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टोंक। 24 दिसंबर को टोंक का 1077 वां स्थापना दिवस है। टोंक स्थापना महोत्सव समिति की ओर से टोंक के प्राचीन गढ़ में पूजा अर्चना के बाद भव्य शोभा यात्रा और तीन दिवसीय कार्यक्रमों का आग़ाज़ होगा।
टोंक के हाक़िम, नवाब जितने सरल और हमदर्द रहे हैं टोंक की जनता भी अपने शहर से मोहब्बत करने वाली रही है। नवाब इब्राहिम अली खां बहादुर 'खलील' के दौर की बात है। एक दफ़ा एक गाँव ने सामूहिक तौर पर लगान देना बंद कर दिया। बगावत की आशंका देख नवाब ने लगान वसूल करने फ़ौज भेज दी। एक बाग में फोजों के खेमे लग गए। इत्तिफ़ाक़ से एक लड़की वहाँ कुए से पानी भरने आ गई। जब उसे पता चला की फोज़ टोंक से आई है तो उसने एक सिपाही से पूछ लिया - क्या हमारे काका भी आये हैं? सिपाही ने काका का नाम पूछा ही था कि सेनापति वहाँ आ गए। उन्होंने जानना चाहा, दोनों में क्या बात चीत हो रही है। सिपाही कुछ बताता उससे पहले लड़की बोल पड़ी - शायद आपने मुझे पहचाना नहीं, मैं आपके ही नोशे मियां के पुल पर रहने वाले फ़लां आदमी की बेटी हूँ। इस गाँव में ब्याही हूँ। सेनापति पहचान गए। उन्होंने खुश होकर उसके हाल चाल जानकर और बड़े प्रेम से रुखसत किया। पर खुद उलझन में पड़ गए। सोचने लगे, मोहल्ले की बिटिया गाँव में ब्याही है। अगर लड़ाई होती है तो मुमकिन है इसका पति मारा जाए। हो सकता है यह खुद भी। यह तो मैं नहीं कर सकता। पर शाही फरमान का क्या करूँ? आखिरकार सेनापति ने नवाब साहब को कहलवा दिया, आप जो सज़ा दे मैं भुगतने को तैयार हूँ पर इस गाँव पर हमला मुझसे नहीं होगा।
नवाब को जब पूरा मामला पता चला तो उन्होंने जवाब भिजवाया - 'वो लड़की तुम्हारी ही नहीं हमारी भी भतीजी है। तुम फोज को लेकर वापस चले आओ। इस रिश्ते की यादगार में हम उस गाँव का लगान माफ करते हैं। तो इस तरह के हमदर्द और ग़मगुसार टोंक के नवाब रहे हैं।
टोंक के लोगों की सादगी पर भी बहुत कुछ लिखा जा सकता है। इतनी मासूमियत और दिलकश अंदाज कहीं नहीं मिलेगा। टोंक के लोग दुनिया में कहीं भी चले गए हों, टोंक को नहीं भूल सके। टोंक के मशहूर रोमांसवादी शायर अख्तर शिरानी का पूरा काव्य संग्रह अपनी प्रेयसी सलमा के इश्क़ को समर्पित है मगर तब भी वे टोंक से अपनी मोहब्बत को नहीं भूले। पाकिस्तान में बैठकर वे टोंक के पनघट को याद करते हैं। टोंक की पगडंडियों को याद करते हैं और बार-बार अपनी नज़्मों में पूछ बैठते हैं कि, किस हाल में है मेरा याराने वतन...!
इसी तरह पार्टिशन के बाद टोंक छोड़कर कराची जाने वाले इबादुर्रहमान अपनी किताब में लिखते हैं कि उनको टोंक में अपने घर से ज्यादा वो नीम याद आता है जिसको आंगन में सर झुकाए अकेला छोड़ आये थे। कहते हैं कि, मकान तो मुझे यहाँ मिल गया, लेकिन सरकार नीम कहाँ से लायेगी, जिसकी छाँव में नींद की परियां झूला झूलती थी, जिसके नीचे एक बच्चे ने निंबोलियों की दुकान लगाई थी, जहाँ बहने गुड्डा- गुड़ियाँ खेली, शादी की शहनाई बजी, बाप का जनाजा रखा गया, फिर उसी बूढे नीम की सींक उदास माँ ने कानों में पहन ली।
हक़ीक़त में टोंक अपनी गंगा जमुनी का वो अज़ीम शीशमहल है जिसमें देश की सभी जातियां खुद को देख सकती है और जहां उर्दू उस लड़की की तरह है जो अपने सलोने हुस्न और मिठास भरे लहजे की बदौलत अब भी मकबूल ओ महबूब बनी हुई है। लगभग चार सौ बरस पुरानी यह लड़की, हिंदी तहज़ीब का नमक लेकर और फारसी तगज़्जुल का लिबास पहनकर इस शहर की गली गली में घूम रही है। और इस मिली जुली भाषा का कमाल यह है कि जब यह टोंक की आम अवाम के मुँह से निकलती है तो इसे सुनते ही दिलों में नाज़ुकी तैर जाती है और हवा में ख़ुशबू। तहज़ीब, बांकपन और दिलों में उतर जाने की अदा सिर्फ यहाँ के लोगों की बातों में है। 24 दिसंबर 946 इस्वी को इस शहर की बुनियाद रखने वाले हाकिम रामसिंह ने सोचा भी नही होगा कि अपनी तहजीब, माहौल, सभ्यता और अपनी अनूठी मिली जुली संस्कृति से पूरी दुनिया में टोंक अपनी अलग सी पहचान बना लेगा।
हक़ीक़त में, टोंक के लोगों के लिए फ़ख़्र की बात है कि वो बनास के समीप बसे उस अजीम तरीन शहर के नागरिक हैं जिस बनास में कभी बेलों के गज़रे, लू में पके हुए खरबूजे, ख़स की पांखियाँ, नमीं, सौंधे छिड़काव से हवाएँ दीवानी हो जाती और रात चाँद का झूमर उतार देती थी। बनास का यह जादू अब बेशक नही रह गया हो पर लोगों के दिलों से इसका पानी अब तक जुदा नही हुआ।
इस शहर की जाने कितनी कहानियां हैं, जाने कितने किस्से हैं, जाने कितने फसाने हैं लेकिन हर एक किस्सा हर एक अफसाना टोंक के लोगों की भरपूर मोहब्बत से महक रहा है और यही मोहब्बत इस बार के टोंक महोत्सव में दिखाई देगी।
इस अवसर पर टोंक स्थापना महोत्सव समिति के अध्यक्ष सुजीत कुमार सिंहल ने सभी शहरवासियों से कल से सभी कार्यक्रमों में साथ रहने का आव्हान किया है।