वसुधैव कुटुम्बकम्  


(डे लाइफ डेस्क)


वसुधैव कुटुम्बकम् भारतीय चिंतन का केन्द्रीय सम्प्रत्यय है। इसके अंतर्गत सम्पूर्ण पृथ्वी को परिवार के समान माना जाता है। ऋषियों महर्षियों के विशाल सहृदयता का यह परिणाम है कि उन्होंने सम्पूर्ण विश्व को परिवार के समान स्वीकार किया। वैदिक साहित्य से लेकर आधुनिक साहित्य तक हम यह देखते है कि यह परम्परा निरन्तर गतिमान है। यह विशाल दृष्टिकोण का परिचायक है। आधुनिक विज्ञान भी ग्लोबलाइजेशन या वैश्वीकरण के माध्यम से इस बात को सिद्ध कर दिया हैै। आज एक स्थान पर बैठे-बैठे हम दूर किसी भी देश में घटने वाली घटनाओं को जान सकते है, किसी भी व्यक्ति से बात कर सकते है। उससे साक्षात्कार कर सकते है। यह वसुधैव कुटुम्बकम् का ही परिणाम है। वसुधैव कुटुम्बकम् का महत्वपूर्ण मूल्य है- प्रेम। प्रेम एक ऐसा रसायन है जो मानव को मानव से संबंधित कर देता है।


हम एक परिवार में रहते है। परिवार गांव में रहता है। गावं से समाज बनता है और समाज से राष्ट्र का निर्माण होता है। सद्भावना के द्वारा एक प्राणी दूसरे प्राणी के प्रति अच्छा भाव रखता है। जब भाव शुद्ध होता है तो बुद्धि शुद्ध हो जाती है। जिससे चिन्तन और मनन विधेयात्मक हो जाता है। जीयों और जीने दो की भावना प्रबल हो जाती है। इस सृष्टि में बहुत से प्राणी है। सभी के प्रति अपने समान व्यवहार करने का प्रयास करना चाहिए। जैसे दुःख हमें अप्रिय हैं वैसे ही दूसरों को भी यह अप्रिय होगा ऐसा महसूस करना चाहिए। जो बात हमें अच्छी लगती है वही दूसरों को भी अच्छी लगेगी। यही बात हमें सोचनी चाहिए ओर दूसरों का अहित नहीं करना चाहिए। आज क्षुद्र स्वार्थों के कारण आंतकवाद भ्रष्टाचार घूसखोरी बढ़ रही है। अगर इस पर हम विचार करें तो इसके पीछे मुख्य कारण यह प्रतीत होता है कि आज का मानव स्वार्थी हो गया है। अपने तुच्छ लाभ के लिये दूसरों का बड़े से बड़ा नुकसान करने के लिए तैयार रहता है। जीव हिंसा करने में वह हिचकता नहीं। उसे लाभ हो या न हो दूसरों का नुकसान करने के लिए हिंसात्मक साधनों को अपना लेता है। यह लौकिक जगत् पंचभूतात्मक है।


पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश  से मिलकर इस जगत का निर्माण हुआ है। पृथ्वी के अनेक नाम है। पृथ्वी, धरा, वंसुधरा यह पृथ्वी रत्नों की खान है इसलिए इसको वसुंधरा कहा जाता है। वसुंधरा का तात्पर्य है जो रत्नों को धारण करें पृथ्वी के गर्भ में न जाने कितने बहुमूल्य खनीज छिपे हुए है। मानव इनका अंधाधुध दोहन कर रहा है। आवश्यकता से अधिक दोहन स्वयं उसके विनाश के लिए है। इससे पर्यावरण असंतुलित होता ही है साथ ही साथ अनेक भौतिक आपदाओं के आने का भी डर बना रहता है। दूसरा महत्वपूर्ण तत्व है जल। जल को जीवन कहा गया है। पीने के लिए शुद्ध जल धीरे-धीरे समाप्त होता जा रहा है। बढ़ती हई जनसंख्या और उससे होने वाला प्रदूषित मल-जल नदियों और तालाबों को विकृत बना रहा है। यदि प्रदूषण की गति इसी तरह जारी रही तो एक दिन ऐसा आयेगा। कि पीने के लिए धरती पर पानी ही नहीं बचेगा।


तीसरा विश्वयुद्ध जल के कारण ही संभव हो सकता है। तीसरा महत्वपूर्ण तत्व है तेज या अग्नि। अग्नि एक महत्वपूर्ण तत्व है। अग्नि तीन प्रकार की है- दावाग्नि, वडवाग्नि और जठराग्नि। दावाग्नि जंगल में लगने वाली अग्नि है। वडवाग्नि समुद्र के जल को नियंत्रित करती है। जठराग्नि मनुष्य के शरीर में रहने वाली अग्नि है। इसी से मनुष्य का जीवन चलता है। यदि यह अग्नि नष्ट हो जाये तो मनुष्य का जीवन समाप्त हो जाये। चैथा महत्वपूर्ण तत्व है- वायु। बढ़ती हुई आबादी और उसके सुख साधनों से निकलने वाला धुआं वायु को प्रदूषित कर रहा हैै। प्रदूषण कि गति इसी अनुपात में बढ़ती रही तो एक दिन पूरी मानवता ही समाप्त हो जायेगी। शुद्ध हवा प्राणवायु है। पांचवा महत्वपूर्ण तत्व- आकाश है। जो कुछ भी खाली स्थान दिखायी दे रहा हैै वह आकाश तत्व है। इन्हीें पांचों तत्वों से मिलकर सृष्टि का निर्माण होता है और इन्हीं से पर्यावरण बनता है। यदि पर्यावरण सुरक्षित नहीं रहेगा तो मानव का इस संसार में जीवित रहना ही कठिन हो जायेगा।


पृथ्वी हमारी माता हैैै। जैसे माता अपने गर्भ में नौ महिने तक बच्चे का पालन-पोषण करती है और नौ महिने के बाद बच्चे को जन्म देकर बड़ा करती है वैसे ही यह पृथ्वी माता सम्पूर्ण सृष्टि का संरक्षण करती है। माता के अनेक रूप है- लक्ष्मी, सरस्वती और दुर्गा। लक्ष्मी के रूप में वह धन की अधिष्ठात्री देवी कहलाती है। माता घर में धन संचय करती है और परिवार का भरण पोषण करने में महत्वपूर्ण योगदान देती है। सरस्वती के रूप में बालक को शिक्षा देती है और उसे पढ़ा लिखाकर जीवन पथ पर अग्रसर होने के लिए प्र्रेरित करती है।


दुर्गा के रूप में राक्षसों का संहार भी करती है। दैनिक पूजा पद्धति में पृथ्वी अग्नि वृक्ष इत्यादि को देवता मानकरके पूजा की जाती है। नदी, पहाड़, झरने इत्यादि हमारे लिए पूजनीय है। गंगा का जल अमृत है। इसे मृत्यु के समय मरणशय्या पर पड़े हुए व्यक्ति के मुख में डालने से वह मोक्ष को प्राप्त हो जाता हैै ऐसी मान्यता है। हमारे देश में पहाड़ की भी पूजा होती है, पत्थरों की भी पूजा होेती है। पत्थर को मूर्ति रूप में ढ़ालकर प्राण प्रतिष्ठा कर जब मंदिर में स्थापित कर दिया जाता है तो वह पूजनीय बन जाता है। मानव से लेकर पत्थर तक की पूजा इस संस्कृति में की जाती है। वसुधैव कुटुम्बकम् का यह एक विस्तृत रूप है। (लेखक के अपने विचार है)



प्रोफेसर (डॉ.) सोहन राज तातेड़ 
पूर्व कुलपति सिंघानिया विश्विद्यालय, राजस्थान