अहिंसा और भगवान महावीर


प्रोफेसर (डॉ.) सोहन राज तातेड़ 
पूर्व कुलपति सिंघानिया विश्विद्यालय, राजस्थान


(डे लाइफ डेस्क)


भारतीय संस्कृति के गिरते मूल्यों का पुनःउत्थान करने का कार्यक्रम है- पुनुरुत्थान कार्यक्रम। इस कार्यक्रम में सांस्कृतिक मूल्यों की पुनःप्रतिष्ठा, उनपर चिंतन ओर मनन किया जा रहा है। भारतीय संस्कृति का महत्वपूर्ण सूत्र है अहिंसा- अहिंसा सव्वभूय खेमंकरी अर्थात् अहिंसा सभी प्राणियों का कल्याण करने वाली है। भगवान महावीर का संदेष आचार मूलक है। आगमिक ग्रंथों में आचार के विभिन्न रूपों पर प्रकाश डाला गया है। आचार के सभी पक्षों पर सर्वांगीण रूप से यहां चिन्तन किया गया है। अहिंसा, संयम और तप को उत्कृष्ट धर्म कहा गया है। जिस प्रकार भ्रमर पुष्पों को बिना म्लान किये रस ग्रहण करता है उसी प्रकार श्रमण भी बिना किसी को कष्ट पहुचाएं आहार ग्रहण करता है। सभी प्रकार के संगो और आसक्ति का त्याग करने वाला ही उत्तम साधु है। प्रायः सभी आगमों में साधु के कर्तव्यों का निर्देष है। अहिंसा धर्म शुद्ध, नित्य और शाश्वत है। अहिंसा धर्म आत्मज्ञ पुरुषों द्वारा प्रतिपादित है। अहिंसाव्रत की अनुपालना में जो बाधाएं हैं, जब तक उनका परिहार नहीं होता, तब तक उसका अनुपालन संभव नहीं है। 


उसमें प्रथम बाधा है- दृष्ट। दृष्ट का अर्थ है- शब्द, रूप, गंध, रस, स्पर्श। जो व्यक्ति इन्द्रिय विषयों में आसक्त है, वह अहिंसा का पालन नहीं कर सकता। इसीलिए अहिंसक को इन्द्रिय विषयों से विरक्त रहना चाहिए। जिसे इस अहिंसा धर्म का ज्ञान नहीं, उसे अन्य तत्त्वों का ज्ञान कहां से होगा। देह के प्रति अनासक्त मनुष्य ही धर्म को जान सकता है। भगवान् महावीर का उपदेश है कि दुःख हिंसा से उत्पन्न है, इसलिए हिंसा का परित्याग करना चाहिए। आगमों में वर्णित अहिंसा का आचरण करने से मनुष्य संसार सागर से मुक्त हो जाता है। ‘अहिंसा परमो धर्मः अहिंसा ही परम धर्म है, कहकर अहिंसा का जयघोष किया गया है। अहिंसा ही आचार का प्रथम सूत्र है। जैन धर्म निवृत्ति मूलक धर्म है। इस संस्कृति में आचरण की पवित्रता पर जितना अधिक बल दिया गया है, उतना किसी अन्य पर नहीं। आचार के बल पर मानव देवता के समान पूजनीय बन जाता है। 



जैन धर्म का मूलाधार ही अहिंसा है। हिंसा कभी भी धर्म नहीं हो सकती। इस विराट् विश्व में जितने भी प्राणी हैं, वे चाहे छोटे हों या बड़े हों, पशु हों या मानव हों, सभी जीवित रहना चाहते हैं, कोई भी मरना नहीं चाहता। अहिंसा में सभी प्राणियों के कल्याण की भावना निहित है। प्रश्न व्याकरण में कहा गया त्रस, स्थावर सभी भूतनिकायों का मंगल करने वाली अहिंसा है। मनुष्य हिंसा क्यों करता है? हिंसा का कारण क्या है? हिंसा का प्रमुख कारण मानव का अज्ञान है। तत्त्व से अनभिज्ञ होने के कारण मनुष्य विषय, कषाय आदि मानसिक दोषों से पीड़ित है। इसलिए वह हिंसात्मक प्रवृत्ति करता है। भगवान् महावीर ने छह जीवनिकायों की प्ररूपणा की है। इनमें पृथ्वी, अप, तेजस्, वायु, वनस्पति और त्रस की प्ररूपणा की गयी है। जब तक जीव का ज्ञान नहीं होता, तब तक हिंसा से छुटकारा नहीं मिल सकता। केवल मनुष्यों के प्रति ही नहीं बल्कि संसार में जितने भी प्राणी है उन सभी में आत्मदर्शन करना अहिंसा है प्राच्य और पाश्चात्य दोनों विचारधाराऐं इस बात को स्वीकार करती है कि अहिंसा से ही सभी प्रकार के उपद्रवों का शमन किया जा सकता है। किसी प्राणी को दुःख न देना सबको अपने समान समझना ही अहिंसा है।
 
अहिंसक व्यक्ति अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों में विचलित नहीं होता। भगवान महावीर का जीवन दर्शन इस तथ्य में प्रमाण है। न जाने कितने उपद्रव उनके जीवन में आये किन्तु उन सभी का समभाव से सहन किया और महावीर कहलाये। जीवन में कठोर तपस्या की परीषहों को सहा और अंत में जाकर भेद विज्ञान का ज्ञान किया। आत्मा भिन्न और शरीर भिन्न है। इस तथ्य को जानना ही वास्तविक अहिंसा है। अहिंसा एक महान् मार्ग है। हर कोई मनुष्य इस मार्ग पर नहीं चल सकता। जो पराक्रमी, वीर होते हैं, वे ही इस महान् पथ के पथिक बनते हैं वीर पुरुष महापथ के प्रति समर्पित होते हैं।अहिंसा कायरों का मार्ग नहीं है, यह पराक्रमशालियों का मार्ग है। शान्ति की आराधना करने वाले जितने महापुरुष हुए हैं, वे सब इस महापथ पर चले हैं, चलते हैं और चलेंगे। फिर भी यह संकीर्ण नहीं होता। इसलिए यह महापथ कहलाता है।



अहिंसा की विभिन्न परिभाषाओं के आधार पर इसके दो रूपों पर प्रकाश पड़ता है-निषेधात्मक और विधेयात्मक। निषेधात्मक रूप में किसी भी जीव का तीन करण और तीन योग से हिंसा न करना अहिंसा है। अहिंसा, हिंसा का अभाव है। अहिंसा का अर्थ है-हिंसा का न होना, हिंसा की भावनाएं और हिंसा जन्य क्रियाओं का अभाव होना। अहिंसा के इसी अर्थ में ‘सर्वप्राणातिपात विरमण’ शब्द का भी प्रयोग हुआ है। इसका अर्थ है ‘सभी प्रकार की जीवहिंसा से निवृत्ति। यह अर्थ, अहिंसा के निषेध-मूलक पक्ष को प्रगट करता है। वस्तुतः अहिंसा केवल निषेध में ही नहीं अपितु विधेयरूप में भी है। अहिंसा को पूर्णरूप से समझने के लिए उसके विधेयात्मक पक्ष को भी समझना होगा। अहिंसा के कार्य और अर्थ के आधार पर उसकी व्यापकता दिखायी गयी है। उनमें से अधिकांश अहिंसा के विधेयात्मक पक्ष को प्रगट करते हैं-जैसे-निर्वाण, समाधि, शान्ति, कीर्ति, दया, क्षान्ति, सम्यक्त्वाराधना, बोधि, नन्दा, कल्याण, मंगल, रक्षा, शिव, अप्रमाद, विश्वास, पवित्रा, विमला, प्रभासा, निर्मलकर आदि अहिंसा के विधेयात्मक पक्ष को प्रगट करते हैं। भगवान महावीर के अहिंसा का उपदेश शाश्वतिक सत्य है। (सम्मानीय लेखक के अपने विचार हैं)