व सैनिक होरीजेन्टल आरक्षण से पृथम वर्टीकल आरक्षण मांग रहे हैं।

आरक्षण संबंधी हितकर भेदभाव की नीति विकृत हो गई है। लिस्टों का व क्रिमीलेयर का रिवीजन आवश्यक है। पिछड़े वर्ग आयोग को उच्च्तम न्यायालय की भावना के अनुसार कार्य करना होगा। वर्तमान व्यवस्था पर मिल बैठकर देश हित में विचार करने की आवश्यकता है जिससे इस नीति में बदलाव किया जा सके। सामर्थहीन व्यक्तियों को बिना किसी जातिगत भेदभाव के सभी प्रकार का संरक्षण दिया जाए। उनके लिए निःशुल्क शिक्षण और प्रशिक्षण की व्यवस्था हो, बौद्धिक विकास के लिए सभी साधन की व्यवस्था हो, बौद्धिक विकास के लिए सभी साधन, पुस्तके, पत्र पत्रिकाएं, पंचायत स्तर पर उपलब्ध हो, उनकी प्रगति व रोजगार के लिए हर प्रकार की सुविधाएं प्रदान की जाए। केवल आरक्षण की सीमा बढ़ाना समस्या का हल नहीं है अपितु असंतोष, दुर्भावना व आपसी मनमुटाव बढ़ेगा। आन्दोलनों की जड़ में असमानता, बेरोजगारी है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)