स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन का वास


प्रोफेसर (डॉ.) सोहन राज तातेड़ 
पूर्व कुलपति सिंघानिया विश्विद्यालय, राजस्थान


daylife.page 


मानव ईश्वर की सर्वोत्कृष्ट कृति है। मानव का यह शरीर हाड़-मांस का एक पुतला है। इस शरीर के आंतरिक और बाह्य रूप को समझना बड़ा कठिन है। वैज्ञानिक नित नये प्रयोग करते रहते है किन्तु इसके मर्म को अब तक नहीं समझ पाये है। मानव का शरीर माता के गर्भ में नौ महीने रहने के पश्चात् इस संसार में आता है। संसार में आने के पश्चात् यहां के वातावरण से परिचित होता है और वातावरण का प्रभाव उसके शरीर पर पड़ना शुरू हो जाता है। शरीर में किसी प्रकार का बाह्य विकार न आवे जैसा है वैसा ही बना रहे तो शरीर स्वस्थ रहता है। स्वास्थ्य का मतलब है अपने मूलरूप में स्थित रहना। मूलरूप से तात्पर्य है आत्मा में अवस्थित रहना। आत्मा में स्थित रहना जीवन का सबसे बड़ा आनंद है।


आत्मा अमूल्य तत्व है। शरीर मूल है। मूल तत्व ही वातावरण से प्रभावित होता है। सुख दुःख की अनुभूति शरीर को ही होती है। शरीर स्वस्वथ कैसे रहे यह एक बहुत बड़ा प्रश्न है। जितनी भी प्रकार की धार्मिक क्रियाएं है या जितने क्रियाकलाप है वह सब शरीर के माध्यम से ही सम्पन्न होता है। कहा गया है शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्। मनुष्य जीवन अत्यन्त दुर्लभ है। मनुष्य को अपने शरीर की रक्षा करनी चाहिए। स्वास्थ्य ही सबसे बड़ा धन है। ‘स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन का वास होता है’-यह पुरानी कहावत सिद्ध करती हैं कि शरीर का मन पर काफी प्रभाव होता है। सामान्यतः अस्वस्थ व्यक्ति चिड़चिड़े स्वभाव के होते हैं। उदाहरण के लिए बीमार व्यक्ति को लें, जब उसका स्वास्थ्य गिरता जाता है, वह अत्यंत निराशावादी होता जाता है।



लेकिन स्वास्थ्य के सुधार के साथ-साथ वह जीवन के प्रति आशा और उमंग से भर जाता है। नाड़ी संस्थान व्यक्ति के पाचन संस्थान पर सीधा असर डालता है। कब्ज रहने पर नाड़ी संस्थान बुरी तरह प्रभावित होता है जिससे भारी विषाद और मानसिक थकान पैदा होती है। इस स्थिति में यदि प्राकृतिक विधि द्वारा मल साफ कर दिया जाए तो मनुष्य को उल्लास का अनुभव होता है साथ ही उसकी विचारधारा साफ हो जाती है। अंतःस्रावी ग्रंथियां भी मन पर गहरा असर छोड़ती हैं। अतः इन ग्रंथियों का इलाज किया जाये तो मनुष्य के पूरे व्यवहार को बदला जा सकता है। इन सब तर्कोे से यह पता चलता है कि मन का शरीर पर गहरा असर पड़ता है। प्रेम, क्रोध, लोभ, प्रेमाघात, घृणा, द्वेष, ईर्ष्या, भय, विरक्ति, व्यथा, दुःख, नैराश्य, आशा, दया, प्रशंसा, भक्ति कृतज्ञता आदि सभी संवेग हैं।


प्रायः हर व्यक्ति का अपना मूड होता है। यह मूड संवेग है। संवेग और मनोविकार अलग-अलग चीजें हैं। शरीर और मन का आपस में गहरा संबंध है। यह एक दूसरे को सदैव प्रभावित करते रहते हैं। किन्तु यदि शरीर और मन का गहराई से अध्ययन किया जाए तो पता चलता है कि मन शरीर पर पूरा नियंत्रण रखता है। इस बात की सत्यता जानने के लिए हम उन देशभक्तों के जीवन वृत्तांत पढ़ें, जिन्हें अपनी मातृभूमि की सेवा के लिए कितनी ही शारीरिक यातनाएं सहनी पड़ीं। जैसे-जैसे उन्हें शारीरिक यातनाओं से गुजरना पड़ा वैसे-वैसे उनका आत्मबल और अधिक मजबूत होता गया। हमने कई धार्मिक शहीदों के वृतांत पढ़े हैं कि सारा शरीर जला दिये जाने पर भी वे अपने निश्चय से डिगे नहीं। यह सब उनके मजबूत मनोबल के कारण ही हो पाया है। योगासन द्वारा संवेगों को संतुलित किया जा सकता है और आत्मबल बढ़ाया जा सकता है।



शरीर के रखरखाव के लिए आवश्यक है कि हम किसी भी प्रकार का नशा या व्यवन न करे। नशा या व्यसन शरीर के लिए बहुत ही घातक है। जब मनुष्य व्यसन का आदी बन जाता है तो इससे मुक्त होना बहुत कठिन है। व्यसन शरीर को अंदर से खोखला बना देता है। शराब, गुटखा, बीड़ी, सिगरेट, तम्बाकु आदि शरीर के अंगों को नष्ट कर देते है। जब शरीर अंदर से खोखला हो जाता है तो मानव का चलना फिरना भी दुभर हो जाता है। अतः नशे से मुक्ति के लिए यह आवश्यक है कि मन पर नियंत्रण रखा जाये। जितना संयम हम मन पर करेंगे शरीर उतना ही स्वस्थ रहेगा। वर्तमान युग विज्ञान का युग है। विज्ञान के साथ-साथ औद्योगिक विकास हुआ। तकनीकी का विकास हुआ। इस विकास के साथ मानसिक शान्ति का विकास नहीं हो सका। जितने सुविधा के साधन बढ़े हैं उसके अनुपात से कहीं अधिक शारीरिक और मानसिक तनाव से उत्पन्न होने वाली समस्याएं बढ़ी हैं।



समाज में व्यसन और अपराध बढ़े हैं। यदि व्यसन में कमी आती है तो अपराध और गरीबी में बहुत कमी आ सकती है। आज अपेक्षा है शिक्षा जगत् से कि वह ऐसी शिक्षा, संस्कार तथा व्यवस्था दे जिससे विद्यार्थी हर परिस्थिति में अपने व्यसन-मुक्त व्यक्तित्व को सुरक्षित रख सकें। स्वस्थ समाज का निर्माण तब तक नहीं हो सकता जब तक समाज व्यसन मुक्त नहीं हो जाता। अनेक अपराध, हिंसा और कुकृत्यों का एक प्रमुख कारण है- नशा। अहिंसक समाज संरचना के लिए अपराध, हिंसा व आतंक में न्यूनता आये, यह सबसे बड़ी अपेक्षा है। इसका एक प्रमुख आधार है - व्यसन मुक्त समाज। शराब शारीरिक, मानसिक, नैतिक और आर्थिक दृष्टि से मनुष्य को बर्बाद कर देती है। शराब के नशे में मनुष्य दुराचारी बन जाता है एवं अफीम के नशे में वह सुस्त और मुर्दा बन जाता है। सामुदायिक स्तर पर परिवार, समाज व राष्ट्र को भी प्रभावित करते हैं। आर्थिक स्तर पर भी इससे व्यक्ति को हानि ही होती है। इस प्रकार व्यसन व्यक्तिगत स्तर पर शरीर, मन व भावों को प्रभावित करते हैं। (लेखक के अपने विचार है)