लेखक : प्रोफेसर (डॉ.) सोहन राज तातेड़
पूर्व कुलपति सिंघानिया विश्विद्यालय, राजस्थान
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भारत एक आध्यात्मिक देश है। यहां पर आत्मा, परमात्मा, जीव-जगत, बंधन, मोक्ष, कर्म और धर्म पर बड़ा गंभीर चिंतन किया गया है। विज्ञान भी यहां के चिंतन का विषय रहा है। किन्तु विज्ञान पर उतना बल नहीं दिया गया जितना अध्यात्म पर। अध्यात्म के कारण ही भारत को विश्वगुरू कहा जाता है। इस देश में जन्म लेने वाला प्रत्येक व्यक्ति अपने चरित्र के द्वारा अन्य देशवासियों को शिक्षा देता है। विवेकानन्द का यह महावाक्य की भारत के लोग वस्त्र से नहीं बल्कि चरित्र से ऊँचे होते हैं। चरित्र ही व्यक्ति को महान बनाता है। चरित्र की पूजा तभी होती है जब मनुष्य में सदगुण हो। सद्गुण ही सबसे बड़ा धर्म है। जब आत्मा, परमात्मा, जीव-जगत की बात की जाती है तो सहज में ही हमारा चिंतन दर्शन की और जाता है। भारत में दर्शन की अनेक शाखाएं है। सभी शाखाओं में अध्यात्म पर चिंतन किया गया है।
भारतीय दर्शन आत्मवादी, कर्मवादी एवं पुनर्जन्मवादी है। संसार का प्रत्येक प्राणी अपने आपमें एक आत्मा है और कर्मों से बद्ध है, आवृत है। कर्म पुनर्जन्म का मूल कारण है। तत्त्वमीमांसा की दृष्टि से आत्मा का अस्तित्व अनादिकालीन है, स्वतंत्र है, वास्तविक है और एक द्रव्य या वस्तु के रूप में है। आत्मा या जीव अस्तिकाय है। प्रत्येक आत्मा असंख्य ‘प्रदेशों’ का पिण्ड है। प्रत्येक आत्म-प्रदेश के साथ कर्म पुद्गलों का संयोग होता है और कर्म के द्वारा उत्पन्न प्रभाव से आत्मा एक जन्म से दूसरे जन्म में गमन करती रहती है। कर्म अपने आपमें जड़ है फिर भी आत्मा के साथ बद्ध होने से उनमें आत्मा को प्रभावित करने की शक्ति उत्पन्न हो जाती है। कर्म को हम ‘चैतसिक भौतिक बल’ के रूप में मान सकते है। यही बल आत्मा को पुनर्जन्म लेने के लिए बाध्य करता है। अनादिकाल से प्रत्येक जीव (आत्मा) जन्म-मरण की शृंखला से गुजरता हुआ अपना अस्तित्व बनाए रखता है। यही आत्मवाद और पुनर्जन्मवाद का सिद्धान्त है। आत्मा का लक्षण है चैतन्य। कोई भी आत्मा चाहे वह मुक्त हो या संसारी, चैतन्य से रहित नही होती। आत्मा नानाविध शरीरों को धारण करती है और नानाविध योनियों में अनुसंचरण करती है, बार-बार जन्म-मरण करती है। इसे संसारी आत्मा कहा जाता है। कर्मोपाधिनिरपेक्ष जीव पारिणामिक भावयुक्त आत्मा मुक्त अथवा सिद्ध कही जाती है। शरीर मुक्त होने के कारण वह आत्मा अमूत्र्त होती है।
इसलिए वह न शब्द गम्य है और न तर्क गम्य। वह बुद्धि के द्वारा अग्राह्य है। वह आत्मा पुद्गल गुणों से रहित है। उसमें स्त्री-पुरुष आदि लिंगभेद नही होता। आत्मा अमूत्र्त और सूक्ष्मतम है, इसलिए वह शब्द के द्वारा प्रतिपाद्य नहीं है- यतो वाचो निवर्तन्ते, अप्राप्य मनसा सह, आनन्दः ब्रह्मणो विद्वान्, न विभेति कदाचन। आत्मा तर्क के द्वारा भी ग्राह्य नहीं है। वह बुद्धि की सीमा से भी परे है। अमूत्र्त तत्त्व शब्दों का, तर्कों का और बुद्धि का विषय नहीं बनता। दर्शन के क्षेत्र में आत्मा और पुनर्जन्म का विषय बहुत मौलिक और प्रभावोत्पादक है। न केवल भारतीय दार्शनिकों ने अपितु पाश्चात्य दार्शनिकों ने भी इस विषय पर गहन चिन्तन किया है। आधुनिक विज्ञान और मनोविज्ञान के संदर्भ में भी इस विषय पर शोधात्मक कार्य हो रहा है। मनोविज्ञान की एक शाखा परामनोविज्ञान है जिसके अन्तर्गत इस विषय पर पिछले 50 वर्षों से काफी चिन्तन-मन्थन हो रहा है। परामनोविज्ञान की चार मान्यताएं हैं। 1. टेलीपैथी 2. अतीन्द्रिय दृष्टि, 3. पूर्वाभास, 4. विचार सम्प्रेषण दूरस्थ वस्तु को शक्ति बल से पास लाना। परामनोविज्ञान की इन मान्यताओं का पुनर्जन्म के सिद्धान्त के साथ तुलनात्मक विश्लेषण से यह तथ्य स्पष्ट होता है कि कोई ऐसा तत्त्व भी है जो अभौतिक है, जिसमें अनेक मानसिक शक्तियां व आध्यात्मिक सच्चाइयां व्यक्त करने की क्षमता है।
मृत्यु केवल स्थूल शरीर को ही समाप्त करती है, सूक्ष्म शरीर मरणोपरान्त भी विद्यमान रहता है। इस चर्चा को वैज्ञानिक संदर्भ में इस प्रकार कहा जा सकता है। वैज्ञानिक पदार्थ की चार अवस्था मानते हैं। ठोस, द्रव्य, गैस व प्लाज्मा। एक अवस्था और खोजी गई जिसे प्रोटोप्लाज्मा या जैवप्लाज्मा कहा जा सकता है। अध्यात्म-योग की भाषा में यह हमारी प्राणशक्ति है। जो प्रोटोप्लाज्मा है और हमारे अस्तित्व का सटीक प्रमाण है। वैज्ञानिकों का यह कहना है कि प्रोटोप्लाज्मा अमर तत्त्व है। मृत्यु के पश्चात् भी यह रसायन, जो हमारी कोशिकाओं में रहता है शरीर से अलग होकर वायुमण्डल में बिखर जाता है। वही प्रोटोप्लाज्मा निषेचन की क्रिया के समय जीन्स में शिशु के साथ पुनः ले लेता है।
अध्यात्म आंतरिक सत्य को खोजता है और विज्ञान बाहरी सत्य को। पंचमहाभूतों से इस सृष्टि की रचना हुई है। किसी वस्तु के व्यवस्थित ज्ञान को प्राप्त करना विज्ञान कहलाता है। भारतीय ऋषियों ने अध्यात्म पर जो चिंतन किया है वह बहुत ही व्यवस्थित और वैज्ञानिक हैै। जिन तत्वों को ऋषियों ने आत्मसाक्षात्कार करके जाना आज विज्ञान उन्हीं को खोज रहा है। विज्ञान में जीव-जगत के बारे में जो चिंतन है अध्यात्म ने उसे बहुत पहले बता दिया था। अध्यात्म और विज्ञान में कोई विरोध नहीं है। एक आत्मसाक्षत्कार को महत्व देता है तो दूसरा अनुसंधान को। अनुसंधान के आधार पर जो परिणाम निकलता है विज्ञान उसी को प्रमाण मानता है। अतः अध्यात्म और विज्ञान दोनों के सत्य वास्तविक हैै। अध्यात्म और विज्ञान एक-दूसरे के पूरक है। विज्ञान आज जिन चीजों पर अनुसंधान कर रहा हैै, अध्यात्म का सच वही है। (लेखक के अपने विचार हैं)