कविता
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कभी कभी आवारगी करने को जी करता है,
भूलकर सब खिलखिलाने को जी करता है।
कहते हैं लोग अब उम्र नहीं रही मेरी यूँ हँसने की,
बालों की सफेदी पर जरा गौर तो किया करो।
बच्चे बड़े हो गए हैं, अब देखो तुम्हारे,
कुछ तो जमाने की भी शर्म किया करो।
क्यों क्या किसी किताब में लिखा है ये सब,
उम्र का क्या लेना देना हँसी और आवारगी से !
अजी जीना है तो कभी फिक्र को दूर किया करो,
गुजर गया बचपन जैसे एक सीख देकर ,
जवानी तो जैसे कभी आयी ही नहीं!
ओढ़कर गंभीरता का मुखौटा हँसी कभी छाई ही नहीं !!
उम्र के इस दौर में कुछ गुनगुनाने को जी करता है ,
तोड़कर सारे बंधन उड़ जाने को जी करता है।
क्यों रहूँ मैं खौफ में उम्रभर चार लोगों की सोचकर !
वो चार लोग जो कभी मेरा दर्द पूछने आये ही नहीं।
वो चार लोग जो करते रहे चुगली मेरी उम्रभर ,
वो चार लोग जो कभी मेरे साथ मुस्कराए ही नहीं।
आज उनसे दूर जाने को जी करता है ,
उम्र के इस मोड़ पर कुछ कर गुजरने को जी करता है
खो जाती है छोटी छोटी खुशियाँ कुछ बड़ा पाने की चाहत में ,
बिखर जाते हैं सपने किसी अनजाने ख्वाब की तलाश में।
हर पल हर दिन गुजर जाता है एक अजीब सी कशमकश में !
जिंदगी को फिर से लिखने को जी करता है...!!
काश समझ पाते जीवन के अनमोल लक्ष्य को,
भुलाकर कड़वे अतीत की यादों को फिर से बहकने को जी करता है...!
काश वक़्त लौट आये, मैं बन जाऊँ फिर से नन्हीं परी,
माँ के साये में फिर से जीने को मन करता है।
लेखिका : वर्षा वार्ष्णेय
अलीगढ़ (उ.प्र.)