सैलाब : सफ़र में साथ गुज़ारे लम्हों का “हिसाब”

कविता

लेखक : तिलक राज सक्सेना 

जयपुर 

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बहा ले गया एक दिन, ज़हन में बसी बीते लम्हों की

यादों और तस्वीरों को, अश्क़ों का “सैलाब”,

ना कोई तस्वीर है अब इन आँखों में, ना दिल में है

कोई ख़ूबसूरत हसरत या कोई “ख़्वाब” ,

कभी जो रहा करता था हर वक़्त मिलने को बेकरार

वो माँग बैठा सफ़र में साथ गुज़ारे लम्हों का “हिसाब”

“इश्क़” भी बेमिसाल था उसका, बेवफ़ाई भी है ”लाज़बाब”

उलझन है कि उसको इस दगा का क्या दें “खिताब”

कोई सज़ा दें उसको, या लिख दें उस पर कोई "किताब"