साम्प्रदायिक मानसिकता के विरोधी थे सुभाष चंद्र बॉस

 23 जनवरी जन्मदिवस के अवसर पर

लेखक : डॉ. सत्यनारायण सिंह

(लेखक रिटायर्ड आई. ए. एस. अधिकारी हैं)

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भारत का स्वतंत्रता आन्दोलन, जिसे राष्ट्रीय आन्दोलन के रूप में जाना जाता है धर्म निरपेक्षता पर आधारित था इस आन्दोलन के नेताओं ने हर तरह की साम्प्रदयिकता का विरोध किया। रविन्द्रनाथ टैगोर, महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, सरदार पटेल सभी प्रमुख नेताओं ने साम्प्रदायिक भावनाओं के उभार के बावजूद, साम्प्रदायिकता का मुकाबला किया। 

सुभाषचन्द्र बोस साम्प्रदायिकता के कट्टर विरोधी थे और इसे ऐसा सिद्धान्त मानते थे जिसका विरोध किया जाना चाहिए। 1940 में उन्होंने लिखा ”साम्प्रदायकता तभी खत्म हो सकती है जब साम्प्रदायिक मानसिकता खत्म हो, इसे खत्म करने की जिम्मेदारी सभी भारतीयों चाहे वे मुस्लिम, सिख, हिन्दु या ईसाई हो सभी की है, जिन्होंने साम्प्रदायिक भावनाओं से उपर उठकर वास्तविक राष्ट्रवादी मानसिकता विकसित करली है। 

स्वतंत्रता आन्दोलन में साम्प्रदायिक दलों की भूमिका की चर्चा करते हुए सुभाष ने अपनी आत्मकथा ”द इन्डियन स्ट्रगल“ में लिखा है ”साम्प्रदायिक दलों की दिलचस्पी अपने बीच की विभाजन रेखाओं को बनाए रखने तथा अपने अधिकारिक मंचो से एक दूसरे के ऊपर कीचड़ उछालते रहने में अधिक है“। ”बाटो और राज करों“ की समय की कसौटी पर कसी हुई नीति को अपनाकर अंग्रेज सरकार हमेशा ही इन दलो को प्रोत्साहित करती रही है, केवल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को लांछित करने के लक्ष्य को सामने रखकर जिससे कि उनकी प्रभावी पकड़ लगातार कमजोर हो, ”उन्होंने यह भी रेखाकिंत किया कि साम्प्रदायिक दलों को भारत के राजनैतिक स्वतंत्रता के संघर्ष से कुछ लेना देना नहीं है“। 

1928 में सुभाषचन्द्र बोस, जवाहरलाल नेहरू, तथा अन्य लोगों द्वारा गठित ”इन्डिपेंडेंस ऑफ इन्डियालीग“ के नियम के मुताबित किसी साम्प्रदायिक संगठन का कोई सदस्य लीग का सदस्य नहीं बन सकता था, इसी तरह जब सुभाष राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष थे संगठन ने अपने संविधान में एक धारा जोड़ी थी जिसके मुताबित हिन्दू महासभा या मुस्लिम लीग का कोई सदस्य कांग्रेस की निर्वाचित समिति का सदस्य नहीं बन सकता था। सुभाष व नेहरू का कथन था धर्म निरपेक्षता का मतलब धर्म और आस्था की स्वतंत्रता है, अर्थात सभी धर्मा की स्वतंत्रता। साम्प्रदायिकता के विरूद्ध सख्त नजरीये के कारण साम्प्रदायिकतावादी आज भी उनके प्रति बैर व घृणा रखतें है।

सुभाष राष्ट्रीय आन्दोलन में एकता की अवधारणा के लिए पूरी तरह प्रतिबद्ध थे। 1938 के कांग्रेस के हरिपुरा अधिवेशन में अपने सुप्रसिद्ध अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने कहा था ”इस साझा स्वतंत्रता में एकता और परस्पर सहयोग का लक्ष्य भारतीय जीवन की समृद्ध और सांस्कृतिक विविधता का उत्पीड़न नहीं होना चाहिए, बल्कि इसे संभालकर रखना चाहिए ताकि सभी व्यक्तियों और समूहों को बिना किसी बाधा के अपनी क्षमता और रूचियों के अनुरूप आगे बढ़ने का अवसर और स्वतंत्रता मिल सकें।“

सुभाष ने कहा ”साम्प्रदायिकता तभी खत्म हो सकती है जब साम्प्रदायिक मानसिकता खत्म हो, इसलिए हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई सभी को राष्ट्रवादी मानसिकता विकसित करनी चाहिए।“ साम्प्रदायिकता कोई विगत की विरासत, मध्ययुग का अवशेष नहीं है, यह आधुनिक विचारधारा है और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को सम्मिलित कर राजनैतिक घोल प्रस्तुत किया जा रहा है। साम्प्रदायिकता एक आधुनिक परिघटना है जिसका आरम्भ ब्रिटिश उपनिवेशी प्रभाव और भारतीय समाज के कुछ समुहों की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप हुआ। साम्प्रदायिकता एक आधुनिक विचारधारा है जिसने हिन्दुओं और मुसलमानों की पारम्परिक चेतना को अलग-अलग समूह में आधुनिक राजनीति का आधार बनाने का प्रयास किया है। 

साम्प्रदायिकतावादी ताकतें सुभाषचन्द्र की तरह भगतसिंह व क्रान्तिकारीयों के नाम व प्रसिद्धि का इस्तैमाल करते है जबकी साम्राज्यवाद विरोधी भारत के संघर्ष में साम्प्रदायिकता के खतरे को समझते थे उन्होंने अपने साथियों को कहा था भारतीय लोगों के लिए साम्प्रदायिकता उसी तरह शत्रु है जैसा कि उपनिवेशवाद“। उनके द्वारा गठित ”नौजवान भारत सभा“ का मकसद पंजाब में साम्प्रदायिक ताकतों से लड़ना और राजनीति को धार्मिक भावनाओं से मुक्त करना था। 

उन्होंने अकाली पार्टी को नौजवान सभा में शामिल कराने का विरोध किया, सभा के नियमों सम्मिलित किया। ”साम्प्रदायिक विचार फैलाने वाले साम्प्रदायिक संगठनों या दलों से कोई सम्बन्ध नहीं होगा, तथा लोगों में सहिष्णुता की भावना का प्रचार तथा धर्म को व्यक्ति की निजी आस्था का मामला होगा“ अन्य क्रान्तिकारीयों ने तथा गदर पार्टी ने धर्म निरपेक्षता को अपनाया, धर्म को राजनीति से अलग रखा और कह ”हम सिख या पंजाबी नहीं है हमारा धर्म राष्ट्र प्रेम है।“ 

कांकोरी काण्ड के शहीद रामप्रसाद बिस्मिल ने हिन्दुओं और मुस्लिमों को एक जुट होने का आग्रह किया। शहीद अश्फाक उल्ला ने कहा था ”हम अपने देशवासियों से अपील करते है ”हमारी मौत का जरा भी अफसोस हो तो हिन्दु-मुसलिम एकता कायम करनी चाहिए।“ एकता ही हमारी स्मृति की तरह काम करेगी।“ 1927 मे अश्फाक उल्ला खान ने अपील की थी ”भारतवासियों चाहे आप किसी धर्म या सम्प्रदाय से सम्बन्धित हो अपने देश के लिए एक हो जाओ, आपस में मत लड़ो, देश को आजाद कराने के लिए अंग्रेज शासको के खिलाफ एक हो जाओं।“

सुभाष की तरह सरदार पटेल भी धर्म निरपेक्षता के कट्टर समर्थक व साम्प्रदायिकता के घोर विरोधी थे। धर्म निरपेक्षता के प्रति अपनी प्रतिबद्धता और साम्प्रदायिकता व साम्प्रदायिक संगठनों के विरूद्ध अपनी भावना व्यक्त करते थे उन्होंने अल्पसंख्यकों की सुरक्षा को प्राथमिक जिम्मेदारी कहा था। जयपुर कांग्रेस अधिवेशन में कहा था ”कांग्रेस भारत को वास्तविक धर्म निरपेक्ष राज्य बनाने को प्रतिबद्ध है। 

फरवरी 1949, में हिन्दूराज की चर्चा को उन्होंने पागलपन करार दिया और कहा हरेक मुस्लिम को भारतीय अधिकार प्राप्त है। यदि हम उनके मन में इस तरह की भावना विकसित नहीं कर सकतें तो इसका मतलब है हम अपनी विरासत और देश के योग्य नहीं है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संघ चालक एम. एस. गोलवाकर ने कांग्रेस को अंग्रेजो की सुरक्षा हेतु राष्ट्रवाद के खिलाफ ’सुरक्षा वाल‘ कहा तथा कांग्रेस की धर्म निरपेक्षता के कारण उसे गैर राष्ट्रवादी करार दिया। गांधीजी की हत्या के बाद 1948 में गृहमंत्री सरदार पटेल ने आर. एस. एस. पर प्रतिबंध लगा दिया गया। 

गांधी ने 1940 में स्पष्ट कहा था ”धर्म को राजनीति से अलग रखना चाहिए, धर्म व्यक्तिगत मसला है राज्य पूरी तरह धर्म निरपेक्ष होने के लिए बाध्य है। गांधी, सुभाष बोस, नेहरू, पटेल, व सभी क्रान्तिकारीयों ने धर्म निरपेक्षता की भावना पर जोर दिया। रविन्द्रनाथ टैगोर ने कहा था ”असली चिंता की बात तो यह है कि मुसलमानों को हिन्दुओं के खिलाफ व हिन्दूओं को मुसलमानों के खिलाफ इस्तैमाल किया जाता है।“ महत्वपूर्ण यह नहीं कि उनका इस्तेमाल कौन करता है शैतान भीतर तभी घुसता है जब उसके आने का रास्ता हों। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)