दुःख का कारण अज्ञानता


प्रोफेसर (डॉ.) सोहन राज तातेड़


पूर्व कुलपति सिंघानिया विश्विद्यालय, राजस्थान


 


इस संसार में हर प्राणी जीना चाहता है मरना कोई नहीं चाहता है। सभी चाहते है कि मेरा जीवन सुखमय रहे। इस संसार में मानव पर जैसे ही कष्ट आता है। वैसे ही वह तनाव में आ जाता है। अनुकूलता सभी चाहते है प्रतिकूलता कोई नहीं चाहता है। अनुकूलता और प्रतिकूलता जीवन में आने वाले दो पढ़ाव है। कोई अच्छी बात जब हम सुनते है तो वह हमारे अनुकूल रहती है और हम प्रसन्न हो जाते है जैसे ही हम कोई बुरी बात सुनते है तो वह हमारे प्रतिकूल रहती है औैर हम दुःखी हो जाते है। सुख और दुःख का यह द्वन्द्व जीवन भर चलता रहता है। हमारे यहां शिक्षण संस्थाओं और विश्वविद्यालयों में अनेक धर्म-दर्शन पढ़ाये जाते है जहां पर सुख और दुःख की दार्शनिक व्याख्या की जाती है।


दुःख क्या है? क्यों आता है? दुःख का कारण क्या है? इसको कैसे दुर किया जा सकता है इत्यादि बातों की दार्शनिक मीमांसा प्रायः सभी दर्शन करते है। दर्शन में दुःख को अज्ञान, अविद्या, माया, मित्यात्व कहा जाता है। अज्ञान और ज्ञान दो चीजे है। अज्ञान दुःख है और ज्ञान सही समझ है।  दुःख का कारण मूल रूप से अज्ञान ही है। जब मानव वस्तु के यथार्थ स्वरूप को समझ नहीं पाता तो वह अज्ञान में जीता है। वस्तुतः दो तरह का जगत है। एक तो जो हम नेत्रों से देखते है और इसी को सत्य मान लेते है और जीवनभर हम इस व्यवहार जगत में ही जीते रहते हैै। शरीर इन्द्रिय सृष्टि पारस्परिक संबंध इसी के स्तर पर हम जीते हुए पुरा जीवन बीता डालते है। यह संबंधों का जगत है और स्वार्थ पर आधारित है।


माता, पिता, भाई-बहन, बेटा-बेटी यह संबंध अवास्तविक है। आज है कल नहीं रहेगा। धन-दौलत, रूपया-पैसा ये सब नश्वर है। इससे परे एक पारलौकिक जगत है, आत्मा का जगत है। ज्ञानी लोग इसे ही सत्य मानते है और सांसारिक वस्तुओं को त्यागकर इसी में रमण करते है। बौद्ध दर्शन सर्वं दुःखम् कहकर इस संसार को ही दुःखपूर्ण मानता है और इसे अविद्या की सृष्टि कहता है और जब तक यह अज्ञान दूर नहीं हो जाता तब तक निर्वाण की प्राप्ति असंभव है। ज्ञानी व्यक्ति आत्मनिरीक्षण और और आत्मपरीक्षण करता है और स्थूल से सूक्ष्म की और चिन्तन करता है। क्योंकि सूक्ष्म में ही विराट समाया रहता है जैसे एक वट वृक्ष का बीज बहुत ही सूक्ष्म होता है किन्तु उसके अंतर्गत एक विराट वट वृक्ष समाया रहता है। यही तथ्य आत्मा के संबंध में भी है। आत्मा अतिसूक्ष्म रूपहीन, गंधहीन, वर्णहीन इन्द्रियों से परे सच्चिदानंद स्वरूप है। ज्ञानी व्यक्ति इसी आत्मतत्व की खोज में लगा रहता है। जप, तप, स्वाध्याय और शास्त्र चिन्तन के द्वारा के आत्मस्वरूप को पहचानता है और इसका अनुभव करता है। ऋषियों मुनियों ने घोर साधना के द्वारा आत्मतत्व की पहचान की और उसके स्वरूप का वर्णन किया। जिससे सामान्यजन भी आत्मतत्व को जान सके। जो आत्मतत्व को जान लेता है उसके लिए यह सम्पूर्ण संसार ईश्वरमय हो जाता है वह हर जगह ईश्वर का ही दर्शन करता है। हर प्राणी में जीवतत्व का दर्शन करता है।



यह संसार जड़तत्व और चेतनतत्व दो तत्वों से मिलकर बना हुआ है। जड़तत्व भौतिकतत्व है और आत्मतत्व आध्यात्मिक तत्व है। मानव जीवनभर पंचेन्द्रियों से जड़तत्वों का ही दर्शन करता है और उसी के साथ संबंध स्थापित किये रहता हैै। उसके नष्ट होने पर उसे दुःख होता है जब उसकी वृत्ति ऊध्र्वमुखी होती हैै तब वह आत्मतत्व की और गति करता है। आत्मतत्व अविनाशी तत्व है और भौतिक तत्व विनाशशील पंचेन्द्रिय का सम्पर्क भौतिकतत्व से ही होता है। आंख रूप का दर्शन करती है, कान शब्द का, जिह्वा स्वाद का, नासिका गंध का और त्वचा स्पर्श का स्वाद लेेती है। अनुकूल और प्रतिकूल ज्ञान होने पर सुख और दुःख की अनुभूति होती है। ये सब ज्ञान बाह्य जगत् के है। इससे भिन्न आत्मतत्व है जो कि यथार्थ ज्ञान है। जब मनुष्य को सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र का ज्ञान हो जाता है तो उसका ज्ञान पुष्ट हो जाता है।


मोक्ष साधना में आचार की शुद्धता का विशेष महत्व है। सम्यक् दर्शन, सम्यक्ज्ञान और समक् चारित्र्य मोक्षमार्ग है। सम्यक् श्रद्धा, सही ज्ञान और नैतिक आचार मानव जीवन के त्रिरत्न या रत्नत्रय हैं। सही आस्था और दर्शन प्राप्त करने के लिए बौद्धिक चिन्तन आवश्यक है। सम्यक्चारित्र के लिए पांच व्रतों का पालन आवश्यक है। आत्मा और कर्म के और इसी प्रकार आत्मा और देह के आत्यन्तिक वियोग को मोक्ष कहते हैं। मोक्ष की अवस्था परमशांत की अवस्था है। इस अवस्था में तीनों प्रकार के दुःखों का विनाश हो जाता है। शारीरिक, मानसिक और भौतिक सभी दुःख दूर हो जाते है।


दुःखों के दूर होने पर आत्मा का परमात्मा से मिलन हो जाता है। यह पूर्ण सुखमय अवस्था है, पूर्ण ज्ञान की अवस्था है। सभी प्राणियों का लक्ष्य इसी सुख को प्राप्त करने कि होती है। इस अवस्था में पहुंच जाने के बाद जीव का पुनरागमन नहीं होता हैै और आत्मा स्वप्रतिष्ठित हो जाती है। इस स्थिति में जीव को सोऽहम्-सोऽहम् की अनुभूति होने लगती है। सर्वं खलु इदं ब्रह्म का अभास होने लगता है। जड़चेतन का भेद मिट जाता है। चेतना का सर्वत्र दर्शन होने लगता है। पुरा संसार ज्ञानमय हो जाता है। अज्ञान का सर्वथा विनाश हो जाता हैै और प्राणी आत्ममय हो जाता है। कायिक वाचिक और मानसिक एकरूपता आ जाती है। जन्म और मृत्यु का चक्र सर्वथा के लिए छूट जाता है और अज्ञान का पूर्णरूप से विनाश हो जाता है। (लेखक के अपने विचार हैं)