लेखक : डा. सत्यनारायण सिंह
(लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी है )
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आजकल अनेक स्थानों पर वृद्धजनों पर अत्याचार बढ़ रहे है, लूट-खसौट, मारपीट की घटनायें बढ़ रही हे। ढलती उम्र में बीमारी की रोकथाम व चिकित्सा के लिए विशेष प्रबंध नहीं है, स्थिति चिंताजनक बनती जा रही है, विशेषकर जहां स़्त्री-पुरूष अकेले किसी निजी छोटे मकान या फ्लेट में रहते है। उच्चतम न्यायालय ने अपने एक अहम फैसले में कहा है कि स्वतंत्र रहने की इच्छुक युवा पत्नि यदि अपने पति पर प्रभाव डाल कि मां-बाप से पृथक रहे हो पति ऐसी पत्नि से डायवोर्स प्राप्त करने का अधिकारी है।
वैश्वीकरण, शहरीकरण एवं व्यक्तिवाद के बढ़ते इस दौर में परिवार टूट रहे हैं। बुजुर्ग, बच्चों व महिलाओं की हत्या, बलात्कार, चोरी आदि की घटनाओं में बढ़ोतरी हुई है। टूटते सांस्कृतिक परिवेश एवं परिवार से दूर रहने की विवशता से हमारे बुजुर्ग जिंदगी की ढलती छांव में अकेलापन महसूस करते है। ढलती उम्र के साथ व्यक्ति शारीरिक बीमारियों के साथ होने वाली मानसिक बीमारियों से कष्ट महसूस करता है। वह स्वयं को समाज व परिवार से कटा हुआ महसूस करने लगता है। रिटायरमेंट के बाद पेन्शनर्स जिन्दगी के बदले हुए स्वरूप से घबराकर अकेलापन महसूस कर अवसाद की ओर अग्रसर होने लगते है। सुनने की शक्ति कम होने से शंकालु बन जाते है। असुरक्षा की भावना भी बलवती होने लगती है।
हमारे देश में वृद्ध लोगों के सुखी जीवन के संबंध में कोई दूरगामी एवं स्पष्ट नीति नहीं है। विदेशों में अनेक संस्थाऐं है, जो बुजुर्गो के लिए काम धंधे ढूंढती है, सामाजिक, शैक्षणिक आदि संस्थानों से उनको जोड़ने में मदद करती है। रिटायर्ड आदमी व चृद्ध व्यक्ति को टैक्स नहीं देना पड़ता। पेंशन के अलावा सामाजिक रिक्योरिटी है। म्यूचअल फंड आदि से भी उनको धनराशि मिलती हे। परिवहन, चिकित्सा, होटल आदि में विशेष छूट मिलती है। वृद्धजनों को त्यौहार के अवसर पर एवं राष्ट्रीय दिवस के अवसरों पर खरीद में भी विभिन्न प्रतिष्ठानों से छूट व सुविधा मिलती है। अमेरिका में 50 वर्ष से उपर के लोगों का इंश्योरेंस और भ्रमण में भी छूट मिलती है। वृद्धजन वृद्धाश्रम में अधिक सुविधा मिलने के कारण बच्चों के साथ रहने की अपेक्षा वृद्धाश्रम में रहते है।
सभी के लिए सामाजिक सुरक्षा एवं पेंशन की सुविधा है। बुजुर्ग पार्ट टाईम कार्य भी करते है। उनको चिकित्सा सुविधा, आर्थिक सुविधा भी उपलब्ध कराई जाती है। क्रोनिक बीमारियों का विशेष इलाज व चेरिटेबल ट्रस्ट/होम व्यवस्था करते है।
यदि बुजुर्ग अपनी सोच में बदलाव लाये, अपना समय परिवार में रहते हुए सुखी रहना चाहे तो उनको अपनी मानसिकता में थोड़ा बदलाव लाने की आवश्यकता है। वे ढलती उम्र में भी सक्रिय रह सकते है। सामाजिक सेवाओं में पार्ट टाईम कार्य कर सकते है। नई पीढ़ी की आशाएं आजीविका व जीवन दर्शन बदल गया है। इसलिए सोच में अंतर लाने की आवश्यकता है। यदि परिवार की जिम्मेदारी बच्चों पर छोड़कर आवश्यकतानुसार सलाह दे, अपने अधिकार बंधनों को कुछ ढीला करें और आवश्यकतानुसार सक्रिय रहते हुए योगदान करें तो जिम्मेदारी से मुक्त रहते हुए सुखी जीवन व्यतीत कर सकते है। बुजुर्ग यदि अपने बच्चों के साथ, परिवार के साथ अथवा अकेले रहते हुए सामाजिक सरोकारों को अपनाये तो उनको कष्ट के बजाय संतोष प्राप्त होगा।
ढलती उम्र के व्यक्ति को खान-पान, रहन-सहन, सोच विचार आदि में बदलाव तो लाना ही होगा। संयुक्त परिवार व्यवस्था अब कमजोर हो रही है, ऐसे में वे अपनी महत्ता की कमी को महसूस नहीं करें परिवार के सदस्य यदि स्वावलम्बी हो गये है तो बुजुर्ग को परिवार के एक सहायक की तरह आवश्यकतानुसार अपनी जिम्मेदारी निभानी है, तो उन्हें कोई कठिनाई नहीं होती। नगर में अनेक दिवस, त्यौहार आदि मनाये जाते है। संगी साथियों के साथ वृद्धजन उनमें भाग ले सकते है। यह सही है कि महानगरों में वृद्धों की जितनी हत्याऐं हुई है उनमें अधिकतर रिश्तेदार, नौकर नौकरानियां, जान पहचान वाले लोगों की अधिक भूमिका रही है। फ्लेट में रहने वाले बुजुर्ग व बच्चों की स्थिति अधिक गंभीर रहती है। उनको इन व्यवधानों से बचने के लिए सजग तो रहना ही होगा। परिवार में रहकर यदि बुजुर्ग छोटे बच्चों की देखभाल करें, उनको पढ़ाये, खाली समय में उनकी देखभाल करें तो उपयुक्त होगा।
बुजुर्ग यदि अपनी सामाजिक जिम्मेदारी को महसूस करते हुए दलित, पिछड़े, गरीब, महिलाओं आदि को पढ़ाने, उनके जीवन स्तर को सुधारने, सामाजिक व व्यक्तिगत बुराईयों को दूर करने में योगदान करने के साथ-साथ निराशा से बाहर निकलकर शिक्षा व सामाजिक क्षेत्र से जुड़ जाये तो स्वयं के साथ-साथ समाज व देश का भी भला हो सकता है। वे महसूस करें राजकीय सेवा से सेवानिवृत हुए हैं, जिंदगी से नहीं। वे रिटायर हो गये है परन्तु टायर्ड नहीं है। हम यदि बोझ बनने के बजाय स्वयं सक्रिय रहकर सृजनात्मक एवं रचनात्मक कामों से जुड़ जाये तो यह समय अधिक शांतिपूर्ण व सुखदायक होगा क्योंकि जिम्मेदारी की टेंशन से मुक्त रहकर अपनी प्रतिभा से समाज व व्यवस्था में बदलाव लाया जा सकता है।
वास्तव में यदि व्यक्ति परिवार व समाज के लिए उपयोगी सिद्ध होता है तो उसे कहीं कोई दिक्कत नहीं आ सकती परन्तु अनावश्यक आधिपत्य व अधिकार जमाने से स्थिति गड़बड़ा जाती है। यदि हम अपने स्वास्थ्य को ठीक रखे तो बुढ़ापा बोझ महसूस नहीं होगा। पढ़े लिखे लोग सामाजिक बुराईयों के संबंध में आयोजित गोष्ठियों, संगोष्ठियों व सभाओं में भाग नहीं लेते। क्यों नहीं खेलकूद विशेषकर इंडोर गेम्स में भाग नहीं लेते? अखबार, मैगजीन, टी.वी., रेडियो आदि को पढ़कर/सुनकर व सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भाग नहीं लेते, अपने आपको चुस्त दुरूस्त व व्यस्त रखते।
दुर्भाग्य से इस देश में बुजुर्गो के प्रति कोई स्पष्ट नीति नहीं है और उनकी श्रम शक्ति का लाभ सरकार व समाज को नहीं मिल पा रहा है। शहरी क्षेत्र में संपन्नता, अधिकार व जिम्मेदारी की लड़ाई है परन्तु ग्रामीण क्षेत्र में बुजुर्गो को बीमारी, गरीबी व कमजोरी से लड़ना होता है। हमारे देश में ऐसी संस्थाऐं भारत सरकार से सहायता प्राप्त कर केवल शहरी क्षेत्र के बुजुर्गो पर अधिक ध्यान देती है, ग्रामीण क्षेत्रों में यह संस्थाऐं न तो पहुंचना चाहती है और न ही पहुंचने का प्रयास करती है। वृद्धजनों के लिए पृथक चिकित्सकीय व मजबूत सुरक्षा व्यवस्था हो तो स्थिति बेहतर सिद्ध हो सकती है।
ग्रामीण क्षेत्र में जीवन श्रम पर आधारित होता है और परिस्थितियों के कारण जब बुजुर्ग श्रम नहीं कर पाता तो, उसकी स्थिति बिगडने लगती है। यह भी सही है कि संवेदनहीन होती नौकरशाही व हमारा राजनैतिक नेतृत्व उनकी जरूरतों को पूरी तरह महसूस नहीं करता परन्तु यदि युवावस्था से ही लोग अपनी धनराशि, अपनी पेंशन, अपने आय के स्रोतों को संभाल कर रखें, अपने जमीन आदि के अधिकार को संभाल कर रखे तो, कठिनाईयां कम हो सकती है।
मुख्य बात यह है कि व्यक्ति को अपनी स्थिति व परिस्थितियों को समझना होगा और उसके अनुसार बदलकर चलना होगा। यदि हमारी सोच रचनात्मक और सृजनात्मक है और हम हमारे अतीत से उपर उठकर अहं को छोड़कर समाज व परिवार के प्रति केवल अपनी जिम्मेदारी महसूस कर कार्य करते है तो बुढ़ापा बोझ नहीं बल्कि कुछ कर गुजरने का अवसर है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)