लेखक : डॉ. सत्यनारायण सिंह
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राजकाज की अंतिम परीक्षा तो यही है कि लोगों की जिंदगी में कितना असर आया और इस मामलें में आर्थिक मुद्दे ही मायने रखते हैं। इस मामलें में मोदी सरकार की राह आसान नहीं रही है। आसमान छूंती ईंधन और वस्तुओं की कीमतें, बढ़ते राजकोषीय और व्यापार घाटे, गिरते निर्यात और अब तक के इतिहास में सबसे कमजोर रूपए का मतलब है कि ढ़लान की ओर बढ़ने के हालात बने हुए हैं। एक सर्वेक्षण के अनुसार लोगों के लिए मंहगाई और बेरोजगारी क्रमशः 25 फसदी और 17 फसदी के साथ सबसे चिंताजनक मुद्दे बने हुए हैं। छह महीने पहले अगर 70 फीसदी लोगों ने अर्थ व्यवस्था को मोदी की सबसे बड़ी नाकामी बताया था। अब भी ऐसा कहने वाले आज भी 55 फीसदी हैं और जो लोग कहते हैं कि उनके खर्चे निकालना मुश्किल हो गया है, उनकी तादाद 60 फीसदी के उच्च स्तर पर बनी हुई है।
शुरूआती गड़बड़ियों के बाद कोविड से निपटने के बाद के तरीकें से जिसमें पुराने लटके-झटकें और चौंकाऊ तथा हल्लाबोल वाली बाजीगरी रही अब स्थिरता सी आ गई है। राजनीति से इतर देश क्या सोचता है, मसलन जजों की नियुक्ति से लेकर ’’लव जिहाद’’ और ई.डब्ल्यू.एस. कोटा के मामलों तक।
अनुच्छेद 370 को हटाने और अयोध्या जैसे हिंदुत्व/अतिराष्ट्रवादी मुद्दे ही मोदी शासन की सबसे बड़ी उपलब्धियां गिनी जा सकती हैं। ये भाजपा के कोर वोटर को खुश करने के लिए तो काफी हो सकते हैं, लेकिन बड़े दायरे पर असर नहीं डाल सकतीं। दूसरों के लिए तो रोजी-रोटी के मुद्दे ही अधिक मायने रखेंगे।
अर्थव्यवस्था के मामले में 2020 के बाद के तीन साल नरेंद्र मोदी सरकार के लिए मुश्किल रहे। पहले कोविड-19 की वजह से लॉकडाउन लगाना पड़ा जिससे काम धंधों का भट्टा बैठ गया और लाखों लोग नौकरियों से हाथ धो बैठे, जिसका नतीजा बहुत ज्यादा मंहगाइ और अनाज की तंगी की शक्ल में सामने आया। ईंधन और जिंसों की कीमतें खास कर आमान छूने लगीं और भारत का आयात बिल बहुत बढ़ गया। भारत का राजकोषीय घाटा यानी देश की आमदनी और खर्च का अंतर काफी बढ़ गया है। रूपया कमजोर हुआ और निर्यात में गिरावट आई तो व्यापार घाटा भी बढ़कर दिसम्बर में एक साल पहले के इसी महीने के मुकाबले 23.89 अरब डॅालर (1.94 लाख करोड़ रूपये) पर पहुॅंच गया। रूपया जुलाई में पहली बार एक डॉलर के मुकाबले 80 रूपये के निशान से ऊपर चला गया और तब से उबर नहीं पाया, जबकि निर्यात दिसम्बर में एक साल पहले के इसी महीने के मुकाबले 12.2 फीसद घट गया। व्यापार और पूँजी के बढ़ते एकीकरण की वजह से इसकी परीक्षा अगले साल औद्यौगिक गतिविधि के कमजोर पड़ने से होगी। ठेका आधारित सेवाओं में उठाव ज्यों ज्यों फीका पड़ता जाता है उसका और ब्याज दरों में बढ़ोत्तरी का असर उपभोक्ताओं पर डालने का दबाव भी इस पर पड़ेगा। ’’क्रिसिल के मुताबिक, देश की जीडीपी के अगले वित्त वर्ष में छह फीसद तक सुस्त पड़ने का अंदेशा है।
बेहद परेशानी पैदा करने वाले क्षेत्रों में देश में रोजगार की स्थिति भी है। तकरीबन 1.2 करोड़ लोग हर साल वर्कफोर्स या कार्यबल में शामिल होते हैं पर उनके लिए पर्याप्त नौकरियां नहीं है। सेंटर फॉर मानिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआइई) ने दिसम्बर में देश की बेरोजगारी दर 8.3 फीसद दर्ज की जो महामारी की वजह से लगाए गए लॉकडाउन से काम-धंधे चौपट होने के बाद सबसे ज्यादा है। हालांकि देश महामारी से बाहर निकल आया है पर नई परियोजनाओं में निवेश की बड़ी वापसी अभी होनी है, जबकि उपभोक्ता मांग अब भी कमजोर बनी हुई है।
नई परियोजनाओं पर खर्च लगातार दूसरी तिमाही में सुस्त पड़ गया। पर्याप्त निजी निवेश के बगैर काफी तादाद में नौकरियों का सृजन नहीं हो सकता। बेरोजगारी की स्थिति ’’कुछ गंभीर’’ है। 72 फीसद लोग बेरोजगारीकी स्थिति को अब भी भयावह मानते हैं। सरकार ने कुछ ही नौकरियों का सृजन किया, और 28.2 फीसद मानते हैं कि सरकार ने रोजगार के अवसरों का बिल्कुल सृजन नहीं किया।
जबसे कोविड-19 का साया मंडराना शुरू हुआ, बेरोजगारी और आमदनी का सृजन सरकार के लिए प्रमुख हौवा बने हुए हैं, करीब 62 फीसद उत्तरदाओं ने बताया कि कोविड-19 की वजह से उनकी आमदनी कम हुई है।
बेरोजगारी को लेकर चिंता के साथ यह निराशा जुड़ी है कि घरेलु आमदनी में सुधार नहीं होगा। बदले में इससे खर्चों में कटौती आएगी और इसका प्रतिकूल असर निवेश पर पड़ेगा। 29.2 फीसदी मतदाताओं को लगता है कि उनकी घरेलू आमदनी या तनख्वाह में कमी आएगी। मौजूदा खर्चों को संभाल पाना मुश्किल हो गया है। मंहगाई भारतीय रिजर्व बैंक (आर.बी.आइ.र्) की 6 फीसद की ऊपरी सीमा को तोड़कर कई महिनों तक उससे ऊपर बनी रही। 10.7 फीसद ने कहा कि उनके मौजूदा खचों में कमी आई हैं। इस सरकार की नीतियों ने ज्यादातर बड़े कारोबारों को फायदा पहुंचाया है। ताजा सर्वे में ऐसे उत्तरदाताओं की तादाद बढ़कर दरअसल 57.7 फीसद पर पहुंच गई है। इस धारणा को खुराक शायद गौतम अदाणी और मुकेश अंबानी सरीखें उद्योगपतियों की भारी भरकम घोषणाओं से मिल रही है।
वित्त मंत्री श्रीमती निर्मला सीतारमण ने संसद में प्रस्तुत बजट 2023-24 को अमृतकाल का पहला बजट घोषित किया है जिसमें विकास का सुफल सभी क्षेत्रों और नागरिकों विशेषकर युवाओं, महिलाओं, किसानों, पिछड़े वर्गो, अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति तक पंहुचाने का संकल्प बताया। चालू वर्ष में आर्थिक विकास दर के 7 प्रतिशत का अनुमान लगाया गया है। कोविड-19 के कारण अर्थव्यवस्था पर पड़े प्रभाव के बावजूद उज्ज्वल दिशा की ओर बढ़ना बताया। लक्षित लाभ को सुलभ करने के लिए अनेक योजनाओं पर तेजी से कार्य करने के साथ समावेशी अर्थव्यवस्था, आर्थिक सुस्थिरता का लाभ अंतिम व्यक्ति तक पंहुचाने का प्रयास बताया। रोजगार सृजन में तेजी लाने का वायदा किया है।
बजट में कहीं भी बेरोजगारी समाप्त करने अथवा कम करने का उल्लेख नहीं है। जिस कदर बेरोजगारी बढ़रही है, उसके संबंध में बजट में स्पष्टतया मौन धारण रखा गया है। देश में बढ़ रही मंहगाई एवं बढ़ती असमानता की रोकथाम का जिक्र नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि बेरोजगारी, मंहगाई और असमानता जैसे शब्द सम्मिलित ही नहीं किये गये। क्रूड आयल की कीमतें विश्वस्तर पर लगातार कम हो रही हैं परन्तु पेट्रोल, डीजल की कीमतों में कमी करने का कोई संकेत नहीं है। बजट पूरी तरह पूंजीवादी समाज को लेकर बना है। किसानों की ऋण माफी, न्यूनतम समर्थन मूल्य बे संबंध में कोई उल्लेख नहीं है जबकि बड़े पूंजीपतियों के लाखों करोड़ों रूपए का ऋण सरकार ने माफ किया है।
व्यक्तिगत आयकर में छूट की सीमा नई कर व्यवस्था में 5 लाख से बढ़ाकर 7 लाख की गई है परन्तु पुरानी कर व्यवस्था में स्लेब में कोई बदलाव नहीं है। नई कर व्यवस्था में 6 आयकर स्लेब को घटाकर 5 किया गया है। 3 लाख तक शून्य, 3 से 6 लाख तक 5 प्रतिशत, 6 से 9 लाख तक 10 प्रतिशत, 9 से 12 लाख तक 15 प्रतिशत, 12 से 15 लाख तक 20 प्रतिशत और 15 लाख से उपर 30 प्रतिशत का स्लेब रखा गया है। इसके साथ ही उच्चतम कर दर 42.74 प्रतिशत में नई कर व्यवस्था में उच्चतम अधिकार को 37 प्रतिशत से घटाकर 25 प्रतिशत करने से उच्चतम कर दर 42.74 प्रतिशत से घटकर 39 प्रतिशत की गई है। 3000 कानूनी प्रावधानों को अपराध की श्रेणी से बाहर किया गया है।
पिछड़ी जातियों के कल्याण की घोषणा की गई है परन्तु पिछड़ी जातियों को विभिन्न रोजगार प्रारम्भ करने के लिए प्रदान किये जाने वाले ऋण राशि में कोई बढ़ोतरी नहीं की गई है। पिछड़ी जाति के छात्रों को दी जाने वाली स्कॉलरशिप वस्तुतः बन्द कर दी गई है। अल्पसंख्यक वर्ग, मजदूर वर्ग व अत्यधिक पिछड़े वर्ग के कल्याण के लिए कोई विशेष राशि या योजनाओं का उल्लेख नहीं है।
राजस्थान को इस बजट से निराशा हुई है। पूर्वी राजस्थान की पेयजल योजना ईआरसीपी को राष्ट्रीय परियोजना घोषित नहीं किया गया न ही उसके लिए कोई विशेष सहायता का प्रावधान किया गया है जबकि प्रधानमंत्री चुनावों के समय उसके बारे में वायदा कर चुके थे। राजस्थान में धौलपुर-सरमथुरा-गंगापुर सिटी वाया करौली रेल परियोजना गत 8 सालों से वस्तुतः रूकी पड़ी है।
पूर्वी राजस्थान के डांग क्षेत्र की लाइफ लाइन होते हुए भी राजनैतिक कारणों से इसको महत्व एवं प्राथमिकता नहीं दी गई इससे पूर्वी राजस्थान का विकास दु्रत गति से नहीं हो सकेगा। आदिवासियों के विकास योजनाओं को भी महत्व नहीं दिया गया। राज्यों में जातिगत जनगणना नहीं होने से सामाजिक, आर्थिक असमानता रोकने और वास्तविक अत्यधिक पिछड़ों की मदद करने की कोई इच्छाशक्ति दिखाई नहीं देती। अमृतकाल के इस बजट में मंहगाई, बेरोजगारी, असमानता, किसान, मजदूर और अल्पसंख्यकों के कल्याण के लिए वस्तुतः कुछ नहीं कहा गया है और न ही विशेष प्रयास इंगित किये गये है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)