14 सितंबर हिंदी दिवस पर विशेष लेख
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं पत्रकार हैं
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इस बार भी 14 सितंबर को हिंदी दिवस मनाया जाएगा और हिंदी भाषी राज्यों में परम्परा के अनुसार सरकारी खर्च पर सरकारी संस्थानों में खूब तालियां और थालियां बजेगी, और बधाइयां भी बंटेगी। मुझे इस बात की खुशी भी है कि साल में एक दिन हिंदी भाषा के प्रकाश स्तंभ रचनाकारों के चित्र प्रकाशित होते हैं। लेकिन हिंदी भाषी क्षेत्रों का ये पुराना दर्द भी छलकता है कि हिंदी भाषा को आजादी के 77 साल बाद भी हम हिंदी को एक राष्ट्रभाषा का सम्मान क्यों नहीं दे पा रहे हैं। आप जानते ही हैं कि 14 सितंबर 1949 को संविधान सभा ने केवल राजभाषा का दर्जा दे रखा है और तब से हिंदी भाषा, भारत की राष्ट्र भाषा नहीं मानी जा रही है।
इस दर्द को समझने के लिए मैं खुद हिंदी भाषा का लेखक होने के नाते ये कहना चाहता हूं कि पहले हिंदी प्रदेशों में, अहिंदी प्रदेशों की भारतीय भाषाओं के प्रति आदर और अनुराग की भावना भी दिखाई-सुनाई पड़नी चाहिए। भारत का भाषा परिवार हम से ये उम्मीद करता है कि कोई एक भाषा किसी दूसरी भाषा पर थोपी नहीं जानी चाहिए। क्योंकि हिंदी भाषा की संरचना, प्रांतीय भाषाओं और बोलियों से ही सृजित और समृद्ध हुई है। राजभाषा और राष्ट्रभाषा का ये वाद-विवाद और संवाद ही आज भाषाई वर्चस्व की राजनीति का रूप ले चुका है।
दूसरे रूप में हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान की राजनीति ने भी इस हिंदी भाषा को राष्ट्रवाद की सांस्कृतिक अस्मिता से जोड़ दिया है और ये माना जाने लगा है कि जब हिंदी प्रदेशों (उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, राजस्थान, हिमाचल, हरियाणा) से ही केंद्र सरकार का भविष्य तय होता है तो फिर भाषाओं का भविष्य भी बहुमत के शासन द्वारा ही तय किया जाएगा। भारत के अधिकतर प्रधानमंत्री इन हिंदी प्रदेशों की देन हैं और हिंदी भाषा की सृजन परम्परा इन्हीं हिंदी प्रदेशों से आती है। यानी कि हिंदी भाषा को शुरू से ही एक वर्चस्व की भाषा बनाया गया है जबकि संस्कृत, तमिल, तेलगू जैसी अनेक भाषाएं शास्त्रीय भाषा की तरह बहुत समृद्ध हैं। इस भाषाई सत्ता व्यवस्था की राजनीति ने बंगला, असमिया, मलयालम, कन्नड़ और गुजराती, राजस्थानी, बुंदेलखण्डी, भोजपुरी जैसे अनेक समृद्ध भाषाओं को वर्चस्व की हिंदी मानसिकता ने हाशिए से बाहर धकेल दिया है।
मेरा इस पृष्ठभूमि में विनम्र सुझाव है कि हिंदी भाषा-भाषी हिंदी को अधिक विवाद रहित बनाने के लिए पहले अहिंदी भाषा-भाषियों के साथ सृजन संवाद और सांस्कृतिक सौहार्द बढ़ाएं और अनुवाद के पुल अधिक बढ़ाएं। उर्दू, अंग्रेजी के साथ हिंदी का तालमेल लगातार अनुवाद से ही बढ़ रहा है। मेरा ये भी अनुरोध है कि हिंदी जगत को इस बात का गर्व होना चाहिए कि आज हिंदी यत्र-तत्र-सर्वत्र है और बाजार और सरकार के साथ टेक्नोलाॅजी और शिक्षा के माध्यम के रूप में भी प्रायः सर्वमान्य है। प्रचार के सभी माध्यम, फिल्म उद्योग, प्रसारण तंत्र-हिंदी को घर-घर ले जा रहे हैं। ऐसा है कि हिंदी तो खुद एक बहता हुआ पानी है जो खुद अपना रास्ता बना रहा है। आज लाल किला भी हिंदी भाषणों से ही जनता के दिल और दिमाग पर राज कर रहा है और अंग्रेजी से अधिक विश्व मंचों पर कामयाब है।
ऐसे में हिंदी आज बाजार, व्यवहार और बहुमत की राजनीति का सफलतम उदाहरण है। शिक्षा की नई नीति में हिंदी, अंग्रेजी और तीसरी कोई प्रांतीय भाषा का त्रिभाषा फार्मूला भी यही संवाद और समन्वय बनाता है। अतः हिंदी भाषा-भाषियों को उदारता और भाषाई-पारिवारिकता की समझ के साथ, सबका साथ-सबका विश्वास और सबका विकास की गैर बराबरी से मुक्त बात करनी चाहिए। क्योंकि हिंदी प्रथम है किंतु सभी की पंक्ति में समान है। केवल हिंदी का आग्रह और दुराग्रह एक तरह की संकीर्णता है।
अतः हिंदी को विविधता में एकता का आधार बनाए हैं। हिंदी के लिए एक दिन का सरकारी कर्मकांड अब बंद होना चाहिए। क्योंकि ये अब जनता के धन का दुरुपयोग है। उचित ये है कि राजभाषा के नाम पर चल रहे सभी अखाड़े अब अहिंदी भाषी राज्यों में सक्रिय बनाने चाहिए। ताकि प्रांतीय भाषाओं से हमारा भाईचारा बढ़े और सांस्कृतिक आदान-प्रदान विकसित हो। दूसरों को सम्मान देकर ही आप उनसे सम्मान ले सकते हैं। क्योंकि उत्तर की संकीर्ण राजनीति भी बढ़ती है। हिंदी भाषी लोगों को अन्य भारतीय भाषाओं को पढ़ना-लिखना और बोलना भी चाहिए ताकि हिंदी भारत में भाषाई एकता का चंदन पानी बन सकें। इसलिए अपना दर्द बताएं तो दूसरों का दर्द भी समझें। इसी संदर्भ में
साहित्यकार अल्लामा इक़बाल ने कहा था “सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा, हम बुलबुलें हैं इसकी ये गुलसितां हमारा।" (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)