बुजुर्ग
लेखक : नवीन जैन
(स्वतंत्र पत्रकार)
इंदौर (मध्य प्रदेश) भारत।
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लगभग तीस साल पहले मुझे उज्जैन में हर बारह साल में आयोजित होने वाले सिंहस्थ(कुंभ) मेले को रिपोर्ट करने जाना होता था। उक्त मेला अक्सर मई जून के बीच होता है। वहां की पुण्य नदी क्षिप्रा के जल में डुबकी लगाने देश विदेश से नदी के जल से कदाचित ज्यादा श्रद्धालु आते थे। एक बार लू ऐसी मुंहजोर हो गई कि शाम आते आते मैं निकला। मैंने कभी स्कूटर तेज या रैश नहीं चलाया, लेकिन उस दिन संडे होने से इन्दौरवासियों के वाहन उज्जैन की तरफ ही दौड़ रहे थे। मैं क्या करता? शहर में दाखिल होते ही मुझे स्पॉट पर जाने के लिए अपने बजाज सुपर की स्पीड बढ़ानी पड़ी। और, अचानक ब्रेक इतनी जोर से दबाना पड़ा कि ब्रेक की आवाज कुछ देर तक कानों में रेंगती रही।असल में सामने एक बुजुर्ग महिला गुस्से से भरी हुई खड़ी थी।उन्होंने अपनी जगह से शब्दों के तीर मुझ पर मारे। मालवी बोली में उन्होंने कहा इत्ती जल्दी काय के हो री है। बरात चुकी री हे कई। में जरा टेम्पा वाला से पैसा तो वापस लइ लूं।फिर उन्होंने बचे सिक्के साड़ी की गांठ में बांधे, और आराम से उस पार चली गई।
मुझे प्रदेश सरकार ने वहां की होटेल में एक कमरा भी एलॉट कर रखा था।उस रात में वहीं सोया।देर तक उक्त प्रसंग के बारे में सोचता रहा। अखबार, डॉक्टरी, सेना आदि ऐसे पेशे है जिनमें जल्दी जल्दी में भी सही और अचूक काम करने होते है। इनके आफिस में छूट गाली गुफ्तार तक चलती है। इसीलिए डायबिटीज, लगातार तनाव, और बीपी तोहफे में मिलते हैं, लेकिन उक्त बुजुर्ग महिला को आज भी मैं भगवान से ज्यादा मानता हूं, क्योंकि करीब बयालीस साल से पत्रकारिता करते करते मुझे जल्दी जल्दी में, तनाव वगेरह, तो होते हैं, लेकिन अचानक उक्त बुजुर्ग महिला का चित्र सामने आ जाता है।
सारांश यह कि जल्दी जल्दी काम करने में भी आवश्यक समय लगता ही है। इसीलिए मैं तनाव, शूगर, बीपी से बचा हूं अभी तक। आगे की राम जाने। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)