अब यहां मेरी बात कोई नहीं सुनता : वेदव्यास

 2 अक्टूबर महात्मा गांधी की जयंती पर विशेष लेख

लेखक : वेदव्यास

लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं पत्रकार हैं

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महात्मा गांधी को लेकर अक्सर हर विषय और संदर्भ से हमारी बहस साल में 365 दिन ही चलती रहती है। कई कारण है कि 140 करोड़ देशवासियों के मन में गांधी से बड़ी आज कोई आस्था और उम्मीद ही नहीं बची है। इस तरह गांधी हमारी ताकत भी है और कमजोरी भी है। दरअसल, नई समस्या अब गांधी को लेकर सबके साथ यह आ रही है कि महात्मा गांधी से कल तक नफरत करने वाले भी आज राजघाट जा रहे हैं, आज अपने दफ्तर में गांधी की तस्वीरें लगाकर उनको माल्यार्पण कर रहे हैं तो अब तक गांधी के नाम पर स्वतंत्रता संग्राम की मलाई खाने वाले भी उनके बताए किसी रास्ते पर चलने से घबरा रहे हैं। कुल मिलाकर महात्मा गांधी अब स्मृतियों और प्रार्थनाओं की भीड़ बनकर रह गए हैं। लगता है कि गांधी ने सबका सपना चुरा लिया है।

महात्मा गांधी दुनिया के एकमात्र ऐसे पुरुष हैं जिन्हें गौतम बुद्ध और महावीर की तरह हम राजा और प्रजा, दोनों ही अपना संकट मोचक मानकर नए भारत का भगवान ही जान रहे हैं तथा गरीबी और विषमता की लड़ाई में अपनी रामबाण दवा की तरह इनका इस्तेमाल कर रहे हैं। उधर, स्वामी विवेकानंद से लेकर दीनदयाल उपाध्याय तक और सुभाषचंद्र बोस से लेकर भगतसिंह जैसे सभी इस लंगोटीधारी साबरमती के संत के आगे नतमस्तक हैं। अचरज की बात यह है कि महात्मा गांधी की आज चारों तरफ सबसे अधिक दुहाई भी दी जाती है लेकिन जीवन के आचरण और व्यवहार में ठीक विपरीत गांधी की ही दिल खोलकर हंसाई तथा विदाई की जाती है क्योंकि गांधी को याद करने से सरकार बनाने में, हिंसा फैलाने में, जाति-धर्म के अखाड़े चलाने में और मनचाहा पाप करने में किसी को कोई डर-भय नहीं लगता। चुनाव में विकास और परिवर्तन को लेकर देश का कोई भी राजनीतिक दल और व्यक्ति अपने घोषणापत्र और दृष्टिपत्र तक में महात्मा गांधी का कोई उदाहरण और संकल्प तक नहीं लेता। ऐसे में गांधी आज एक सुविधा के प्रतीक बन गए हैं और सबको इनमें ऐसा अंधविश्वास हो गया है कि जैसे हर भले-बुरे काम की भूमिपूजा में गांधी की आहुति देने से सारा काम सिद्ध हो जाएगा। यानी की महात्मा गांधी का सरकारी व्यवस्था में जितना स्मरण हमने 1947 के बाद किया है उसका ही आज यह परिणाम है कि गुजरात से दिल्ली पहुंचने वाला हर कोई राजनेता भी अपने को साबरमती का संत ही घोषित कर रहा है। सत्य और अहिंसा की जगह उन्हें स्वच्छ भारत मिशन की अंतर्रात्मा बना रहा है ताकि महात्मा गांधी को मनरेगा जैसी किसी सरकारी योजना में बदला जा सके।

इसी तरह में आज सूचना-प्रौद्योगिकी को लेकर डिजिटल इंडिया का वैश्विक अभियान चल रहा है जो गांधी की बताई सहिष्णुता, अपरिग्रह और हिंद स्वराज की अवधारणा को ही नष्ट करने जा रहा है। राजनीति में शुचिता और सुराज जैसी गांधीवादी सोच ही नेस्तानाबूद हो गई है। शासन-प्रशासन की हर दीवार पर गांधी की तस्वीर लटकाने का ही आज यह प्रतिफल है कि गांधी को लेकर जनप्रतिनिधियों को लोक-लाज तक समाप्त हो गई है। जैसे गांधी एक ऐसा ताबीज हो गया है जिसे चोर और साहुकार सभी अपने लिए एक कवच की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं। आप ध्यान से देखें तो ऐसा लगता है कि यहां गांधी से कोई डरता ही नहीं है और गांधी के तीन बंदरों की तरह समाज का पाखंड और दुराचार सुनकर-देखकर और बोलकर कभी विचलित भी नहीं होता है। महात्मा गांधी के बताए सात पाप तो आज सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक लोकजीवन की दसों दिशाओं में राज कर रहे हैं। गांधी को सुविधा का खिलौना बनाने का यह महाअभियान उनके देहांत के बाद एक ऐसा सामाजिक, राजनीतिक हथियार बन गया है कि आम आदमी उदास और भौंचक्का मात्र है।

लेकिन 140 करोड़ देशवासियों के नए वैदिक भारत में आज भी वही पुरानी बहस चल रही है कि क्या गांधी आज भी प्रासंगिक है? और क्या गांधी आज भी किसी वैष्णवजन के लिए किसी मर्ज की दवा है? हमें लगता है कि इस प्रपंच की राजनीति में कांग्रेस मुक्त भारत बनाने का सपना लेकर आए कलाकार भी अब अगले पड़ाव में भारत को महात्मा गांधी से मुक्त कराने का ही संकल्प पूरा करेंगे, क्योंकि विकास और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद तक संकीर्णता के गौरव की रणनीति में अब सत्य और अहिंसा का आगे कहीं कोई स्थान नहीं है। इस लोकतंत्र में समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता की मौत कर दूसरा नाम अब महात्मा गांधी के जीवन दर्शन कह मौत ही है लेकिन समय गवाह रहेगा कि विश्व मानवता का भीषण संहार गांधी को फिर नया जन्म भी देगा क्योंकि आज जो मौन है वही कल मुखर होगा और आज जो दलित और पीड़ित है वही फिर कल गांधी विचार का नया अवतार भी बनेगा।

अतः महात्मा गांधी की सरकारी साधना में जुटे, वेद विज्ञानियों को यह समझ लेना चाहिए कि गांधी केवल एक विचार है तथा सभी विषमताओं का प्राकृतिक उपचार भी है। यह भारत को विश्व गुरु बनाने का एक कर्तव्य और अधिकार भी है। हिम्मत से कभी युद्ध और शांति के आसपास जाकर तो सोचिए कि गांधी कोई कायर की अहिंसा नहीं है क्योंकि वैदिक परंपरा से लेकर विज्ञान की सभी अन्वेषणाएं भी सत्य और अहिंसा से ही प्रेरित और प्रभावित है। ऐसे में आप कभी गांधी को याद करते समय अपने दैनिक आचरण और कर्म को भी जरूर कसौटी पर रखकर देखें। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)