बुद्धि का भावात्मक विकास


प्रोफेसर (डॉ.) सोहन राज तातेड़ 
पूर्व कुलपति सिंघानिया विश्विद्यालय, राजस्थान


(डे लाइफ डेस्क)


मनुष्य आदिम अवस्था में अशिक्षित था। उस समय उसका जीवन पशुवत था। मानव आखेट करके अपने जीवन का यापन करता था। धीरे-धीरे सभ्यता का विकास हुआ और कई सदियों के बाद मानव में शिक्षा का विकास हुआ। पहले यह माना जाता था कि जीवन में सफलता के लिए सर्वाधिक योगदान बौद्धिक विकास का होता है। मनोवैज्ञानिक बौद्धिक विकास को मापने के लिए एक विशेष शब्द का प्रयोग करते हैं - बुद्धि लब्ध्यांक किन्तु आज इस धारणा में आमूल-चूल परिवर्तन हो गया है। आज मनोवैज्ञानिक यह मानने लगे हैं कि जीवन में सफलता हेतु बौद्धिक विकास की भूमिका मात्र 20 प्रतिशत ही है। 80 प्रतिशत भूमिका भावात्मक विकास की है। मनोवैज्ञानिकों ने इसे नया नाम दिया है - भावात्मक बुद्धि। 



एक मनोवैज्ञानिक वाल्टर माइकल ने स्टेनफोर्ड परिसर में स्थित प्री-स्कूल के 4 वर्षीय बच्चों से मिले। उन्होंने बच्चों से कहा कि अभी तुम्हे एक चाॅकलेट दी जायेगी। जो बच्चा 20 मिनट तक उस चाॅकलेट को नहीं खायेगा। प्रतीक्षा करेगा। उसे एक और चाॅकलेट मिलेगी। कुछ बच्चों ने तुरन्त पहली चाॅकलेट खा ली। कुछ बच्चों ने 20 मिनट का इन्तजार किया और दूसरी चाॅकलेट प्राप्त की। दोनों ही प्रकार के बच्चों के दो वर्ग बनाए गए उनका वर्षों तक अध्ययन किया गया। जब वे युवा हुए तो यह पाया गया कि द्वितीय वर्ग के बच्चे अपने लक्ष्य के प्रति अधिक धैर्यवान थे। सामाजिक रूप से अधिक सक्षम व दृढ़ थे। जीवन में आने वाली बाधाओं और निराशाओं का सामना अच्छे ढंग से कर पा रहे थे। 



प्रथम वर्ग के बच्चे जो एक चाॅकलेट से ही संतुष्ट हो गये। जिनमें धैर्य और इन्तजाार का अभाव था, वे अधिक जिद्दी थे। वे असमंजसता और अनिर्णायकता की स्थिति में पाये गये। वे तनाव से भी ग्रस्त थे। दोनों ग्रुप के बच्चों में जो अन्तर है वह वास्तव में भावात्मक बुद्धि के कारण है। इसे हम भावात्मक विकास या भावात्मक प्रतिभा भी कह सकते हैं। जो व्यक्ति अपने प्रति जागरूक होता है, स्वयं का निरीक्षण करता है, अपने भावों केा समझता है, वह उसमें परिवर्तन करने में भी सक्षम हो जाता है। स्वयं के प्रति जागरूकता, भावात्मक परिष्कार भावात्मक विकास एवं भावात्मक संतुलन का आधारभूत सूत्र है। जीवन में उतार-चढ़ाव भी आते रहते हैं। उस समय हमारे भीतर कितनी समता रह पाती है? कितना संतुलन रह पाता है? यही वह परीक्षा की घड़ी भी होती है। इससे ही हमारे सुदृढ चरित्र का पता लगता है। जो व्यक्ति प्रतिकूल परिस्थितियों का वस्तुपरक सकारात्मक दृष्टिकोण से सतत जागरूक रहकर मूल्यांकन करता है वह जीवन में आने वाली चुनौतियों को सहज रूप से स्वीकार कर उससे निपटने में सक्षम हो जाता हैं सत्संग, एकान्तवास, ध्यान, कायोत्सर्ग आदि इसमें बहुत सहायक सिद्ध होते है। इनसे व्यक्ति दुश्चिन्ता, अवसाद अथवा निराशा से उबर जाता है। 



जब कोई व्यक्ति बूरा काम करता है तो उसकी चेतना उसे रोकने की कोशिश करती है किन्तु वह उसे देखा-अनदेखा कर देता है। यह माना जाता है कि हर व्यक्ति एक निश्चित उद्देश्य को लेकर इस पृथ्वी पर जन्म लेता है। वह अपने इस उद्देश्य का ज्ञान स्वयं के निरन्तर सम्पर्क एवं अन्दर से आने वाली स्वतः स्फूर्त प्रेरणाओं को सुन कर ही कर सकता है। भीतर से आने वाली प्रेरणाएं किसी भी बड़ी उपलब्धि का सबसे बड़ा आधार होती है। प्रत्येक बड़ी उपलब्धि के लिए स्पष्ट लक्ष्य एवं निरन्तर आशावादी दृष्टि की आवश्यकता होती है। वह व्यक्ति को अन्तःपे्ररणा से उपलब्ध होती रहती है। ऐसा व्यक्ति यह अनुभव करता है - ‘‘मुझे यह करना है। और यह मैं कर सकता हूं।’’ वह अपनी हर असफलता से सीखना है, रास्ता खोजता है एवं आगे बढ़ जाता है। 



बीज से फल प्राप्ति तक व्यक्ति का धैर्य रखना होता है। सतत् पुरूषार्थ द्वारा बीज से निकले अंकुरों का सिंचन, पल्लवन, पोषण तथा सुरक्षा करनी होती है। आवेग और आवेश, विकार और वासनाएं, अहंभाव व कुटिल व्यवहार, लोभ और लालच वर्षो की तपस्या को क्षण भर में राख कर रख देते हैं। अधीरता ला देते है। अतः स्वयं के संवेगों का जागरूकता के साथ परिष्कार, रेचन, मार्गान्तरीकरण व उदात्तीकरण के द्वारा उन पर नियंत्रण कौशल को विकसित किया जा सकता है। यह जीवन में सफलता के लिए अत्यन्त आवश्यक है। पारस्परिक सौहार्द एवं सम्पर्क बौद्धिक दक्षता में चार चांद लगा देते है। बहुत सारे बौद्धिक क्षमता से युक्त व्यक्ति जब तकनीकी कठिनाई का अनुभव करते हैं, वे दूसरों से सहयोग मांगते हैं तब उन्हें सहयोग कम प्राप्त होता है। 


परन्तु उनमें से कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जिन्हें तुरन्त सहायता मिल जाती है। क्योंकि ऐसे लोग सम्पर्क करने व सम्बन्धों को बनाये रखने में निपुण होते हैं। फिर उनकी बौद्धिक क्षमता कितनी भी क्यों न हो। भावात्मक रूप से विकसित व्यक्ति की एक अलग ही पहचान होती है। ‘सा विद्या या विमुक्तये’ विद्या वह ही है जो व्यक्ति को मुक्त करे, स्वतन्त्र बनाये। भावात्मक रूप से संतुलित या विकसित व्यक्ति का व्यक्तित्व ही स्वतंत्र होता है। ऐसे व्यक्ति प्रियता-अप्रियता, पसन्द-नापसन्द से अप्रभावित होकर, मुक्त होकर स्वतन्त्र निर्णय करते हैं। वे अपने भावों को ठीक से पहचान लेते हैं और दुसरों के भावों को भी जान लेते हैं। सहयोग, सद्भाव एवं पारस्परिक संबंधों को महत्त्व देते हैं। उनके निर्णयों में स्वयं के सिद्धांत एवं मूल्यों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। उनमें पारस्परिक संबंधों को निभाने एवं नये संबंधों को बनाने की अद्भुत क्षमता होती है। (लेखक के अपने विचार एवं अध्ययन है)