(लेखक जाने माने पर्यावरण कार्यकर्ता व समाज विज्ञानी है)
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यह सच है कि मानवीय सभ्यता और संस्कृति के उद्गम के साथ ही पानी संग्रह करने के लिए जोहड़ बनाना प्रारंभ हुआ। जोहड़ हमारे देश भारत में ही नहीं,बल्कि पूरे विश्व के हर देश में बनाए जाते रहे हैं, लेकिन भारतीय संस्कृति में इनका महत्व अन्य देशों की तुलना में अधिकाधिक रहा है। "जोहड़" अर्थात वर्षा जल संग्रह करने के लिए धरातल पर बनाया गया एक अर्ध चंद्राकार स्ट्रक्चर। यह वर्षा जल के संग्रह के साथ ही पीने के पानी की पूर्ति करता, भूगर्भ जल स्तर को बढ़ाता, वनस्पति को जीवित रखता और वन्य जीव- जंतुओं के लिए जल की पूर्ति करता। देखा जाये तो भारत के प्रत्येक गांव में इनका निर्माण हजारों वर्षों से चला आ रहा है। समाज विज्ञान की उत्पत्ति होने के साथ जोहड़ संस्कृति के विकास व जल पूर्ति को लेकर समाज कार्यों में योगदान दे रहे सामाजिक संगठन, संस्थाएं और व्यक्ति अपने-अपने अनुभवों के साथ आवश्यकता व पूर्ति को मद्देनजर रखते हुए निर्माण किया करते थे। इसके निर्माण में 100 प्रतिशत जन सहयोग और भामाशाहों का योगदान, सेठ- साहूकारों के साथ आमजन धार्मिक भावनाओं से श्रमदान के रूप में काम किया करते, जिसके चलते भारत में 10 लाख से अधिक छोटे बड़े जोहड़ बने, जो पूर्ण रूप से खरे उतरे । और यही नहीं इन्होंने जल संरक्षण में महति भूमिका भी निबाही।
राजस्थान की बात करें तो यहां आवश्यकता व आस्था के हिसाब से 2 लाख से अधिक जोहड़ 1990 से पहले बने जिनमें से 80 प्रतिशत खरे उतरे। 1990 के दशक के बाद सामाजिक व्यवस्थाओं में एकाएक आए बदलाव, सरकारी विभागों के बढ़ते हस्तक्षेप, ग्राम पंचायतों के द्वारा निर्माण किए जाने से ये लाभ के पर्याय बन गए। यही नहीं इसके साथ ही साथ समाज के अनुभवों को भी पूरी तरह नकार दिया गया। उसके बाद आवश्यकता और आपूर्ति के साथ भौगोलिक स्थिति को मद्दे नजर नहीं रखते हुए मनमानी कहें या मनचाही स्थिति में इनका निर्माण किया गया । परिणाम यह हुआ कि पुरानी जल संरचनाएं उपेक्षा की शिकार हुयीं और इनकी संख्या एकाएक दोगुनी हो गई। इसके साथ जहां गुणवत्ता प्रभावित हुई,वहीं पुराने जोहड़ भी अनुपयोगी होते चले गये । महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी ( नरेगा ) कार्यक्रम के आने के बाद जो समाज की आवश्यकता के लिए, समाज द्वारा, समाज के लोगों ने जोहड़ निर्मित किए, वो 80% या तो नष्ट हो गये या वह अतिक्रमण की चपेट में आ गए। उनकी जगह नए जोहड़ का निर्माण किया गया जो मानव, पशु पक्षियों, वनस्पति किसी के भी काम के नहीं रहे। परिणाम स्वरूप आज 70 प्रतिशत लोगों को शुद्ध मीठे पानी से वंचित रहना पड़ रहा है और साथ ही पीने योग्य मीठे पानी की समस्या दिनों दिन बढ़ती जा रही है। यह सब जोहड़ संस्कृति के लुप्त होने का दुष्परिणाम है।
आज जोहड़ को बचाने के लिए हमें समाज के पूर्व अनुभव को प्रयोग में लेना अति आवश्यक है। इसमें दो राय नहीं कि आज समाज को जोहड़ की आवश्यकता है। मीठे पानी के स्रोत खत्म होते जा रहे हैं, वर्षा जल का संग्रहण सही नहीं हो पा रहा, भूगर्भिक जल स्तर लगातार गिर रहा है, वनस्पतियां नष्ट हो रहीं हैं, मानव,वन्य जीव, पशु पक्षियों के लिए पानी हर मौसम में समस्या बनता जा रहा है। ऐसी स्थिति में समाज विज्ञान के माध्यम से तैयार जोहडो़ं को अतिक्रमण से मुक्त कर पुनः निर्माण करने की आवश्यकता है। यह जान लें कि जोहड़ हमेशा से गांव- ढाणी, कस्बा और शहरों को मीठे पीने योग्य जल की पूर्ति करते रहे हैं। अकाल, दुकाल, त्रिकाल में ये हमेशा भरे रहे हैं । इनका जीर्णोद्धार किया जाए, इन्हें उपयोगी बनाया जाए, जिससे जल संग्रहण हो, पीपल बरगद जैसे पौधों और वनस्पतियों का विकास हो, समाज व पालतू तथा वन्य जीवो को मीठे पानी की जल की जरूरत की पूर्ति हो सके अन्यथा देश की 75 से 80 प्रतिशत आबादी को 2030 तक शुद्ध मीठा पानी नसीब होना सपना बन जायेगा। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपना विचार है)