प्रोफेसर (डॉ.) सोहन राज तातेड़
पूर्व कुलपति सिंघानिया विश्विद्यालय, राजस्थान
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हम जो कुछ भी देखते है वह बाहर का सच है। बाहर के सच का ज्ञान पंचेन्द्रियों के द्वारा होता है। इन्द्रियां बाह्य वस्तुओं का ज्ञान कराती है। इसके अतिरिक्त अंदर का भी सच है। वह सत्य आत्मकेंद्रित है। वही वास्तविक सत्य है। इन्द्रियों के द्वारा देखा हुआ सत्य पूर्ण सत्य नहीं होता। इसी कारण हमें संशय, भ्रम, विभ्रम इत्यादि हुआ करते है। एक ही वस्तु में भिन्न-भिन्न प्रकार का ज्ञान कभी-कभी हो जाता है। हिरण को गर्मी के दिनों में चमचमाती हुई रेत में पानी का भ्रम हो जाता है और इसी पानी की खोज में वह दौड़ता-दौड़ता मर जाता है और पानी की प्राप्ति उसे नहीं होती। इसी को मृग मरीचिका कहते है। यह संसार भी ऐसा ही है। मानव इस संसार में दौड़ता रहता हैं। किन्तु उसे शांति नहीं प्राप्त होती।
कोई इस संसार को सत्य कहता है, कोई असत्य कहता है और कोई सत्य और असत्य का मिथुनीकरण कर देता है। एक ही वस्तु के विषय में लोगों की भिन्न-भिन्न धारणाएं हो जाती है। जिससे सत्य का स्वरूप भी बदल जाता है। इस संसार में जितनी भी वस्तुएं है उनके स्वरूप को निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। यह संसार संबंधों का संसार है। एक आदमी किसी का बेटा, किसी का बाप, किसी का भाई, किसी का चाचा, किसी का मामा इत्यादि संबंधों से जुड़ा हुआ है। यह संबंध ही माया कहलाता है। आदमी संसार में रहकर कर्म करता है। पुण्य-पाप करता है और अपने कर्म के अनुसार फल भोगता है। जिसका जैसा कर्म रहता है उस कर्म के अनुसार उसे दूसरी योनि प्राप्त होती है। यह भवचक्र चलता रहता है। यदि दार्शनिक दृष्टि से देखा जाये तो भिन्न-भिन्न दर्शनों ने इसे भिन्न-भिन्न नाम दिया है। कोई इसे माया कहता है, कोई इसे अविद्या कहता है, कोई इसे कर्म बंधन कहता है। यह संसार ही मायाजाल है।
मायाजाल से निकलने का प्रयास करना ही वास्तविक सत्य की खोज है। कुछ जीव इस मायाजाल से निकलने का प्रयास करते है और कुछ इसे वास्तविक सत्य मानकर इस संसार का आनन्द लेते है। इंद्रियों के विषय बहुत ही आकर्षक है। आंख को रूप चाहिए, कान को शब्द चाहिए, नासिका को गंध चाहिए, जिह्वा को स्वाद चाहिए और त्वचा को स्पर्श। विषय इंद्रियों को अपनी तरफ इस प्रकार से खींचते है कि बड़े-बड़े संन्यासी, यति, मुनि, ऋषि और महर्षि भी अपने मार्ग को छोड़कर इंद्रियों के वशीभूत हो जाते है और अपने जीवन के आदर्श को ही भूल जाते है। इंद्रियों को वश में करने के लिए विषयों से विरक्ति आवश्यक है। काम, क्रोध, मद, लोभ सभी प्राणियों में होता है। किन्तु इनको जो जीत लेता है वही महावीर कहलाता है। भगवान महावीर ने बाहर के भी सत्य को देखा और आंतरिक सत्य को भी। किंतु उन्हें बाहर का सत्य निःसार लगा। इसलिए उन्होंने आंतरिक सत्य को प्राप्त करने का संकल्प किया और उस सत्य को जाना। उस सत्य को जानने के बाद वह जितेन्द्रिय हो गये। इस सत्य को उन्होंने आत्म सत्य कहा। आत्म सत्य ही आंतरिक सत्य है और वास्तविक सत्य है। जो आत्मा को जान जाता है वह सबकुछ जान जाता है। आत्मा सच्चिदानंद स्वरूप है।
आत्मा ही एक ऐसा शाश्वत तत्त्व है जिसके आधार पर मानव अपने अस्तित्त्व को सिद्ध करता है। मानव जन्म बहुत दुर्लभ है, इसे पाकर जो मनुष्य आत्मोपलब्धि नहीं करता वह बहुत बड़ी भूल करता है। जब तक यह दुर्लभ मानव शरीर विद्यमान है, तभी तक शीघ्र से शीघ्र परमतत्त्व को जान लिया जाय तो सब प्रकार से कुशल है। यदि यह अवसर व्यर्थ हो गया तो महान् विनाश हो जायेगा--बार-बार मृत्यु रूप संसार के प्रवाह में बहना पड़ेगा। संसार के त्रिविध तापों और विविध शूलों से बचने का यही एक परम साधन है कि जीव मानव जन्म में दक्षता के साथ साधन परायण होकर अपने जीवन को सदा के लिये सार्थक कर ले। मनुष्य जन्म के सिवा और जितनी योनियां हैं, सभी केवल कर्मों का फल भोगने के लिये ही मिलती हैं। मानव जीवन का परम लक्ष्य आत्मामृत की प्राप्ति ही है।
वह आत्मा दो प्रकार की है, एक जीवात्मा दूसरी परमात्मा। परमात्मा या ईश्वर सर्वज्ञ है, और एक है। जीवात्मा प्रत्येक शरीर में भिन्न-भिन्न व्यापक और नित्य है। आत्मा नित्य शुद्ध-बुद्ध मुक्त है। वह सच्चिदानन्द स्वरूप है। यही परम सत है। ‘वह क्या है जिसका ज्ञान हो जाने पर शेष सबकुछ स्वतः ज्ञात हो जाता है। वह क्या है जो सदा सचेतन रहता है, वह कौन सा मूलतत्त्व है जिससे जीवन का वृक्ष अंधे अंवच्छेदक मृत्यु द्वारा बारम्बार काटे जाने पर भी नित्य नवीन उदित होता रहता है। परमतत्त्व अंतिम तत्त्व है, सर्वाधार है, सभी वस्तुओं का मूलस्थान है। उसी को मूलतत्त्व कहा जा सकता है, जिससे इस जगत् की उत्पत्ति हुयी है, जो सभी वस्तुओं की सत्ता का आधार है और जिसमें अन्ततः इन सभी वस्तुओं का लय हो जाता है। जगत् का आदि और अन्त ब्रह्म को माना गया है। अतः ब्रह्म ही परमतत्त्व है। इसे ही आत्मतत्त्व भी कहते हैं।
आत्म तत्व न मोटा है, न पतला है, न छोटा है, न बड़ा है, न लाल है, न द्रव है, न छाया है, न तम है, न वायु है, न आकाश है, न संग है, न रस है, न गन्ध है, न नेत्र है, न कान है, न वाणी है, न मन है, न तेज है, न प्राण है, न मुख है, न माप है, उसमें न अन्दर है, न बाहर है, वह कुछ भी नहीं खाता, उसे कोई भी नहीं खाता। यह आंतरिक सत्य ही वास्तविक सत्य है। इसका ज्ञान हो जाने पर कुछ भी अज्ञेय नहीं रहता, कुछ भी अप्राप्य नहीं रहता, सबकुछ जान लिया जाता है। (लेखक के अपने विचार हैं)