अध्यात्म का आनन्द


प्रोफेसर (डॉ.) सोहन राज तातेड़ 
पूर्व कुलपति सिंघानिया विश्विद्यालय, राजस्थान


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अध्यात्म का अर्थ है आत्मा में रहना। जीव और जगत् के भेद को जानना और मानना। संसार को ही सबकुछ मानकर न रहना। पारलौकिकता के बारे में चिंतन करना। इस संसार में मानव लौकिक और पारलौकिक जगत के विषय में चिंतन करता है। लौकिक से तात्पर्य इस लोक से है जिसमें हम रहते है। सभी प्राणी इस लोक में ही अपनी जीवन लीला करते है। एक इन्द्रिय से लेक पंचेन्द्रिय प्राणी तक सभी जीव है। चेतना का स्तर सब में भिन्न-भिन्न है। मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जो लौकिक और पारलौकिक जगत के विषय में सोचता है। धर्म कर्म करता है। अन्य प्राणी केवल इन्द्रिय के वशीभूत होकर के ही कार्य करते है। मानव ही एक ऐसा प्राणी है जिसमें बुद्धितत्व है और वह विवेक से कार्य करता है। बुद्धि ही मानव को अन्य प्राणियों से भिन्न करती है। आत्मा तो सब में है। सभी आत्माएं समान है। मानव ही आत्मचिंतन करता है।



वेदों से लेकर के अधुनातन साहित्य तक के सभी ग्रंथ आत्मा, परमात्मा, जीव, जगत के बारे में चिंतन करते है। आत्मा का विवेचन दर्शन शास्त्र का प्रमुख विषय रहा है। जितने भी दर्शन है सभी ने आत्मा के बारे में चिंतन किया है और सत्य का साक्षात्कार करने का प्रयास किया है। आत्मा के स्वरूप के बारे में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। योगी लोग आत्मा के स्वरूप का साक्षात्कार करते है। भोगी लोग इस संसार को ही सबकुछ मानकर उसी में भ्रमण करते है। आत्मा सच्चिदानंद स्वरूप है। इसकी प्राप्ति के बाद किसी भी वस्तु को प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं रहती। सब प्रकार के दोषों से रहित होने पर सम्यक् ज्ञान, ब्रह्मचर्य और सत्य के द्वारा आत्मसाक्षात्कार किया जा सकता है। सम्यक् ज्ञान ही एक ऐसा आचार है जिसके द्वारा निखिल कर्मों का विलय किया जा सकता है। इस ज्ञान की उपलब्धि में ब्रह्मचर्य का पालन करते हुये सत्यानुष्ठान की महती आवश्यकता होती है। सत्य का अनुष्ठान और तपस्या के द्वारा ही सम्यक्ज्ञान की उपलब्धि होती है। सम्यक्ज्ञान से कर्म विलय पुरस्सर आत्मोपलब्धि होती है-


सत्येन लभ्यस्त्तपसा ह्येष आत्मा
सम्यग्ज्ञानेन  ब्रह्मचर्येण  नित्यम्।


आत्मा को न तो आंखों से देखा जा सकता है, न वाणी से कहा जा सकता है, न तो अन्य इन्द्रियों से उसे जाना जा सकता है, न तपस्या और कर्म से ही उसे जाना जा सकता है। जिसके द्वारा सारी ज्ञानेन्द्रियां अपने-अपने विषय का ज्ञान कराती हैं उसे किस साधन से जाना जाय। इसलिये कहा गया है कि ‘ज्ञानप्रसादेन तं पश्यते’ अर्थात् ज्ञान के द्वारा ही उसे जाना जा सकता है। जप, तप निखिलकर्मानुष्ठान ये सारे साधन आत्मविषयक आचार में परिगणित हैं, किन्तु ये केवल चित्त शुद्धि तक ही सीमित हैं। शुद्ध चित्त में ज्ञान का प्राकट्य उसी प्रकार होता है जैसे स्वच्छ कांच में प्रतिबिम्बोपलब्धि होती है। पुरुष या आत्मा को चेतन तत्त्व तथा प्रकृति को अचेतन या जड़तत्त्व कहा गया है। पुरुष के स्वरूप को बतलाते हुये यहां कहा गया है कि पुरुष नित्य, साक्षी, केवल, निस्त्रैगुण्य, माध्यस्थ उदासीन, द्रष्टा और अकत्र्ता है।



पुरुष चेतन है। चेतन ही विषयों का ज्ञाता तथा द्रष्टा होता है। इसे अचेतन नहीं प्राप्त कर सकता। आत्मा ही वह द्रव्य है जिसमें बुद्धि, सुख-दुःख, राग-द्वेष, इच्छा प्रयत्न आदि गुण रहते हैं। ये गुण शरीर के नहीं आत्मा के ही हो सकते हैं। आत्मा देह, इन्द्रिय आदि से भिन्न है, नित्य और व्यापक है। मन से उसका प्रत्यक्ष होता है तथा मैं जानता हूं, मैं करता हूं, मैं सुखी हूं, मैं दुःखी हूं इत्यादि से आत्मा का अस्तित्त्व प्रकट होता है। विद्यायें दो है, इनमें से जो पराविद्या अर्थात् आत्मविद्या को जानता है वही सच्चा ज्ञाता है वह संसार सागर को पार कर जाता है। उपनिषदों में आत्मा और ब्रह्म की एकता का प्रतिपादन है- एकमेवाद्वितीयम्, सर्वंखल्विदं ब्रह्म इत्यादि महावाक्यों से आत्मा और ब्रह्म में अभेद प्रदर्शित किया गया है। यही परम सत है। ‘वह क्या है जिसका ज्ञान हो जाने पर शेष सबकुछ स्वतः ज्ञात हो जाता है। वह क्या है जो सदा सचेतन रहता है, सृष्टिकार्य में संलग्न रहता है, यद्यपि शरीर निद्रा में अचेत पड़ा रहता है। वह कौन सा मूलतत्त्व है जिससे जीवन का वृक्ष अंधे अंवच्छेदक मृत्यु द्वारा बारम्बार काटे जाने पर भी नित्य नवीन उदित होता रहता है।


परमतत्त्व अंतिम तत्त्व है, सर्वाधार है, सभी वस्तुओं का मूलस्थान है। उसी को मूलतत्त्व कहा जा सकता है, जिससे इस जगत् की उत्पत्ति हुयी है, जो सभी वस्तुओं की सत्ता का आधार है और जिसमें अन्ततः इन सभी वस्तुओं का लय हो जाता है। अतः ब्रह्म ही परमतत्त्व है। इसे ही आत्मतत्त्व भी कहते हैं। ब्रह्मपरम सत्य है, विशुद्ध ज्ञान है, अनन्त है, अखण्ड आनन्द है। यह ब्रह्म का स्वरूप है। ब्रह्म सत् चित् आनन्द है, शान्त और शिव है। ब्रह्म के दो रूप माने गये हैं- मूत्र्त और अमूत्र्त, मत्र्य और अमृत, स्थित और चर तथा सत् और त्यत्। ब्रह्म के विषय में सविशेष श्रुतियां और निर्विशेष श्रुतियां दोनों उपलब्ध हैं। ब्रह्म को सविशेष सगुण भी कहा गया है और निर्विशेष निर्गुण भी। सगुण ब्रह्म को ‘अपर’ ब्रह्म और निर्गुण ब्रह्म को पर ब्रह्म कहा गया है। अपर रूप में ब्रह्म सविशेष, सगुण, सप्रपंच, सविकल्प और सोपाधिक है तथा पर रूप में ब्रह्म निर्विशेष, निर्गुण निष्प्रपच, निर्विकल्पक और निरूपाधिक है। अध्यात्म का आनन्द ही वास्तविक आनन्द है। (लेखक के अपने विचार हैं)