देश बदल रहा है, लेकिन कैसे...? : डॉ.सत्यनारायण सिंह

लेखक : डॉ.सत्यनारायण सिंह

लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी है 

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देश में सन् 2013-14 में की गई आर्थिक जनगणना में स्पष्ट जाहिर हुआ था कि देश में लगभग 5.84 करोड़ छोटे कारोबार हैं जिनमें 12.77 करोड़ लोग काम करते हैं और अपनी रोजी रोटी कमाते हैं। इसके अतिरिक्त सन् 2010-11 में की गई कृषि गणना के अनुसार 13.83 करोड़ छोटे कृृषक और खेतीहर मजदूर हैं। इस ‘‘इनफारमल सेक्टर’’ की अर्थ व्यवस्था के हिस्से अनौपचारिक एंटरप्राईज कहा जा सकता है। छोटे व्यापार देश के सकल घरेलु उत्पाद का   40 प्रतिशत है परन्तु वर्तमान आर्थिक नीतियों व कदमों से इस अर्थ व्यवस्था पर और जनसाधारण पर बहुत खराब असर पड़ रहा है। 

भारत में व्यापार तीन स्तरों पर होता है:- बड़े व्यापारिक संगठन, मध्यम व्यापारिक संगठन और छोटे व्यापारिक संगठन। अक्सर इनके बारे में चर्चा दो भागों में होती है। एक तरफ बड़े संगठन और दूसरी तरफ मध्यम व छोटे संगठन/नोटबंदी, जी.एस.टी आदि कदमों का बडे संगठनों पर असर अलग व अच्छा रहा परन्तु मध्यम और छोटे व्यापारिक संगठनों व गरीबों को तकलीफदेह एवं नुकसान दायक रहा। देश में काले धन की उत्पत्ति पर कोई असर नहीं पड़ा वह आज भी निर्मित हो रहा है। स्पष्ट आंकलन अर्थशास्त्रियों का यह है कि असर वाणिज्य, व्यापार, कारोबार पर पड़ा। माध्यम और छोटे व्यापारियों, नकद पैसे से कच्चे माल के खरीदने वाला, बने हुए माल को बाजार तक पहुंचाने, उसकी बिक्री करने और कर्मचारियों व मजदूरों को वेतन देने वालों पर कष्टदायक न विपरीत असर पड़ा। अर्थशास्त्रियों के अनुसार ही सरकारी आंकड़ों के अनुसार मुद्रा के 86 प्रतिशत हिस्से को अर्थव्यवस्था में निकाल लेने से देश के लगभग 80 प्रतिशत मजदूर वर्ग प्रभावित हुआ।

अधिकतर छोटे व्यापारियों में अधिकांश व्यापार प्रतिदिन कमाने व प्रतिदिन खाने का है, जमा पूंजी बहुत कम या नहीं के बराबर होती है। अर्थव्यवस्था की उथल पुथल से उनके व्यापार व जनसाधारण पर खराब असर पड़ा। विभिन्न नेशनल व स्टेट हाईवेज पर चल रहे होटल, ढ़ाबे व फुटकर व्यापार बंद हो गये आज तक भी उनका व्यापार साधारण व्यवस्था में नहीं पहुंचा। कोई नहीं विचार कर रहा है, बदलावों के चलते कितने विक्रेतागण मशीनों पीओएस मशीन या स्वाईप मशीन द्वारा व्यापार कर पायेंगे। मशीने खरीदने इस्तेमाल करने का खर्चा क्या लघु व मध्यम उद्योगवाले बरदास्त कर पायेंगे ? नतीजा यह हो रहा है कि केवल बडे़ व्यापारिक संगठन, व्यापारिक माल, भण्डार व प्रतिष्ठान ही रह जायेंगे छोटे व्यापारी व मध्यम वर्ग के व्यापारी समाप्त हो जायेंगे। जैसा अमेरिका में ’’वाल मार्ट’’ जैसी बड़ी कम्पनियों ने छोटे व्यापारियों को लगभग पूरी तरह समाप्त कर दिया है। बड़ी रिटेल कम्पनियों ने बड़े मालों में बडे स्टोर खोलकर छोटे व्यापारियों, किराना आदि बेचने वाले व्यापारियों का धन्धा मंदा कर दिया है। बड़ी जूलरी कम्पनियों ने सुनारों का धन्धा लगभग चौपट कर दिया है। यह सब समाज में विषमता, असमानता व बेरोजगारी बढ़ायेगा। छोटे व्यापार मंदी से तंग आकर बंद हो जायेगें व मंहगाई बढ़ेगी।

इस सबका केवल आर्थिक दुष्प्रभाव ही नहीं पड़ेगा गहरा सामाजिक प्रभाव भी पड़ रहा है। सामाजिक संवेदना व संवेदनशीलता समाप्त हो रही है, कम्पीटीशन, प्रतिद्वन्दता बढ़ रही है। आज सरकार व बड़े व्यापारिक औद्योगिक संगठनों को इस विपरीत प्रभाव की कोई चिन्ता नहीं है साईबर व अन्य गम्भीर अपराध बढ़ रहे हैं। निर्दयी प्रतिस्पर्धा घातक हो सकती है सरकार के आर्थिक फैसलों से अर्थव्यवस्था और सामाजिक ढ़ांचे पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। 

शिक्षा व स्वास्थ्य के क्षेत्र में प्राईवेट निवेश छा गया है। उच्च शिक्षा गरीब व माध्यम वर्ग के लिए दुष्कर हो गई है। निजी अस्पतालों में स्वास्थ्य सेवाऐं मंहगी हैं दुष्कर हैं। सरकारी अस्पतालों में पूर्ण सुविधा व आधुनिकतम साधन नहीं है। ऋण आधारित इकानामी चल निकली है। निजी बचत कम हो रही है , ऋण बढ़ता जा रहा है। बेरोजगारी, मंहगाई की बजह से ग्रामों से शहरों में पलायन बढ़ रहा है। आवासीय मकान मंहगें व दुष्कर  होते जा रहे है। लोक कल्याण, समाज कल्याण, सामाजिक सरोकार की नीतियां बंद होती जा रही है। उच्च वर्ग के हाथों में अधिक पैसा जा रहा है। विनिर्माण क्षेत्र में नौकरियां घट रही है। सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योग जो रोजगार पैदा कर रहे थे बेचे जा रहे हैं बंद हो रहे हैं। डिजिटल पब्लिशिंग अवसरों के साथ साथ चुनोतियां भी बढ़ रही हैं, मुख्य चुनौतियों में एक ‘‘पाईरेसी‘‘ है। डिजीटल सामग्री आसानी से सुलभ होने के कारण अवैधरूप से वितरित करना आसान हो रहा है। 

शहरों में गंदी बस्तिया, अपराध, महिला असुरक्षा बढ़ रही है। महिलाओं के विरूण अपराध बढ़ रहे है अदालतो में लाखों मुददमें वर्षों से ही नहीं पीढ़ियो से पेंडिग हैं। संवैधानिक संस्थायें कमजोर हो रही है। जातिवाद, सम्प्रदायवाद, धार्मिक कटुता व भेेदभाव बढ़ रहे हैं। जनसंख्या लगातार बढ़ रही है नियंत्रण की कोई कारगर नीति नही है। राष्ट्रीय भावना व लोकतांत्रिक भावनायें समाप्त हो रही है। संसदीय संस्थाओं, राजनेताओं का स्तर गिर रहा है जनता में उनके प्रति सम्मान भावना कम होती जा रही हैै। समावेशी विकास की नीति व भावना समाप्त हो रही है। प्रशासन में राजनैतिक दखलन्दाजी व गिरावट बढ़ रही है। केन्द्र व विपक्षी राज्यों में तालमेल नहीं है। योजनाआंे का मीडिया में प्रचार अधिक जमीन पर क्रियान्वयन असंतोषजनक है। 

भारत में कुल जनसंख्या का लगभग 65 प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्र में रहता है। स्थानीय स्तर के विकास के लिए भूमि सुधार, सिंचाई व जल प्रबंन्धन, लघु उद्योग, कुटीर उद्योग, ग्रामीण  आवास, स्वच्छता व स्वास्थ्य, सार्वजनिक वितरण प्रणाली, सड़क संचार, विद्युतिकरण शिक्षा, बुनियादी ढां़चे के विकास, आजीविका विकास की आवश्यकता है। दीर्घ व स्वस्थ्य जीवन जीने, शिक्षित होने, शहरों की और पलायन रोकने के शीघ्र कदम उठाने व नीतियों में परिवर्तनों की आवश्यकता है। शासन की उत्कृटता का आर्थिक विकास, गरीबी उन्मूलन और पोषण पर सीघा प्रभाव पड़ता है इसलिए प्रशासन में क्रांतिकारी परिवर्तनों की आवश्यकता है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)