महात्मा गांधी व संविधान निर्माता अम्बेडकर दोनों लोकतंत्र के पक्के समर्थक थे

14 अप्रेल जन्म दिवस पर

लेखक : डाॅ. सत्यनारायण सिंह

(लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी है)

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दलितों के सशक्तिकरण के संबंध में महात्मा गांधी और डा. भीमराव अम्बेडकर दोनों के बीच वैचारिक मतभेदो का  छिद्रान्वेषण अब भी जारी है। अम्बेडकरवादी गांधी का नाम लेने से ही चिड़ते है। गांधीवादी लोगों की नजर में डा. अम्बेडकर एक दलित नेता थे। अम्बेडकरवादियों का गांधी पर आरोप है कि वे वर्ण व्यवस्था के समर्थक थे, जाति प्रथा के हामी थे, सीधे-सीधे मनुवादी थे। उन्होंने जाति प्रथा का मुखर विरोध नहीं किया जबकि डा. अम्बेडकर का लक्ष्य दलितों की आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक आजादी प्राप्त करना था। वे देश की आजादी के पहले दलितों की आजादी चाहते थे।

आरोप प्रत्यारोपों में सच्चाई नहीं है, तथ्यहीन हैं। यह कहना सही नहीं है कि गांधी ने स्वतंत्रता आन्दोलन में वर्ण व्यवस्था का समर्थन किया। अछूत समस्या के चलते ब्राह्मण वर्ग, जो अछूतों को हिन्दु समाज में लौटा लाने के प्रस्ताव व कार्यक्रमों का घोर विरोध कर रहे थे, के विरूद्ध उन्होंने 8 मई 1933 को 21 दिन का अनशन आरम्भ किया था। उन्होंने हरिजन अखबार का प्रकाशन आरम्भ किया। महात्मा गांधी दलित बस्तियों में जाकर रहते थे। उन्होंने ने कहा था ‘‘अगर मुझे फिर जन्म लेना पड़े तो मैं अस्पृश्यों में ही जन्म लूं जिससे उनके अपमान का हिस्सा बन सकूं, उनकी मुक्ति के लिए काम कर सकूं।’’ उन्होंने कहा था ‘‘एक व्यक्ति ऊपर है, दूसरा नीचे। ऐसा विचार हिन्दु धर्म का विरोधी है।’’ सामाजिक अन्याय के विरूद्ध वे जीवनभर तीव्र आवेग से जूझते रहें। जनता को झकझोरने हेतु उन्होंने बिहार के भूकंप को छूआछूत की सजा बताया।

गांधी ने आजादी के लिए संघर्ष करते हुए हरिजनों के आर्थिक सामाजिक राजनीतिक अधिकार के लिए भी सतत् संघर्ष किया। अपने गांधी ने लिखा है, मैं ऐसे भारत के लिए कोषिष करूगां कि गरीब से गरीब आदमी भी यह महसूस करे सके की वह इसका देष है, मैं ऐसे भारत के लिए कोषिष करूगां की ऊंच व नीच का कोई भेद न हो, और सब जातियां मिलजूल कर रहती है। ऐसे भारत में अस्पष्टता व शराब आदि अनिष्ठों के लिए कोई स्थान नहीं होगा, उसमे स्त्रीयों को पुरूषों के सम्मान अधिकार होगें। सत्य अहिंसा सत्याग्रह और शान्ति के बल पर अस्पष्टता के विरूद्ध तथा अंतिम जन के हित का दर्षन शास्त्र दिया। इसलिए रवीन्द्रनाथ टैगोर ने महात्मा तो सुभाष चन्द्र बोस ने बापू का नाम दिया, गांधी सदैव दूसरों से जा अपेक्षा की उसे अपने जीवन मे लागू किया।  

यह सच है गांधी आध्यात्मिक राजनीतिज्ञ थे, गीता पर उनका विश्वास था, परन्तु जातिगत छुआछूत का उन्होंने पुरजोर विरोध किया था। वे पूर्ण स्वाधिनता के लिए संघर्षरत थे और इस राष्ट्रव्यापी आन्दोलन में एक हिस्सा अछूतों के लिए किया गया कार्य था। गांधी भावनात्मक धार्मिकता से भरे थे। उनकी नजर में हिन्दुओं की एकता महत्वपूर्ण थी। अम्बेडकर का लक्ष्य दलित वर्ग की आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक आजादी था। वे राजनैतिक आजादी के पूर्व दलितों की आजादी चाहते थे। डा. अम्बेडकर व्यवहारिक अनुभव से पैदा हुए चिंतन के प्रणेता थे, दलितों के लिए पृथक निर्वाचन का अधिकार मिलना महत्वपूर्ण मानते थे। उन्होंने दलितों से गांव छोड़कर शहरों में बसने का आव्हान किया। उन्होंने दलितों को संघर्षशील बनने की प्रेरणा दी। अम्बेडकर भारत में राजनैतिक स्वतंत्रता ही नहीं सामाजिक स्वतंत्रता के पक्षधर थे।

गांधी ने गांवों में बसे लोगों को उनके पुस्तैनी धंधों को नवीन व वैज्ञानिक तरीकों से बनाये रखने का आग्रह किया। वे भारत की ग्रामीण संस्कृति में आर्थिक रूप से स्वतंत्र व सुधार चाहते थे। खुद भी खादी चरखे पर काता करते थे। उन्होंने दृढ़ता से स्वरोजगार व स्वावलंबन का प्रचार किया व ग्राम स्वरोजगार की कल्पना की। गांधी द्वारा अछूतों को दिये गये ‘‘हरिजन’’ शब्द को लेकर जो बहस है उसे गांधी के विरोधी चालाकी से पेश करते हैं। गांधी का उद्देश्य उनका अपमान करना नहीं था अपितु ईश्वर के जन की जरह पवित्र होने का संदेश था। गांधी ने स्वदेशी के सिद्धांत को स्वीकार किया। गांधी ने मानव आन्दोलनों में धर्म की विशेष भूमिका को स्वीकार किया। उनकी सत्य, अहिंसा में अटूट आस्था थी। उन्होंने सुसंगठित समाज की रचना के लिए जीवनभर काम किया। गांधी ने राजनीति, समाजशास्त्र तथा अर्थशास्त्र के क्षेत्रों में आध्यात्मिक दृष्टिकोण अपनाया, नैतिक मूल्यों पर जोर दिया। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सभी के प्रति न्याय हो। अछूतोद्वार, स्त्री उत्पीडन, हिन्दु-मुस्लिम एकता, मादक द्रव्य निषेध, स्वावलंबन, शिक्षा प्रसार, बाल विवाह विरोध आदि प्रयत्नों के बावजूद गांधी को रूढ़ीवादी कहा गया। देश की सांस्कृतिक निधि की प्रधानता में उनकी अटूट आस्था थी।

डा. अम्बेडकर के अनुसार सामाजिक न्याय का मूल आधार स्वतंत्रता व भ्रातत्व है। समाज के प्रत्येक व्यक्ति को उसके व्यक्तित्व व विकास के लिये पूर्ण सुविधाएं उपलब्ध कराना और सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति करना ही सामाजिक न्याय है। उन्होंने स्वाधीनता को भी आवश्यक माना। देश की स्वतंत्रता के साथ सामाजिक न्याय की आवश्यकता प्रतिपादित करते हुए उन्होंने कहा कि समानता का अर्थ है सभी को सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक क्षेत्र में समान अवसर मिले। डा. अम्बेडकर का सामाजिक न्याय आत्म प्रेरणा, आत्म विश्वास और सामाजिक क्षमता पर आश्रित है तथा संकीर्ण हिन्दुवाद, भाग्यवाद व मिथ्या ईश्वरवाद के प्रति विद्रोह तथा पीड़ित जन को मुक्ति दिलाना है। संविधान के मौलिक अधिकार एवं कर्तव्य, नीति निर्देशक तत्व सामाजिक न्याय की अवधारणा, आर्थिक विकास, महिला विकास के द्योतक है। उनके अनुसार सामाजिक लोकतंत्र के अभाव में राजनैतिक लोकतंत्र अवास्तविक व मिथ्या है।

डा. अम्बेडकर ने जाति प्रथा का विरोध किया क्योंकि व्यवसाय का स्वरूप और आधार जातिगत होता चला गया। जाति प्रथा के कारण ही शूद्र वर्ग अस्पृश्य और हीन हो गया। शोषण का प्रतीक बन गया, विकास के सारे मार्ग अवरूद्ध हो गये। जातिवाद संकीर्णता तथा रूढ़िवादिता का सूचक है और इससे सामाजिक समरसता समाप्त हुई है। सामाजिक द्वैष व संघर्ष को बढ़ावा दिया है। उन्होंने कहा था कि राजनीतिक लोकतंत्र को सफल बनाना है तो सामाजिक लोकतंत्र की स्थापना करनी होगी जो सामाजिक न्याय के सिद्धांतों पर चलेगा, वही सार्थक व सफल लोकतंत्र होगा। डा. अम्बेडकर ने कहा था कि आर्थिक समानता के बिना सामाजिक व राजनैतिक समानता का लक्ष्य प्राप्त नहीं किया जा सकता।

गांधी व डा. अम्बेडकर दोनों का मानना था कि किसी भी समाज की प्रगति का अनुमान उस समाज की महिलाओं की स्थिति व प्रगति से लगाया जा सकता है। स्त्रियों को सामाजिक, वैधानिक और राजनैतिक स्तर पर पुरूषों के समान ही अधिकार होने चाहिए। उन्हें प्रत्येक क्षेत्र में उन्नति के अवसर मिले। महिला शक्ति की वकालत करते हुए दोनों महापुरूषों ने कहा था भारतीय समाज की उन्नति का मार्ग तब तक बन्द रहेंगे जब तक हम महिलाओं को पूरी तरह शिक्षित व स्वावलम्बी नहीं बना देते। दलित समाज में स्त्रियों की अशिक्षा, गरीबी व आजादी कम और गुलामी अधिक है। महिलाओं की शिक्षा, सेवा और राजनीति में भागीदारी बढ़ाने में सामान्य शिक्षा के साथ तकनीकी शिक्षा में भी आगे लाना होगा। गांधी व डा. अम्बेडकर दोनों ने कहा था दलितों और अल्पसंख्यकों को जब तक राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक और सामाजिक सहभागिता प्राप्त नहीं होगी, भारत वास्तविक रूप से स्वतंत्र नहीं होगा।

गांधी व अम्बेडकर दोनों लोकतंत्र के पक्के समर्थक थे। दोनों दलितों व महिलाओं को सशक्त व अधिकार संपन्न व सुशिक्षित देखना चाहते थे। दोनों को ही आजादी प्रिय थी। साम्प्रदायिकता व कट्टरपंथ के दोनों विरोधी थे। दोनों अहिंसक संघर्ष में विश्वास करते थे। दोनों सभी धर्मो का आदर करते थे। गांधी व अम्बेडकर मे ंसंवादहीनता रही। परन्तु अपने जीवन में दोनों ने एक दूसरे के लिए कभी ओछे शब्द का इस्तेमाल नहीं किया। दोनों की सोच थी कि हिन्दु मुसलमानों को संयुक्त रूप से मिलकर ही हिन्दु राज के भूत को प्रभावी रूप से दफन किया जा सकता है। दोनों का वैयक्तिक स्वतंत्रता, साम्प्रदायिकता, सद्भाव, समानता तथा साम्प्रदायिक भ्रातृत्व के आदर्शो में विश्वास था। देशभक्ति व राष्ट्रवाद की बातों में उनकी समानता प्रदर्शित होती थी।

यह सच है कि महात्मा गांधी व डा. अम्बेडकर दोनों में वैचारिक मतभेद थे। काम करने के तरीकों में भिन्नता के चलते दोनों विपरीत ध्रुवों पर नजर आते हैं लेकिन इससे शास्वत दूरी मानना उपयुक्त नहीं है। पूना पैक्ट गांधी व अम्बेडकर संबंधों का सबसे कडवा पक्ष था परन्तु राष्ट्र हित में अम्बेडकर ने गांधी का अनशन समाप्त कराया और उनकी बात मानी। गांधी के पीछे जनसमर्थन था। गांधी जी जानते थे, अम्बेडकर प्रतिभाशील व्यक्ति है इसलिए जब संविधान सभा के गठन की बात आयी तब गांधी ही थे जिन्होंने अम्बेडकर का नाम संविधान निर्माती सभा के लिए सुझाया था। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)