योगदर्शन भी आस्तिक दर्शनों में से एक


प्रोफेसर (डॉ.) सोहन राज तातेड़ 
पूर्व कुलपति सिंघानिया विश्विद्यालय, राजस्थान


(daylife.page) 


भारत के छह आस्तिक दर्शनों में से योगदर्शन भी एक है। इस दर्शन के प्रवर्तक महर्षि पतंजलि हैं। योगदर्शन का आधारभूत ग्रन्थ ’योगसूत्र’ समाधि, साधन, विभूति तथा कैवल्य नाम के चार पादों में विभक्त है। वैसे तो उपनिषदों में भी योग के अनेक प्रसंग हैं, यथा ’तां योगमिति मन्यन्ते स्थिरामिन्द्रियधारणाम्’ अर्थात् योग वही है जहां इन्द्रियां स्थिर रूप से साधक के वश में हो जाती हैं, किन्तु इस विषय को एक स्वतंत्र दर्शन का रूप देने का श्रेय महर्षि पतंजलि को है। योगदर्शन की तत्वमीमांसा सांख्यदर्शन पर आधारित है। योग सांख्य सिद्धान्तों की प्रयोगशाला है। सांख्य और योग में केवल ईश्वर तत्व को ही लेकर मतभेद है। योगाचार्य ईश्वर को परमगुरु और परमयोगी मानकर उसकी कृपा को मोक्ष के लिये अनिवार्य मानते हैं।



योग भारत की प्राचीन परम्परा है। हमारे देश के ऋषियों मुनियों ने योग द्वारा आत्मज्ञान प्राप्त किया और ईश्वर साक्षात्कार किया। भारतीय दर्शन के सभी सम्प्रदायों के अनुसार मोक्ष के दो पहलू हैं- निषेधात्मक और भावात्मक। निषेधात्मक रूप से वह जीवन मरण के चक्र का समाप्त हो जाना तथा भावात्मक रूप से परम तत्व का ज्ञान तथा जीव के स्वयं के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान है। भारतीय दर्शन के सभी सम्प्रदायों के अनुसार जीव का बन्धन अनादि है परन्तु सान्त है, जबकि मोक्ष सादि होते हुए भी अनन्त है। भारतीय दर्शन के सभी सम्प्रदायों के अनुसार जीव के बन्धन का मूल कारण निज स्वरूप एवं परमतत्व के स्वरूप  का अज्ञान है। यदि बन्धन का कारण अज्ञान है तो अज्ञान का दूर हो जाना या ज्ञान प्राप्त कर लेना मोक्ष प्राप्त करने की एक अनिवार्य पूर्व स्थिति है। सामान्य रूप से भारतीय दर्शन के सभी सम्प्रदायों ने मोक्ष को परम पुरुषार्थ के रूप में स्वीकार किया है। भारतीय दर्शन के सभी सम्प्रदाय कर्म, ज्ञान, भक्ति और अष्टांग योग की साधना को मोक्ष के साधन के रूप में स्वीकार करते हैं। ये विभिन्न साधन एक दूसरे के विरोधी नहीं, बल्कि एक दूसरे के पूरक है।


इनमें से प्रत्येक साधन आध्यात्मिक विकास के एक विशिष्ट सोपान पर मूल्यवान है। प्रत्येक जीव मोक्ष पा सकता है यह सभी भारतीय दर्शनों का विश्वास है, इस दृष्टि से सभी भारतीय दर्शन  आशावादी है। भारतीय दर्शन  की सभी विचारधाराओं में मोक्ष विषयक गम्भीर चिन्तन उपलब्ध होता है। मोक्ष को परम पुरुषार्थ कहा गया है क्योंकि मोक्ष जीवन का परम लक्ष्य है। चार्वाक दार्शनिकों को छोड़कर शेष सभी दार्शनिकों की यही मान्यता है। चार्वाक अर्थ और काम को जीवन का सर्वस्व स्वीकार करता है। मोक्ष को परमपद, निर्वाण, कैवल्य, अपवर्ग, निःश्रेयस् आदि पदों से भी जाना जाता है। मोक्ष बन्धन का पूर्ण विनाश है तथा आत्मा के परमानन्द की स्थिति है। इसलिए मोक्ष को अभावात्मक या आत्यन्तिक दुःख विनाश और भावात्मक आनन्द की प्राप्ति कहा गया है। संसार का प्रत्येक प्राणी प्राप्त सुख की अपेक्षा अधिक सुख की अभिलाषा करता है, और प्राप्त दुःख निवृत्ति की अपेक्षा अधिक दुःख निवृत्ति चाहता है।



मोक्ष या अपवर्ग उसी अवस्था को कहते हैं, जिसे प्राप्त कर लेने पर मनुष्य के लिये कोई प्राप्तव्य वस्तु नहीं रह जाती। इसी अवस्था को सुख या दुःख निवृत्ति की पराकाष्ठा कहते हैं। श्रुतियों ने विभिन्न प्रकार से इसी अवस्था विशेष का वर्णन किया है जैसे- ‘सोऽश्नुते सर्वान् कामान्’ ‘सोऽभयं गतो भवति’, ‘अमृतत्व´्च गच्छति’,। यह अमृतत्व या अभयत्व परम मोक्ष की अवस्था है और निरतिशय दुःख निवृत्ति से ही मनुष्य अभय होता है। यहां ‘सर्वान् कामान् अश्नुते’ से निरतिशय सुख-प्राप्ति और ‘अभयं गतो भवति’, ‘अमृतत्व´्च गच्छति’ से निरतिशय दुःख निवृत्ति ही सूचित है। भावी दुःख की आशंका से चित्त में जो विकलता उत्पन्न होती है, उसी का नाम है भय। दुःख का लेशमात्र रहने से भी भय की सम्भावना बनी रहती है, इसलिए सर्वथा दुःख से रहित होना आत्यन्तिक दुःख निवृत्ति की अवस्था में ही सम्भव है।


जन्म-मरण से उत्पन्न होने वाला दुःख सबसे भयंकर दुःख है, और इस जन्म-मरण के चक्कर से छूटना ही दुःख से आत्यन्तिक रूप से छूटना है। इसीलिए श्रुतियां मोक्ष का वर्णन करते हुए कहती हैं कि जिस समय सम्पूर्ण कामनाएं छूट जाती हैं उस समय यह मरणधर्मा अमर हो जाता है और इस शरीर से ही ब्रह्मभाव को प्राप्त हो जाता है, अर्थात् मुक्त हो जाता है। जिस समय पांचों ज्ञानेन्द्रियां मन के सहित आत्मा में स्थित हो जाती हैं और बुद्धि भी चेष्टा नहीं करती उस अवस्था को परमगति कहते है। पतंजलयोगशास्त्र मंे कैवल्य के अभिलाषी साधकों के लिये तीन प्रकार का मार्ग प्रतिपादित हुआ है। अभ्यास और वैराग्य, क्रियायोग और अष्टांगयोग।



यह मार्गभेद अधिकारी भेद को दृष्टि में रखकर किया गया है। उत्तम अधिकारियों के लिये अभ्यास और वैराग्य, मध्यम अधिकारियों के लिये क्रियायोग और नितान्त व्युत्थित चित्त मन्द अधिकारियों के लिये अष्टांगयोग का मार्ग आचरणीय है। योगशास्त्र के अनुसार आत्मा अजर और अमर है। उसमें अनन्त ज्ञान और शक्ति है। वह न दुःखी है न सुखी है परन्तु बुद्धिरूप दर्पण मंे प्रतिबिम्बित होकर बुद्धि के धर्मों को अपना मानकर वह सुखी और दुःखी होता है। असम्प्रज्ञात समाधि के द्वारा निष्पन्न सत्वपुरुषान्यथाख्याति रूप विवेकज्ञान के द्वारा जब आत्मा केा अपने पृथक् स्परूप का ज्ञान होता है तब वह बुद्धि के सम्पर्क से सदा के लिये मुक्त हो जाता है। आत्मा का यह स्वरूपावस्थान ही मोक्ष कहलाता है। (लेखक के अपने विचार है)