लेखक : डा.सत्यनारायण सिंह
(लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी हैं)
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15 अगस्त, 1947 को आजादी मिलने के पष्चात ही देष को एक संविधान की आवश्यकता महसूस हुई। कठोर परिश्रम एवं दूरदृष्टि से संविधान का निर्माण किया गया। हमने प्रतिनिधिक संसदीय लोकतंत्र की प्रणाली अपनाई यानि प्रतिनिधिक, संसदीय एंव लोकतंत्र। स्वशासन व व्यस्क मताधिकार, आत्म निर्णय का अधिकार हमारी राजनीतिक व्यवस्था के महत्वपूर्ण तत्व है। संविधान की उद्देषिका मंे कहा गया ‘‘हम भारत के लोग दृढ संकल्प के साथ संविधान को अंगीकृत करते है अर्थात प्रभुसत्ता केवल जनता मंे निहित है। संसद के माध्यम से प्रभुसत्ता की अभिव्यक्ति होती है। प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के उद्देश्य प्रस्ताव को प्रस्तावना के रूप में स्थान दिया गया व संविधान का उद्देश्य प्रभुत्व संपन्न, लोकतंत्रात्मक, पंथ निरपेक्ष, समाजवादी गणराज्य रखा गया। संघात्मक संविधान के तहत संसदीय प्रणाली अपनाई गई।
भारतीय संविधान को विश्व के संविधानों के सर्वोत्तम लक्षणों को एकत्र कर निर्मित किया गया। मूल अधिकारों की अवधारणा अमेरिकी संविधान से, संसदीय शासन प्रणाली यू.के. से, नीति निदेशक तत्वों को आयरलेण्ड व आपात उपबन्धों को जर्मनी से, प्रशासनिक उपबन्धों को भारत शासन अधिनियम 1935 से लिया गया है।
संवैधानिक व गैर संवैधानिक आयोगों का गठन, सामाजिक-आर्थिक न्याय से जुड़े सिद्धान्तों को सुनिश्चित करने का प्रावधान किया गया व संविधान में मूल अधिकारों को उच्चतम न्यायालय के माध्यम से लागू कराने के लिए गारंटी दी गई है। संविधान की प्रस्तावना विधान मंडलों को महत्वपूर्ण शक्तियां प्रदान नहीं करती परन्तु प्रस्तावना के उस भाग को संशोधन नहीं किया जा सकता जो कि संविधान के आधारभूत ढांचे से संबंधित है।
परन्तु संविधान में मूल अधिकारों पर आवश्यकता पड़ने पर सार्वजनिक हित में निर्बंधन लगाये गये। विधान मंडल व कार्यपालिका के पथ प्रदर्शन एवं कल्याणकारी राज्य की स्थापना के लिए नीति निदेशक तत्वों का प्रावधान किया गया। निदेशक तत्वों में साधनों का न्यायोचित वितरण, नीचे तबके के लोगों का जीवनस्तर उंचा उठाना, ग्राम पंचायतों का गठन, अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा आदि को शामिल किया गया।
न्यायिक पुनर्विलोकन सिद्धान्त को प्रतिपादित किया गया। निर्वाचित राष्ट्रपति व संसदीय प्रणाली के अन्तर्गत सामाजिक और आर्थिक न्याय, सामाजिक सुरक्षा, समाज कल्याण, सभ्य समाज में धर्म एवं वैयक्तिक विधि को पृथक रखने हेतु समान सिविल संहिता, धर्म, मूल वंश, जाति, लिंग व जन्म स्थान के आधार पर नागरिकों के बीच भेदभाव प्रतिषेध्य, समानता का अधिकार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, संस्कृति एवं शिक्षा का अधिकार, समान मताधिकार, समानता का अधिकार, अस्पृश्यता का अंत, स्वतंत्रता का अधिकार, शोषण के विरूद्ध अधिकार, धार्मिक स्वतंत्रता के मूल अधिकार।
भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में कार्यपालिका एवं विधान मंडल का मिश्रण है, घनिष्ठ संबंध है, विरोध या विभाजन की गुंजाइश नहीं है। उच्चतम न्यायालय को न्यायिक व्यवस्था में सर्वोत्तम स्थान है। भारतीय संसद इतनी सर्व शक्ति संपन्न नहीं है कि उसके फैसलों का पुनर्विलोकन नहीं हो सकता। साथ ही न्यायपालिका भी इतनी सर्व शक्ति संपन्न नहीं है कि पुनर्विलोकन की कोई सीमा ही नहीं हो व सीधे कानून का निर्माण कर सके। इस मामलों में बिट्रिश व अमेरिकी न्यायपालिका से भिन्नता है।
विधि का शासन संविधान का ढांचा है जिसे नष्ट नहीं किया जा सकता। परन्तु संविधान में युक्तियक्ुत निर्बधन की अवधारणा है। पंथ निरपेक्षता संविधान का आधारभूत ढांचा है। पंथ निरपेक्षता का अर्थ राज्य के अधार्मिक हो जाने से भी नहीं है। पंथ निरपेक्षता, धार्मिक, अंतरात्मा और सांस्कृतिक अधिकार की गारंटी के साथ सभी नागरिकों में एकता ओर भाईचारे की मूल भावना है। पंथ निरपेक्षता न केवल एक लक्ष्य है बल्कि एक प्रक्रिया भी है।
मूल अधिकार लोकतंत्र के लिए जरूरी है परन्तु कर्तव्यों का आभास भी लोकतंत्र संमृद्ध और परिपक्वता की ओर बढ़े इसलिए संविधान में मूल कर्तव्यों का समावेश किया गया है। संसद कानून बनाकर मूल कर्तव्यों का उल्लंघन करने वालों के लिए दण्ड की व्यवस्था कर सकती है। संविधान में मूल अधिकारों की रक्षा के लिए लोक हितवाद की अवधारणा भी की गई है। संसद सदस्यों के लिए अर्हताएं, विधान मण्डल के विशेषाधिकार, सत्ता विकेन्द्रीयकरण, ग्रामीण व शहरी सरकार की अवधारणा, निष्पक्ष व स्वतंत्र चुनावों हेतु संवैधानिक निर्वाचन आयोग के गठन का प्रावधान है।
आजादी के बाद हमारी सबसे बड़ी सफलता यह है कि हम अपने आपको लोकतांत्रिक व्यवस्था के रूप में सुरक्षित रख पाये। शासन व्यवस्था में समस्त जन समुदाय की समान भागीदारी सुनिश्चित है। शासक वर्ग का चयन लोक शक्ति के स्पंदन से संभव है। इसे देश का उज्जवल पक्ष माना जाता है। साम्प्रदायिकता की विष वेल अभी तक लोकतांत्रिक मान्यता को आघात नहीं पहुंचा सकी। संविधान में 42 वें संशोधन से धर्मनिरपेक्ष शब्द को जोड़ा गया जिससे सांस्कृतिक दृष्टि से राज्य का आदर्श और अधिक स्पष्ट हुआ। हमारा लोकतंत्र सभी धर्मो, संस्कृतियों का सम्मान, संरक्षण, संवर्द्धन कर रहा है।
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी अपने मनोमस्तिष्क को भारतीय संदर्भ में इस प्रकार व्यवहार में लाये जिससे समस्त भारतवासियों को एकजुट एक राष्ट्र का सपना स्पष्ट हुआ। समानता व भ्रातृत्व के मूल्य को समझा गया, जाति व धर्म की संकीर्ण भावना से विमुक्त हुए।
भारतीय लोकतंत्र की सफलता ने सिद्ध कर दिया कि लोकतंत्र मात्र शासन व्यवस्था नहीं बल्कि एक जीवन प्रणाली है जिसमें नैतिकता, सहिष्णुता, समन्वय व समानता को सर्वोकृष्ट स्थान प्राप्त है। पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी के शब्दों में ‘‘लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता हमारे राष्ट्र के दो स्तंभ है।’’
संविधान निर्माताओं ने स्पष्ट रुप से कहा था कि ’’संविधान चाहे कितना ही अच्छा हो जब तक हमारे षासक वर्ग का चरित्र एवं कार्य मर्यादित, निष्ठावान, निष्पक्ष एवं संकल्पों से भरे नही होंगे, तक तक संविधान की सफलता सुनिष्चित नही की जा सकेगी।
लोकतंत्र सामाजिक, आर्थिक, समानता व धर्म निरपेक्षता के सिद्धान्त पर आधारित नहीं होगा तो वह न तो जीवित रह सकेगा और न ही प्रगति कर पायेगा। लोकतंत्र तभी सही मायने में सफल हो सकता है जब देश के सभी नागरिकों के प्रति सम्मान और समानता का भाव स्पष्ट हो।
लोकतांत्रिक प्रणाली में भारत को विकास के सभी क्षेत्रों, विज्ञान, तकनीक में असाधारण उपलब्धियां मिली। हम अविकसित से विकासशील बनते हुए विकसित राष्ट्रों की श्रेणी में आ गये परन्तु यह भी सच है कि व्यवस्था क्रान्तिकारी ढंग से नहीं बदली। मेहनतकश लोग उस स्थान को प्राप्त नहीं कर सकें जहां उन्हें अब तक पहुंच जाना चाहिए था। जातिबल, धनबल, बाहुबल व नौकरशाही अवरोध बने। मतदाता पार्टियों द्वारा चयनित उम्मीद्वारों पर ही निर्भर हो रहा है उसके पास विकल्पे नहीं है। हम विचारों से लोकतांत्रिक व धर्म निरपेक्ष नहीं बन सके। मनुष्य की समानता का बोध नहीं हुआ।
जनसंख्या तेजी से बढी, विषमता बढी, विकास का अधिकांष लाभ अमीरों व समाज के सक्षम लोागों को मिला। गरीब और अमीर की खाई बढ गई। आजादी की लम्बी अवधि के बाद भी शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार जैसी बुनियादी जरुरतों को पूरी तरह पूरा नही किया जा सका। राष्ट्रीयता की भावना में कमी आई क्षेत्रीय भावनाएं बढी। राजनैतिक दलो का आन्तरिक लोकतंत्र समाप्त हुआ और उनके राष्ट्रीयता का चरित्र कमजोर होने से राज्य दल मजबूत हो गये। प्रांतों में सत्ता हथियाने मे कामयाब हो गये। राजनैतिक अपराधीकरण के साथ क्षेत्रियता, जातियता एवं परिवारवाद भी चल निकला, सेवा सक्षमता एवं योग्यता का आधार समाप्त हो गया। लाईसेन्स परमिट राज फला फूला, षासन तंत्र कमजोर हो गया और भ्रष्टाचार इतना बढा की सभी सीमाओं को लांघ गया। जनसंख्या व भ्रष्टाचार आज सबसे बडी समस्या बन गये। धर्म निरपेक्षता का स्थान साम्प्रदायिकता ले रही है सर्वत्र असहिष्णुता बढ रही है। दलित अत्याचार,सामाजिक असमानता कायम है।
वैश्वीकरण, निजीकरण, औद्योगिकरण, उपभोक्तावाद के चक्रव्यू में फंसकर 90 के दशक में आर्थिक बदलाव हुआ जिससे देश के लगभग एक तिहाई लोगों की स्थिति बदतर हुई, असमानता बढ़ी, कृषि व लघु उद्योगों का विकास रूका। बेरोजगारी बढ़ी, कृषि में उपनिवेशवादी नीतियां जारी रही। भूमि अधिग्रहण नियम, कानून बने रहे। वर्तमान ढांचा व तौर तरीकों से गैर बराबरी को दूर करने और जाति व्यवस्था को समाप्त करना मात्र ढोंग साबित हो रहा है। सरकार की जिम्मेदारियां कम करने और उनको निजी हाथों में सौंपने की नीति चल रही है। सरकार जमीनें निजी कंपनियों को देना चाह रही है।
आबादी की रफ्तार बेलगाम बढ़ रही है जिससे एक डरावनी तस्वीर उभर रही है। 6 साल से कम आयु वर्ग के लिंगानुपात संबंधी नीतियां सही नहीं है। इस समस्या को भ्रूण हत्या या शिशु हत्या, तकनीकी ढंग से देखा जा रहा है। सामाजिक परिवर्तन व संघर्ष को चुनौती देने या बदलाव की कोई कोशिश नहीं हो रही है। खांप पंचायत जैसी संस्थाएं चल रही है, जो फतवा जारी कर रही है। दलित अत्याचार जारी है। इनके विरोध में कोई अभियान नहीं चलाया जा रहा है। देश में साक्षरता का दौर बढ़ा है परन्तु उसका स्तर जानने को कोई जहमत नहीं उठा पा रहे है। नया शिक्षित वर्ग समस्यायें ही पैदा कर रहा है। जो लोग सरकार की गुलामी करने को तैयार है, उनको अच्छी नौकरी और पुरस्कार बांटे जा रहे है। बुद्धिजीवि वर्ग भूमण्डलीकरण के हाथों बिक गया है और सामाजिक, आर्थिक नीतियों को नेतृत्व नहीं दे पा रहा है। गिरावट को रोकने का एक ही तरीका है, सीधे सपाट ढंग से आवाज उठाने वाले बुद्धिजीवि सामने आये और स्पष्टतः मजबूती से अपनी आवाज उठाये। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)