त्याग करने वाला व्यक्ति हमेशा आदरणीय होता है...

संतोष एवं संयम इच्छा पर नियन्त्रण करने का सबसे बड़ा सूत्र

लेखक : प्रोफेसर (डॉ.) सोहन राज तातेड़ 

पूर्व कुलपति सिंघानिया विश्वविद्यालय, राजस्थान

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मानव जीवन का उद्देश्य सुख की प्राप्ति करना है। सुख दो प्रकार का है एक भौतिक सुख है और दूसरा आध्यात्मिक। भौतिक सुख सांसारिक सुख है। मानव की इच्छाएं आकाश के समान अनन्त है। उनको कभी भी पूरा नहीं किया जा सकता। एक इच्छा की पूर्ति हुई दूसरी इच्छा तैयार रहती है। इच्छा की पूर्ति कभी नहीं की जा सकती। इच्छाओं पर नियन्त्रण अवश्य किया जा सकता है। इच्छा पर नियन्त्रण करने का सबसे बड़ा सूत्र है संतोष एवं संयम। कहा भी गया है- संतोषं परमं सुखं अर्थात् संतोष सबसे बड़ा सुख है। मानव को उतना ही रखने का प्रयास करना चाहिए जितने से उसके उदर की पूर्ति हो जाये। कबीरदासजी ने लिखा है- 

सांई  इतना दीजिए जामे कुटुम्ब समाय।

मैं भी भूखा न रहूं साधु न भूखा जाय।।

अर्थात् हे भगवान्! मुझे इतना दीजिए जिससे मेरे कुटुम्ब का भरण पोषण हो जाये, न तो मैं भूखा रहंू और न मेरे द्वार से कोई भूखा सज्जन लौटकर वापस जाये। दुनिया में पाप का कारण लोभ है। लोभ मंे आकर मनुष्य गलत कार्य कर बैठता है। क्रोध, मान, माया और लोभ जीवन में चार कषाय है। कषाय से दुःख की प्राप्ति होती है। पतंगा प्रकाश का लालची होता है और उसी पर प्राण त्याग देता है। रेषम का किड़ा जाल मंे बद्ध होकर मर जाता है। हिरण बंशी की आवाज का लोभी होता है और शिकारी के जाल में फंसकर प्राण गंवा देता है। इसलीए लोभ को प्राण हर लेने वाला कहा गया है। मानव की यदि बुनियादी आवश्यकताएं पूरी हो जाये तो उसे लोभ नहीं करना चाहिए। रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा और चिकित्सा मानव की बुनियादी आवश्यकता है। किन्तु जब व्यक्ति लालची हो जाता है तो उसको अनेक कष्ट झेलने पड़ते है। परिश्रम के द्वारा अर्जित धन से यदि पालन-पोषण हो जाता है तो लालच नहीं करनी चाहिए। मानव को शरीर को घुमाना चाहिए किन्तु मन को स्थिर रखना चाहिए। मन की स्थिरता से एकाग्रता आती है। कंचन कामिनी का त्याग करने से बड़े से बड़े लोग नतमस्तक हो जाते है। संन्यासी इस संसार में सब कुछ त्याग कर विचरण करता है। उसको इस संसार से कुछ नहीं चाहिये। वह संसार को ही देता है। संसार को बुराईयों को लेता है और अपने सद्उपदेश से संसार की भलाई करता है। भारत की संस्कृति भोगप्रधान नहीं बल्कि त्यागप्रधान संस्कृति है। त्यागी व्यक्ति समाज में आदरणीय होता है। तीन प्रकार की चेतना है- स्वार्थ, परार्थ, परमार्थ की चेतना। स्वार्थ की चेतना में व्यक्ति मैं और मेरा तक ही सीमित रहता है। परार्थ की चेतना में मानव दूसरे के उपकार के लिए जीवित रहता है। परार्थ की चेतना की शिक्षा प्रकृति के उपादान मानव को प्रदान करते है। वृक्ष स्वयं फल नहीं खाता बल्कि दूसरों को फल देता है। नदियां अपना पानी स्वयं न पीकर के दूसरों के लिए प्रवाहित रहती है। सूर्य अपने प्रकाश से पूरे संसार को प्रकाशित कर अज्ञान के अंधकार को दूर करता है। मानव को भी चाहिए कि वह परोपकारी बने। परोपकार एक ऐसा गुण है जिसके द्वारा मानव में परार्थ की चेतना का विकास होता है। परमार्थ की चेतना में मानव मोक्ष की इच्छा करता है। जीवन मंे चार पुरुषार्थ है- धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष। मोक्ष की चेतना ही परमार्थ की चेतना है। इस स्तर तक पहुंचते-पहुंचते सभी प्रकार के काम, क्रोध, मद, लोभ क्षीण हो जाते है। मोक्ष की साधना आत्मा की साधना है। जब व्यक्ति मंे लालच की सीमा बढ़ती है तो व्यक्ति अनैतिक साधनों से धन कमाता है। मिलावट करता है और मिलावट से लोगों की जान तक चली जाती है। खाद्य पदार्थों मंे मिलावट, दूध, मक्खन, आटा, दाल, शराब आदि में मिलावट करके लोगों के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ करता है। जुआ, सट्टेबाजी लालच का परिणाम है। इन सब कार्यों से व्यक्ति अरबपति से सड़कपति हो जाता है। महाभारत का जुआकांड इसका प्रमाण है। जीवन में साधारण रहन-सहन और उच्च विचार होना चाहिए। आज हमारे देश में पारिवारिक झगड़े होते है इसका सबसे बड़ा कारण लालच है। एक भाई अपने भाई को लालच की वजह से धोखा देता है। एक पति अपनी पत्नी को लालच के कारण धोखा देता है। धन लोलुप्ता या लालच ऐसी बुरी चीज है कि इसके चक्कर में पड़कर मानव कई बार मानवता को ताक पर रख देता है। सत्तालिप्सा, धनलोलुप्ता और पदलोलुप्ता के चलते व्यक्ति किसी भी सीमा तक गिर पड़ता है। मीरजाफर ने देशभक्ति की जगह गद्दारी का रास्ता क्यों चुना, क्योंकि वह लोभी और लालची था। अंग्रेजों ने उसे प्रलोभन देकर अपने वश में कर लिया था। युद्ध क्षेत्र में ही उसने शासक को धोखा दिया और बाद में खुद भी धोखा खाया। आज भी जीवन के हर क्षेत्र में हमें इन लोलुप तथा असंतुष्ट नायकों के आधुनिक संस्करण जगह-जगह प्राप्त होते है। ऐसे लोगों के लिए पैसा ही ईश्वर है। ऐसे लोगों के लिए कुबेर का खजाना भी यदि प्राप्त हो जाये तो भी वे संतुष्ट नहीं हो सकते। कहा गया है- जब आवे संतोष धन सब धन धूरि समान अर्थात् जब किसी को संतोषरूपी धन प्राप्त हो जाता है तो उसके लिए सारे धन धूल के समान तुच्छ हो जाते है। मानव जीवन में कामनाओं, लालसाओं का एक अटूट सिलसिला चलता ही रहता है। सबकुछ प्राप्त होने के बावजूद कुछ और भी प्राप्त करने की मायाजाल से मनुष्य मृत्यु पर्यन्त मुक्त नहीं हो पाता। अतः लालच का त्याग करके संतोष और संयम को धारण करना चाहिए। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)