लेखक : ज्ञानेन्द्र रावत
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद हैं)
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आज उत्तराखंड का ऐतिहासिक और पौराणिक महत्व वाले जोशीमठ शहर के लोग अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रहे हैं। इसका अहम कारण विष्णुगाड पन बिजली परियोजना है जिसके चलते यहां के लोग जिंदगी और मौत के साये में जीने को मजबूर हैं। हकीकत में इसके पीछे तपोवन विष्णुगाड पन बिजली परियोजना के लिए एनटीपीसी द्वारा बनायी गयी वह सुरंग है जिसने जोशीमठ की जमीन को भीतर से पूरी तरह खोखला कर दिया है। साथ ही बाइपास हेतु बन रही सड़क ने जोशीमठ के नीचे जड़ तक जो खुदाई की गयी है उसने पूरे जोशीमठ शहर को बिलकुल नीचे तक हिलाकर रख दिया है। इसके चलते हुए भूधंसाव से त्रस्त जोशीमठ की जनता आंदोलन के लिए मजबूर है। क्योंकि वे लोग इस भीषण सर्दी के मौसम में दरारों से पटे घरों में बल्लियों के सहारे अपने घर को टिकाये रखने और कोई और ठिकाना न होने के कारण उसी हालत में घरों में रहने को मजबूर हैं जो कभी भी जरा सी जमीनी हलचल होने से ढह सकते हैं। जिनके घर बुरी तरह दरारों से पटे हैं वह सालों की मेहनत से बनाये घरों से ऊजड़ कर सड़क पर आने की स्थिति में आ गये हैं। यह तादाद दिन-ब-दिन रोज तेजी से बढ़ती ही जा रही है।
फोटोसाभार : प्रे.ट्र. |
असलियत में इसी बात की चिंता यहां के लोगों को दिन-रात सता रही है। हालात इतने खराब हैं कि यहां इन घरों के अलावा शहर के कुछ होटल भी भूधंसाव के चलते गिरने के कगार पर हैं। जबकि यहां के तकरीब 600 मकानों में तो इतनी गहरी दरारें आ चुकी हैं जिसकी वजह से यहां के लोग डर के मारे सारी रात चैन से सो भी नहीं पा रहे हैं। वे कभी भी धराशायी हो सकते हैं। वे मलबे में बदल सकते हैं। इसी भय में वे सारी रात जागकर काटने को मजबूर हैं। इस विनाश के पीछे एनटीपीसी द्वारा विष्णुगाड प्रोजेक्ट के तहत बनायी गयी वह सुरंग है जिसने जमीन को भीतर तक खोखला कर दिया है। नतीजन लोग भयग्रस्त हैं और आंदोलन पर उतारू हैं। उनका कहना है कि इस भूकंपीय जोन में आपदा की स्थिति में उनका क्या होगा। उनका पुरसा हाल कौन होगा। कहां जायेंगे हम लोग। दुख इस बात का है कि इस बाबत स्थानीय लोगों के बार-बार के अनुरोध के बावजूद सरकार और प्रशासन मौन है। जबकि यहां पुनर्वास और राहत की तत्काल बेहद जरूरत है। अन्यथा स्थिति और भयावह हो जायेगी। आपदा की स्थिति में जन-धन की जो हानि होगी, उसकी कल्पना से ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं। उस दशा में सैकड़ों गांवों का अस्तित्व ही मिट जायेगा।
दरअसल 25-30 हजार की आबादी वाला जोशीमठ आदि गुरू शंकराचार्य द्वारा स्थापित चार धार्मिक पीठों में से एक है। शंकराचार्य की गद्दी होने के कारण यहीं से बदरीनाथ यात्रा की सारी औपचारिकताएं पूरी होती हैं। यही नहीं हेमकुंड साहिब की यात्रा भी यहीं से नियंत्रित होती है। फूलों की घाटी और नंदादेवी वायोस्फीयर रिजर्व बेस भी यहीं है और सबसे महत्वपूर्ण यह है कि नीती-माल दर्जे व वाडा़ होती पठार पर चीनी घुसपैठ पर नजर रखी जाती है। यहां गढ़वाल स्काउट्स, 9 माउंटेन ब्रिगेड का मुख्यालय, माउण्टेनिंग ट्रेनिंग सेंटर, भारत-तिब्बत सीमा पुलिस की बटालियन और सेना की ब्रिगेड मुख्यालय भी है। इसलिए सामरिक नजरिये से जोशीमठ काफी महत्वपूर्ण और संवेदनशील है। इस दृष्टि से जोशीमठ की रक्षा का सवाल काफी अहम है जिसे नकारा नहीं जा सकता। इसलिए इसकी उपेक्षा किसी भी कीमत पर बर्दाश्त नहीं की जा सकती वह चाहे स्थानीय प्रशासन की ओर से हो या सरकार के स्तर पर।
देखा जाये तो 1975 के आसपास जोशीमठ एक छोटा सा कस्बा होता था जो आज 25-30 हजार आबादी वाला एक शहर हो गया है। इस बारे में भूगर्भ विज्ञानी और उत्तराखंड अंतरिक्ष विज्ञान केन्द्र के निदेशक प्रो०एम पी एस विष्ट का कहना है कि में 1985 से ही चेता रहा हूं कि यहां पर भवन निर्माण और यहां की बसावट का एक मानक होना चाहिए,एक निर्धारित पैटर्न होना चाहिए लेकिन उसकी पूरी तरह से अनदेखी की गयी, उसी का दुष्परिणाम आज हमारे सामने है। सच तो यह है कि आज जोशीमठ की जो मौजूदा स्थिति है, वह बड़ी आपदा का संकेत है। 1970 के मुकाबले इस बार बेहद डरावना हालात हैं। हिमालय का यह हिस्सा ऐसा है जो अन्यत्र कहीं दिखाई नहीं देता। इस धार्मिक, आध्यात्मिक, ऐतिहासिक, सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण एवं विशिष्टता से परिपूर्ण इस इलाके को सुरक्षित रखना बेहद जरूरी है।
गौरतलब है कि यह शहर भूस्खलन क्षेत्र के ऊपर बसा है।यहां की पूरी बसावट अनियोजित है। जिसकी जहां मर्जी हुयी, वहीं उसने मकान बना लिया। फिर सबसे बड़ी समस्या यहां घरेलू पानी के निस्तारण की है जो सारा का सारा जमीन के अंदर जा रहा है। पन बिजली परियोजना इसका एक कारण है जरूर लेकिन इस कारण को भी नकारा नहीं जा सकता। अक्सर भूस्खलन के लिए भारी बारिश या भूकंप को मुख्य कारण माना जाता है लेकिन इस तथ्य को भी नकारा नहीं जा सकता कि बारिश के मौसम में या जब जब धीरे-धीरे बारिश होती है तो वहां की मिट्टी गीली होकर खिसकने लगती है जो भूधंसाव का कारण बनती है। 1976 में गढ़वाल के तत्कालीन कमिश्नर श्री महेश चंद्र मिश्रा द्वारा गठित समिति जिसमें सिंचाई, पी डब्ल्यू डी के इंजीनियर, रुड़की इंजीनियरिंग कालेज के भूगर्भ विज्ञानी व पर्यावरणविद श्री चंडी प्रसाद भट्ट शामिल थे, ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि जोशीमठ भूस्खलन। प्रभावित क्षेत्र पर बसा है, इसलिये इसके आसपास किसी भी तरह का निर्माण जोखिम भरा हो सकता है। इसके साथ-साथ यह चेतावनी भी दी गयी थी कि ओली की ढलानों पर की गयी छेड़छाड़ भूस्खलन व बाढ़ की विनाश लीला की आशंका को बल प्रदान करेगी। दरअसल बांध, पन-बिजली परियोजनाएं, रेल-सड़क मार्ग भी जरूरी हैं लेकिन ऐसे निर्माण हमें वहां की परिस्थिति, पारिस्थितिकी,पर्यावरण और प्रकृति को ध्यान में रखकर करने चाहिए तभी उसके सार्थक परिणाम की आशा की जा सकती है।
भावी खतरे और सरकारी कर्मचारियों-अधिकारियों द्वारा बरती जा रही उदासीनता को देखते हुए स्थानीय लोगों में काफी रोष व्याप्त है। वे आंदोलन के लिए कमर कस चुके हैं और इसका संकेत उन्होंने जोशीमठ बचाओ संघर्ष समिति के नेताओं को भी दे दिया है। स्थानीय जनता का मानना है कि अब बहुत हो चुका। अब आंदोलन के सिवाय कोई रास्ता ही नहीं बचा है। सरकार ने हमें ऐसा करने के लिए मजबूर कर दिया है। क्योंकि हम लोग पिछले एक साल से भी ज्यादा समय से भूस्खलन और भूधंसाव की चपेट में हैं और इस बाबत अधिकारियों से कार्यवाही की मांग करते करते थक चुके हैं।
बदरीनाथ के विधायक राजेन्द्र भंडारी, नगर पालिका प्रभारी शैलेंद्र पंवार, जोशीमठ बचाओ संघर्ष समिति के संयोजक अतुल सती व सचिव कमल रतूडी़ की चिंता का सबब यही है। संघर्ष समिति के संयोजक अतुल सती, जोशीमठ नगर पालिका अध्यक्ष शैलेंद्र पनवार व समिति सचिव कमल रतूडी़ ने विगत दिनों गोपेश्वर में संवाददाताओं के सामने कहा कि ऐसी स्थिति में जिला प्रशासन ऊपर के आदेशों की प्रतीक्षा कर रहा है। समझ नहीं आ रहा कि क्या प्रशासन उस समय के इंतजार में है जब आपदा आये, उस स्थिति में वह हरकत में आयेगा और तब राहत कार्य के नामपर वह अपनी जेबें भरने का काम करेगा। असलियत में हमारे देश की यही तो विडम्बना है। अब तो यह संघर्ष तब तक जारी रहेगा जब तक कि जोशीमठ की जनता को न्याय नहीं मिल जाता और प्रभावित लोगों के पुनर्वास की व्यवस्था नहीं हो जाती। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)