दूसरी क़िस्त....
लेखक : ज्ञानेन्द्र रावत
वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद
इसे खुशख़बरी कहें या नौजवानों को बहलाने का प्रयास कि इसके साथ यह भी बताया जा रहा है कि केंद्र सरकार हर साल 1 लाख 25 हज़ार भर्तियां निकालती है। यह मान लेते हैं कि ठीक है। लेकिन क्या केंद्र सरकार बता सकती है कि 2014 से लेकर आज तक हर साल कितनी भर्तियां सरकार ने निकालीं, कितने लोगों की अभी तक ज्वाइनिंग हुई? अगर सरकार के पास हर साल नौजवानों को देने के लिए सवा लाख नौकरियां थीं तो अभी तक कितनी नौकरियां दी गईं ? इसका जबाव किसी के पास नहीं है।
अब विशेष ध्यान देने की बात यह कि 2017 के आते-आते नौजवानों का सब्र टूटने लगा था। वे भर्ती परीक्षाओं को लेकर बेसब्र होने लगे थे। इस बाबत देश भर में कई प्रदर्शन हुए। लेकिन सरकार ने उन्हें नज़रअंदाज़ कर दिया। कारण वह जानती थी कि नौजवान राजनीतिक रूप से उसके साथ हैं। असलियत यह है भी कि नौजवान उस समय भी भाजपा के साथ थे और अब भी हैं। इसमें कोई शक- ओ-शुबहा नहीं है। लेकिन इसके बावजूद नौजवानों को अपनी ही पसंद की पार्टी, अपनी ही चुनी हुई सरकार के खिलाफ जगह-जगह आंदोलन करने पड़ें। यहां तक कि अपमानित तक होना पड़े। इस बारे में नौजवानों का कहना है कि आखिर उनसे किस बात का बदला लिया जा रहा है।
यह सब कहने का तात्पर्य यह है कि सरकार समझ सके कि छात्रों ने इस बाबत लंबी लड़ाई लड़ी है। उनकी परीक्षाओं के अभी तक रिजल्ट नहीं निकले हैं। जिनके निकले भी थे उनकी ज्वाइनिंग अभी तक नहीं हुई है। जबकि अब उन्हें परीक्षा की नयी एजेंसी देकर लॉलीपॉप दिया जा रहा है । आखिर ऐसा कब तक होता रहेगा, यही विचार का विषय है। इसमें इस सच्चाई को भी झुठलाया नहीं जा सकता कि नौजवान इन समस्याओं से एक अर्से से पीड़ित है। इस बारे में यदि सामाजिक संगठनों व कतिपय राजनीतिक संगठनों द्वारा कुछ आन्दोलनात्मक कदम उठाये भी जाते हैं तो सहयोग करने में वह संकोच करते हैं ।
बदकिस्मती है कि आज लोग अपनी समस्याओं के समाधान हेतु भी सहयोग करने को तैयार नहीं हैं और राजनैतिक दलों की स्थिति यह है कि वे उक्त गम्भीर समस्याओं के लिये 4 साल तक कोई सार्थक संघर्ष नहीं करते और चुनावी साल में उक्त समस्याओं पर भाषण करते हैं। विडम्बना है कि उस समय उन्हें जनता नहीं सुनती। अब राजनीति मुददों की नहीं बल्कि जाति, वर्ग एवं सम्प्रदाय आधारित रह गई है और इसी नीति के आधार पर सरकारें बनती हैं तथा अपने मतदाताओं को ही रिझाने पर लगी रहती हैं। नतीजतन जनहित के मुददों की अनदेखी होती रहती है।
जहाँ तक राष्ट्रीय भर्ती एजेंसी का प्रश्न है तो यह स्पष्ट है कि इक्कीसवीं सदी में केन्द्र सरकार लगभग 20 विभागों की रिक्तियां तो निकालती रही है, लेकिन नौकरियां शायद 25 प्रतिशत को भी न मिली । यह हकीकत है। इससे सभी भलीभांति परिचित ही हैं कि प्रत्येक विभाग की नौकरी के लिये अभ्यर्थियों को अलग अलग शुल्क देना पड़ता है तथा दूरस्थ शहरों में बने परीक्षा केन्द्रों पर जाकर परीक्षाएं देनी होती हैं। उन्हें नौकरी तो मिलती नहीं परंतु इस भागदौड में अभ्यर्थियों को हज़ारों की चपत जरूर लग जाती है ।इस एजेन्सी के बन जाने से उन्हें नौकरी तो मिलने के आसार नहीं हैं लेकिन 2 दर्जन आवेदनों के भरने के शुल्क तथा पूरे देश के केन्द्रों पर जाकर परीक्षाओं को देने के झंझट से जरूर उन्हें निजात मिल जायेगी । साथ ही इससे बालिकाओं और विकलांगों जिनके साथ एक व्यक्ति को जाना पड़ता है, उनको भी दूरदराज के शहरों में आने-जाने की दुश्वारियों से भी राहत मिलेगी। परिणामस्वरुप देश के नौजवानों के साथ नौकरियों के नाम पर एक अर्से से हो रहे छलावे में कुछ कमी तो ज़रूर आयेगी। इस हकीकत से सभी वाकिफ भी हैं कि जब देश निजीकरण की ओर जा रहा है तो सरकारी नौकरी की उम्मीद करना बेमानी ही होगा। उस स्थिति में ऐसी एजेंसियों का क्या अस्तित्व रहेगा, यह जग जाहिर है।
यहां सबसे बड़ा और अहम सवाल यह है कि नौकरी की आस में बरसों से सरकार की ओर टकटकी लगाये इन नौजवानों की पीड़ा को रवीश कुमार ने समझा और पुरजोर तरीके से जनमानस और सरकार के सामने रखा जबकि देश के शेष मीडिया को सुशांत सिंह मर्डर केस से फुरसत ही कहां हो जो वह इन नौजवानों के दर्द को समझे और उनकी पीड़ा को सरकार और देश की जनता के सामने उजागर करे जो कि उसका दायित्व है। यह विडंबना नहीं तो और क्या है। (लेखक के अपने विचार हैं)