फिर तो मोदी सरकार गिर भी सकती है!

लेखक : नवीन जैन 

(स्वतंत्र पत्रकार)

इंदौर (मध्य प्रदेश) भारत।

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इक्कीस सितंबर को देश की आला अदालत ने आखिर कार एक तरह उस पीड़ा का अनुमोदन कर दिया, जो भगवान बुद्ध, और भगवान महावीर के सदियों पुराने इस देश में आम आदमी की पीड़ा है। वैसे, यहां राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का नाम भी लिया ही जाना चाहिए, जो दुनिया भर में शांति, और अहिंसा के अगले अग्रदूत कहलाए, लेकिन देश में कुछ सालों से अजीब सा फैशन चला है कि उक्त नाम लिया नहीं कि कई लोगों के पेट में राजनीतिक मरोडे आने लगते हैं। 

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि सोशल मीडिया, और नामचीन टीवी चैनलों पर जिस तरह से नफरत फैलाई जा रही है उस पर केंद्र सरकार को मूक दर्शक नहीं बने रहना चाहिए। स्पष्ट संदेश छिपा है इस बात में कि सरकार इस मामले में ठोस कदम उठाए। जब आज तक चैनल शुरू ही हुआ था, तो उसके तत्कालीन वरिष्ठ एंकर स्व.सुरेंद्र प्रताप सिंह नई दिल्ली के एक टाकीज में आग लगने की घटना से इतने आहत हुए थे कि उनकी ब्रेन हेमरेज से अकाल मृत्यु हो गई थी।अक्सर टीवी एंकर जबान चलाते वक्त ध्यान ही नही रखते कि उनके एकाध उल्टे सीधे वाक्य से रवांडा देश में हुई जैसी मार काट मच सकती है। 

हाल के इतिहास में बस एक नारे ने भारत में भी नरसंहार करवा दिया था। कुछ सालों में खासकर इलेक्ट्रानिक और सोशल मीडिया ने समाज में सांप्रदायिकता को लेकर ज़हर बोना शुरू किया है। उसकी वजह से  टीवी एंकरों का उपहास भी किया जाने लगा है। इस तरह के एंकरों के साथ हाथा पाई, महिला रिपोर्टरों के लिए अपशब्दों का प्रयोग तक होने लगा है। रोजाना टीवी पर होने वाले कार्यक्रमों के टाइटल होते हैं, हल्ला बोल, दंगल। हालत इतनी बिगड़ चुकी है जब डिबेट चल रही होती है, तो एक दूसरे को वक्त्ता मारने तक दौड़ने लगते हैं। लगने लगता है कि इन स्टूडियो के बाहर अब कहीं एंबुलेंस नहीं खड़ी करवानी पडे।

याद करें कि करीब ढाई साल पहले कांग्रेस के एक प्रवक्ता को अन्य लोगों से डिबेट करते समय दिल का ऐसा गंभीर दौरा पड़ा कि अस्पताल में उनका निधन हो गया। तो, सवाल है कि इन एंकर्स को कौन रोके? पहले तो इस मूल बात को एक बार फिर समझ लें कि पत्रकारिता चाहे जितना बड़ा प्रोफेशन हो जाए, उसमें मिशनरी की भावना नहीं रहेगी, तो वह देश को बनाने वाला लोकतंत्र का चतुर्थ और सबसे मजबूत पाया हो ही नहीं सकता। पत्रकारिता सबसे पहले अंदर की आग है। बुरा यह हुआ है कुछ सालों से इस आग को सोने चांदी के सिक्कों से बुझाने की सफलतम कोशिश हुई है। मीडिया घरानों के ज्यादा तर मालिक या तो राज्यसभा की शान बढ़ाना चाहते हैं या किसी बड़े सरकारी सम्मान से नवाजे जाने के लिए जुगत भिड़ाते हैं। पत्रकार भी देखा देखी की इसी रो में चलते हैं और यहां तक कह देते हैं कि निजी बातचीत में कि हम तो सरकारी मुलाजिम हो गए हैं। इस देश में सरकारी नौकरी तो सरकारी घर जवाई बनने जैसा है। 

एक वरिष्ठ टीवी पत्रकार का मासिक वेतन कहते हैं एक करोड़ रु मासिक है। अक्सर  दिल्ली, मुंबई, भोपाल के टीवी पत्रकारों के पास साठ करोड़ के बंगले तक हैं कहने, बोलने और लिखने की आजादी का मतलब यह नहीं कि आप समाज में जहर फैलाएं। कई टीवी चैनल्स और अखबार पत्रकार न होकर पार्टी प्रवक्ता की तरह काम करते है। जब तक केंद्र में स्व अटल बिहारी वाजपेई के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार थी, तब तक यह तो तय था कि एक खास विचारधारा या पार्टी एजेंडा के अंतर्गत ही देश नहीं चलेगा। अटलजी ने ही कहा था कि सवाल यह नहीं है कि मैं रहूंगा या आप रहेंगे। सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि देश बचेगा या नहीं। इसीलिए हिंदी पत्रकारिता के महानायक स्व. राजेंद्र माथुर ने यहां तक लिखा था कि जब देश ही नहीं बचेगा तो हिंदुत्व को आखिर किस खूंटी पर ले जाकर टागोगे?

दिक्कत सबसे बड़ी यही भी है कि जिसके हाथ में भी छोटा सा खिलौना उर्फ़ मोबाइल है, वह अक्सर पत्रकार बन बैठता है। हरेक पार्टी का अपना एक अजेडा होता ही है । भाजपा के पहले भी तुष्टिकरण की नीति पर सरकारें सालों चलीं, लेकिन तब समाज में इतनी दरारें नहीं पड़ी हुई थी। एक शेर है कि नफरत का सफर घड़ी दो घड़ी,तुम भी थक जाओगे हम भी थक जाएंगे। पहले सोचा गया था कि टीवी के लिए भी प्रिंट मीडिया की तरह स्वायत्त शासी नियामक तंत्र बनाया जाए, लेकिन बीच में ही बिल्ली रास्ता काट गई। 

न्यूज ब्रॉडकास्टर्स स्टैंडर्ड अथॉरिटी के प्रयास भी नाकारा साबित हुए। लोकतंत्र का हामी कोई भी संजीदा व्यक्ति नहीं चाहेगा कि मीडिया की बोलती बंद करने के लिए सरकार 1975 में लगी इमरजेंसी जैसी गलती को दोहराए। वर्ना तो, इमरजेसी हटने के बाद स्व. इंदिरा गांधी की सरकार जैसी मोदी सरकार भी ध्वस्त हो सकती है। सुप्रीम कोर्ट की तकलीफ का आशय शायद यही निकलता है कि सोशल मीडिया और टीवी चैनलों को नियंत्रित करने के लिए भी वैधानिक शक्तियों से लैस नियामक संस्था बनाई जाए। वैसे तो एडिटर्स गिल्ड भी है लेकिन किस काम का? (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)