जगन मोहन रेड्डी आजीवन पार्टी अध्यक्ष नहीं बन सकते

लेखक : लोकपाल सेठी

(वरिष्ठ पत्रकार, लेखक एवं राजनीतिक विश्लेषक)

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नियम कानूनों के अनुसार देश के हर राजनैतिक दल को  भारतीय चुनाव आयोग के पास अपना पंजीकरण करवाना पड़ता है जो बाद में जाकर संबधित दल को मान्यता देने का आधार बनता है। प्रावधानों के अनुसार, पंजीकृत और मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों को अपनी अपनी पार्टी का संविधान तथा चुनाव आदि में खर्च की गयी राशि का नियमित रूप से विवरण पेश करना होता है। अगर ऐसा नहीं होता तो आयोग को संबंधित दल का पंजीकरण अथवा मान्यता रद्द करने का अधिकार होता है। आयोग इस बात को पुख्ता करता है की पंजीकृत और मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल आन्तरिक लोकतान्त्रिक व्यवस्था के अनुसार नियमित रूप से चुनाव करवाएं।

आंध्र प्रदेश में सतारूढ़ दल वाईएसआर कांग्रेस ने कुछ महीने पहले अपने सम्मलेन में एक प्रस्ताव पारित कर पार्टी संविधान में संशोधन किया था। संशोधन का आशय यह था कि राज्य के मुख्यमंन्त्री और पार्टी के अध्यक्ष जगन मोहन रेड्डी अब पार्टी के आजीवन अध्यक्ष बने रहेंगे। यानि पार्टी में कभी भी अध्यक्ष पद का चुनाव नहीं होगा। नियमों के अनुसार पार्टी ने अपने-अपने संविधान में इस संशोधन पर चुनाव आयोग की सहमति का आवेदन किया। कुछ दिन पहले  आयोग ने इस पार्टी के महासचिव को सूचित किया कि राजनीतिक दलों में आन्तरिक लोकतंत्र बनाये रखने की जो प्रक्रिया और व्यवस्था है यह संशोधन  इसके विपरीत है इसलिए आयोग इस पर अपनी सहमति नहीं दे सकता। आयोग के अनुसार आन्तरिक लोकसभा को सुनिश्चित करने के लिए पार्टी के सभी  पदाधिकारियों के चुनाव निर्धारित अन्तराल के बाद होने ही चाहिए। 

अगर पिछले कुछ दशकों के राजनीतिक परिदृश्य पर नज़र डाली जाये देश में एक परिवार अथवा के व्यक्ति के नेतृत्व पर आधारित दलों की संख्या लगातार बढ़ती है जा रही है जिनमें आन्तरिक लोकतान्त्रिक व्यवस्था नहीं के बराबर है। अगर है भी तो मात्र दिखावा भर है। यह बात मोटे तौर पर छोटे और बड़े सभी  लगभग सभी दलों पर लागू होती है। हम बात शुरू करते है देश के सबसे पुराने राजनीतिक दल कांग्रेस से। सोनिया गाँधी पिछले दो दशक से भी अधिक समय से  इस पार्टी की अध्यक्ष है। बिना चुनाव करवाए वे तकनीकी रूप से पार्टी की अस्थायी अध्यक्ष बनी हुयी है। पार्टी के सभी स्तरों पर अधिकारी तथा कार्यकारणी के सदस्य नामज़द किये हुए है। यह अलग बात है कागजों पर उनका वाकायदा चुनाव दिखाया गया है इसीके चलते चुनाव आयोग इस पार्टी की  मान्यता रद्द नहीं कर सकता। सबसे से अच्छी बात यह है कि यह दल अपने खर्चो को व्योरा नियमित रूप से आयोग को देता है। 

अब बात करते है ऐसे क्षेत्रीय दलों  की जहाँ पार्टी के आन्तरिक चुनाव नहीं के बराबर होते है। पश्चिम बंगाल में ममता बैनर्जी  उस समय से पार्टी की अध्यक्ष है जब उन्होंने कांग्रेस से नाता तोडा अपने अलग दल टी एम सी की स्थापना की थी। पिछले 11 साल से वे पार्टी की अध्यक्ष के अलावा राज्य की मुख्यमंत्री भी  है। वे ये दावा कर सकती है कि उनकी पार्टी में आन्तरिक लोकतंत्र है। कागजों पर कुछ चुनाव भी होते होंगे है लेकिन यह किसी से छिपा नहीं हुआ है कि पार्टी के सभी फैसले वे ही करती है, उन्होंने अपने भतीजे को पार्टी का महासचिव बना रखा है। 

लगभग ऐसा ही तेलंगाना में है जहाँ के सी आर राज्य के मुख्यमंत्री  के अलावा अपनी पार्टी तेलंगाना राष्ट्र समिति के मुखिया भी हैं। उनके बेटे महासचिव के रूप में काम करते है। पंजाब में शिरोमणि अकाली दल पर बादल परिवार का दशकों से नियंत्रण है। पहले खुद प्रकाश सिंह बादल पार्टी के अध्यक्ष रहे फिर उन्होंने पार्टी की कमान अपने बेटे सुखबीर सिंह बादल को दे दी। इससे पहले वे लम्बे समय तक मुख्यमत्री के अलावा पार्टी के मुखिया भी रहे है। 

बिहार में  वर्तमान में साझा सरकार के हिस्सा, आरजेडी पर तीन दशकों से लालू प्रसाद यादव का नियंत्रण है। पहले वे खुद मुख्यमंत्री रहे फिर अपनी पत्नी  राबडी देवी को इस पद बैठा दिया और अब वे अपने बेटे तेजस्वी को अपनी विरासत सौंपने की तैयारी में लगे है। 

देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में कभी सत्ता में रही समाजवादी पार्टी में भ तकरीबन यही स्थिति है। पहले मुलायम सिंह पार्टी और पार्टी की सरकार में सर्वेसर्वा रहे बाद में उनके बेटे अखिलेश यादव ने भी अपने आपको पार्टी का मुखिया और राज्य का मुख्यमंत्री बना लिया।

हालाँकि की कहने को सभी राजनीति वंशवाद और परिवार वाद को गलत बताते है लेकिन इससे खत्म करने के लिए कोई आगे नहीं आता। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने निजी विचार हैं)