प्रत्येक व्यक्ति सुशासन की आवश्यकता महसूस कर रहा है : डा.सत्यनारायण सिंह

लेखक : डा.सत्यनारायण सिंह

(लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी हैं)

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सुशासन प्रत्येक सरकार के एजेंड़े में सबसे ऊपर होना आवश्यक है। देश में प्रत्येक व्यक्ति सुशासन की आवश्यकता महसूस कर रहा है। सरकारी तंत्र विकास से जुडी योजनाओं के क्रियान्वयन के दौरान ही आम आदमी से रूबरू होता है। योजनाओं के सही क्रियान्वयन से ही हम गरीबी दूर कर सामाजिक न्याय के लक्ष्य प्राप्त कर सकते हैं और आर्थक विकास की राह पर अग्रसर हो सकते हैं। सरकारी योजनाओं का फायदा आम आदमी तक पहुँचे, इसके लिए एक कारगर, प्रभावी जवाब देह और पारदर्शी व्यवस्था होना जरूरी है।इसलिए नौकरशाही को चुस्त दुरूस्त बनाये रखना उसका नियंत्रण व पुनर्गठन सरकार के ऐजेन्डे का प्रमुख हिस्सा होता है। योजनाओं के क्रियान्वयन से जुडे अधिकारियों व कर्मचारियों को जवाब देह बनाने के लिए विभिन्न स्तरों पर पुनर्गठन कर ऐसी व्यवस्था बनाने की जरूरत महसूस हो रही है जहां हर काम की जिम्मेदारी सुनिश्चित हो तथा जो आम लोगों के प्रति संवेदनशील हो। 

सरदार पटेल ने भारतीय प्रशासनिक सेवा के संवैधानिक संरक्षण का समर्थन किया ताकि यह जनता के फायदे के लिए एक स्वतंत्र  पक्षधर के रूप में अपना काम करने में सक्षम हो सके और राजनैतिक लोगों के द्वारा सत्ता के दुरूपयोग पर रोक लग सके। आजादी के पश्चात राजनीतिक व्यवस्था तथा लोक सेवा ने हमें उत्कृष्ट लोग दिये। उन्होंने हरित क्रांतियों की परिकल्पना की और उन्हें क्रियान्वित किया, स्वास्थ्य, शिक्षा एवं साक्षरता विज्ञान व निर्माण के क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान किया। उन्होंने दलितों व जनजातियों की रक्षा की। वित्त व्यवस्था की नवीन अवधारणायें विकसित कीं। वैज्ञानिक और कृषि सम्बन्धी शोधों व वैश्विक कार्यक्रमों को तैयार किया। बहु धार्मिक और बहु-जातिय समाज की अवधारणा व विरासत, जनतांत्रिक और सम्मिलनकारी आधार को मजबूत किया। 

मानवाधिकारों  खासकर समाज के कमजोर वर्गों के मानवाधिकारों की रक्षा करने, धर्म निरपेक्षता, कानून द्वारा समान संरक्षण, समावेशी अर्थ व्यवस्था, पर्यावरण, प्रौद्योगिकी विकास की प्राथमिक एजेंसी नौकरशाही है। भारत के संस्थापकों की संकल्पना के अनुरूप प्रतिबद्धता, वंचितों के प्रति सहानुभूति, नीतियों के प्रति व्यवस्थागत समर्थन, प्रशासनिक व्यवस्था के लिए अपेक्षित गुणों में सम्मिलित है। 

प्रशासन को लेकर आम तौर पर असंतोष है। ज्ञात अवरोधों व समाधानों के बारे में चर्चा भी होती है। परन्तु सुगठित प्रयास का अभाव है व सुशासन की चर्चा विचारों की बंद गली में ही रह जती है। लोक सेवा तथा विधिवत सुधार को पिछली सीट पर रख दिया जाता है। नीतियों का क्रियान्वयन महज प्रशासनिक कार्यवाही नहीं है। लोक सेवा की विशिष्ट प्रतिभाओं को बड़ी भ्ूामिका देने के लिए सुधारों की जरूरत तो अवश्य पड़ेगी। प्रशासन को सुचारू रूप से चलाने व निर्धारित नीतियों को सफलता पूर्वक लागू करने में जरूरी ज्ञान और विशेषज्ञता की आवश्यकता तो रहेगी ही। नीति निर्माण के लिए शीर्ष पर गहरे ज्ञान की अपेक्षा होती है, उत्कृष्टता को बढ़ावा देने के लिए स्पर्धा का दवाब बनाना अनिवार्य है। 

लोक सेवा के क्षेत्र में सुधार इस अर्थ में टुकड़ों में नहीं हो सकता कि यदा कदा किसी पद पर किसी विशेष  व्यक्ति को नियुक्त कर दिया जाये। वरिष्ठ अधिकारियों का जनता के प्रति उत्तरदायित्व बढ़ाना आवश्यक है। अधिकारियों की आम शिकायत होती है कि राजनीतिज्ञ व विधायक जिले के मामलों में निरंतर हस्तक्षेप करते हैं लेकिन जनतंत्र में यह भी समझना होगा कि चुने हुए प्रतिनिधियों को प्रशासन के प्रति उत्तरदायी ठहराया जाता है। 

निश्चित रूप से प्रशासन में सुधार लाना आसान नहीं है, मजबूत इच्छा शक्ति वाले नेतृत्व के द्वारा ही परिवर्तन व सुधार लाए जा सकते है। बहुत से देशों में सिविल अधिकारीयों का चयन और पदोन्नति की प्रक्रिया में नये ज्ञान के साथ सुधार हुआ है। अब संवाद और सामान्यज्ञान उनके लिए मुख्य कसौटी नहीं है। उद्देश्य की भावना कायम रखने के साथ जनसेवा के मूल्यों की समझ व प्रतिबद्धता आवश्यक है। जरूरत है सरकार के अधिकारियों व कर्मचारियों की मानसिकता में परिवर्तन की। सरकारी अधिकारियों व कर्मचारियों को अनियंत्रित, अरचनात्मक, तथ्यशील और प्रक्रिया से बंधे रहने वाला माना जाता है। सुशासन की चाबी उनकी मानसिकता बदलने में निहित है। नकारात्मक मानसिकता  जटिल कार्य-संस्कृति  का नतीजा है जिसे बदलने की आवश्यकता है। इनका प्रशिक्षण भी केवल नियम-विनियमों  और प्रक्रिया तक ही सीमित रहा है। जबकि उन्हें विभिन्न कार्योें के सुचारू संचालन के लिए लगातार प्रशिक्षण दिये जाने की आवश्यकता है। 

विकास के लक्ष्यों को हम तब तक पूरा नहीं कर सकते जब तक की भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई को हम मुहिम के तौर पर नहीं चलायें। भ्रष्टाचार और स्वच्छ प्रशासन या सुशासन व समावेशी विकास एक साथ नहीं चल सकते। भ्रष्टाचार व रिश्वतखोरी व्यापारिक व सरकारी जगत में, चर्चा के दौरान, एजेंडे में सबसे ऊपर होती हैं। सर्वांगीण विकास तभी संभव है जब माहौल भ्रष्टाचार मुक्त हो। जन संसाधनों का सुचारू व सही इस्तेमाल लोगों के हित में एक पारदर्शी व्यवस्था के तहत ही संभव है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)