लेखिका : रश्मि अग्रवाल
नजीबाबाद, 9837028700
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जो व्यक्ति प्रकृति को आदर्श मानकर जी रहा होता उस पर स्वमेव ही बंधनों का प्रभाव कम हो जाता, वह सर्वथा स्वयं की अंतः प्रेरणा से जीवन जीता है। ऐसा नहीं कि ऐसा व्यक्ति अकारण बंधनों को तोड़ता रहता है। लेकिन वह समाज और रीति-रिवाज़ों के तमाम बंधनों से सर्वथा स्वतंत्र होकर जीता और जब भी आवश्यकता हो तब, उन बंधनों को वह सरलता से बिना भय के तोड़ देता है। भय के कारण मनुष्य स्वयं को बांधता है। ऐसे व्यक्ति को विश्व की संयुक्तता का अनुभव रहता है। वह जानता कि संपूर्ण विश्व एक-दूसरे से जुड़ा प्रत्येक सुख के पीछे दुःख खड़ा हुआ है।
प्रत्येक मित्रता के पीछे शत्रुता छिपी रहती। उसे इन सभी संयुक्तताओं का आभास होता है। मनुष्य ने सर्वथा से जानकारियां बढ़ाने वाली शिक्षा को महत्व दिया, धर्म के क्षेत्र में मनुष्य हमेशा से आश्वासन और अंधविश्वासों की ओर आकर्षित हुआ, परंतु पूजा-पाठ, क्रिया का अंधविश्वास बढ़ाने वाली कोई जानकारी का वास्तविक धर्म से कुछ लेना-देना नहीं है। जैसे- चिकित्सक के यहाँ से दवाई, वैसे धर्म में क्रिया आवश्यक समझी गई है। लोगों को यह शिक्षा संगीतमय और सुगंधित लगती है। इसलिए हम प्राकृतिक शिक्षा को उबाऊ और नीरस मानते क्योंकि उसमें आश्वासन और क्रियाओं का अभाव होता है। इसलिए अंतः प्रेरणा से निर्णय लें क्योंकि उसमें बहुत कुछ प्राकृतिक होता, जो हमारे लिए लाभप्रद सिद्ध होता है। अंतः प्रेरणा का खजाना कभी रिक्त नहीं होता।