राष्ट्रवाद व स्वराज के मायने डा.सत्यनारायण सिंह की नज़र में

देश प्रेम और मानव प्रेम में कोई भेद नहीं : महात्मा गाँधी 

लेखक : डा.सत्यनारायण सिंह

(लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी है)

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महात्मा गांधी के अनुसार ‘‘देश प्रेम और मानव प्रेम में कोई भेद नहीं है। राष्ट्रवादी हुए बिना कोई अन्तर्राष्ट्रवादी नहीं हो सकता परन्तु उस देश प्रेम को वर्ज्य मानता हूं जो दूसरे राष्ट्रों को तकलीफ देकर या उनका शोषण करके अपने देश को उठाना चाहते है। यूरोप के पावों में पड़ा हुआ अवनत भारत मानव जाति को आशा नहीं दे सकता। जागृत व स्वतंत्र भारत दर्द से कराहती दुनिया को शांति व सद्भाव का संदेश अवश्य होगा। राष्ट्रवाद की मेरी कल्पना, सारा देश इसलिए स्वाधीन हो कि प्रयोजन उपस्थित होने पर सारा ही देश मानव जाति की प्राण रक्षा के लिए स्वेच्छापूर्वक मृत्यु का आलिंगन करें। उसमें जाति द्वेष के लिए कोई स्थान नहीं है। राष्ट्रवाद दूसरे देशों के लिए कभी संकट का कारण नहीं हो सकता। राष्ट्र लोकशाही केन्द्र में बैठे हुए बीस आदमी नहीं चला सकते, वह तो नीचे से हर एक गांव के लोगों द्वारा चलाचा जाना चाहिए। 

गांधी ने गीता, महावीर, बुद्ध तीनों को मिलाकर आगे बढ़ने का प्रयास किया। गांधी का अहिंसा दर्शन उपनिषद की इस मान्यता पर आश्रित है कि किसी भी मानव को किसी भी मानव के विरूद्ध हिंसक आचरण का अधिकार नहीं है। अहिंसा के बल पर राष्ट्रभक्ति को जाग्रत करना और राष्ट्रवादी शक्तियों को जोड़ना गांधी का अभीष्ट था। राष्ट्रवाद के संदर्भ में गांधी ने अहिंसा को उपकरण के रूप में प्रयुक्त किया। गांधी कहते थे, आतंकवाद व साम्रात्यवादी शक्तियों का विरोध हिंसा के द्वारा नहीं होना चाहिए। शहीद भगत सिंह व सुभाषचन्द्र बोस से गांधी का विरोध भारतीयता, राष्ट्रीयता या देश भक्ति को लेकर नहीं था, वे राजनीति में साम्राजयवादियों के विरूद्ध अहिंसा का प्रयोग करना चाहते थे। 

यंग इंडिया में महात्मा गांधी ने लिखा है ‘‘स्वराज्य का अर्थ है सरकारी नियंत्रण से मुक्ति। स्वराज्य का अर्थ है देश की बहुसंख्यक जनता का शासन। स्वराज्य सभ्यता की आत्मा को अक्षुण रखना है। पूर्ण स्वराज्य से आशय है किवह जितना किसी राजा के लिए होगा उतना ही किसान के लिए, भूमिहीन खेतिहर के लिए, जितना हिन्दुओं के लिए उतना ही मुसलमानों के लिए, जितना जैन, यहूदी और सिख लोगों के लिए होगा उतना ही पारसी और इसाईयों के लिए। उसमें जाति पांति, धर्म अर्थवा दर्जे के भेदभाव के लिए कोई स्थान नहीं होगा, मेरे सपने का स्वराज्य गरीबों का स्वराज्य होगा।’’ 

महात्मा गांधी लिखते है ‘‘पूर्ण स्वराज्य की मेरी कल्पना दूसरे देशों से कोई नाता न रखने वाली स्वतंत्रता नहीं, किसी दूसरे राष्ट्र या व्यक्ति को नुकसान पंहुचाने की भावना नहीं, मेरे सपनों के स्वराज्य में जाति (रेस) या धर्म के भेदों का कोई स्थान नहीं होगा। भारतीय स्वराज्य को ज्यादा संख्या वाले समाज हिन्दुओं का राज्य होगा तो मैं उसे स्वराज्य मानने से इंकार करूंगा व विरोध करूंगा। हिन्द स्वराज्य का अर्थ सब लोगों का राज्य, न्याय का राज्य है। ग्राम स्वराज्य पूर्ण प्रजातंत्र होगा। अपनी-अपनी जरूरतों के लिए पड़ौसी पर भी निर्भर नहीं करेगा परन्तु जरूरतों के लिए परस्पर सहयोग अनिवार्य होगा। गांधी के अनुसार बाजार जो संसार बनायेगा उसमें हमेशा अमीर ज्यादा अमीर और गरीब ज्यादा गरीब होंगे आखिरी आदमी तक जिसके सुफल नहीं पंहुच सकते, ऐसा भारत न स्वराज्य वाला हो सकता है और न रहने लायक। 

यंग इंडिया में कहा है स्वराज्य का अर्थ आत्मशासन व आत्मसंयम है। अंग्रेजी शब्द ‘‘इंडिपेन्डस’’ सब प्रकार की मर्यादा से मुक्त आजादी या स्वच्छंदता का अर्थ है। स्वराज्य से तात्पर्य लोक सम्मति के अनुसार होने वाला भारतवर्ष का शासन। सच्चा स्वराज्य थोड़े लोगों के द्वारा सत्ता प्राप्त करने से नहीं है। कुछ लोगों का कथन है भारतीय स्वराज्य ज्यादा संख्या वाले समाज यानि हिन्दुओं का ही राज्य होगा, मैं अपनी सारी शक्ति लगाकर उसका विरोध करूंगा। मेरे लिए हिन्द स्वराज्य का अर्थ सब लोगों का राज्य, न्याय का राज्य है। 

स्वराज्य का अर्थ हमें सभ्य बनाना, हमारी सभ्यता को अधिक मजबूत और शुद्ध बनाना है। स्वराज्य की कल्पना, स्वस्थ व गम्भीर किस्म की स्वतंत्रता की है। विदेशी नियंत्रण से पूरी मुक्ति और पूर्ण आर्थिक स्वतंत्रता। स्वराज्य सत्य और अहिंसा के शुद्ध साधनों द्वारा ही हासिल करना है। अहिंसक स्वराज्य में न्यायपूर्ण अधिकार किसी के अन्यायपूर्ण अधिकार नहीं हो सकते। 

महात्मा गांधी ने राजनीतिक विमर्श में मितव्यता, संयम, अहिंसा, सहनशीलता, सादगी को राजनीतिक हथियार के रूप में काम में लिया। अब भारतीय राजनीति ने इन आदर्शो का परित्याग कर दिया। स्वतंत्रता आन्दोलन में उनका नारा था अच्छे शासन की तुलनामें स्वशासन उत्तम है। गांधी ने कहा था ‘‘गरीब के लिए भोजन ही अध्यात्म है। भूखे लोगों से और कुछ भी कहना व्यर्थ है, उन्हें भोजन दीतिये और वे आपको भगवान कहेंगे।’’ गांधीजी कर्म क्षय के सिद्धान्त में विश्वास करते थे, भोगवाद के विरोधी थे। गांधी ने सर्वधर्म समभाव के साथ ग्राम स्वावलंबन का स्वप्न देखा था व गांवों तक आत्मनिर्भरता, आत्मविश्वास और स्वावलंबन की भावना को सम्प्रेषित करने के बारे में सोचते थे। महिला असमानता, बाल विवाह के घोर विरोधी थे। उनके अनुसार बालिकाओं पर वैधक्य लादना पाश्विक अपराध है। गांधी पर्दा प्रथा, दहेज प्रािा और वैश्यावृति के घोर विरोधी और विधवा विवाह के समर्थक थे। उन्होंने कहा था ‘‘स्त्री के रूप में जन्म होता तो पुरूष के दंभ के विरूद्ध विद्रोह कर देता।’’

समाजवाद में समाज के सारे सदस्य बराबर है, न कोई नीच न कोई ऊंचा। समाजवादी यानि अद्वैतवाद उसमें द्वेत या भेदभाव का गुंजाइश ही नहीं। मेरे अद्वेतवाद में हिन्दु, मुस्लिम, ईसाई, पारसी सब एक हो जाते है। इसे पाने के लिए हमेशा सत्य का आचरण करना ही होगा। 

समाजवाद और साम्राज्यवाद आदि पश्चिम के सिद्धान्त जिन विचारों पर आधारित है, वे हमारे तत्संबंधी विचारों से बुनियादीतौर पर भिन्न है। हमारे समाजवाद व साम्यवाद की रचना अहिंसा के आधार पर मजदूरों, पूंजीपतियों या जमींदारों या किसानों के सहयोग के आधार पर होनी चाहिए। स्वार्थ भावना और हिंसा पशुस्वभाग के अंग है। 

साम्यवाद का मतलब है वर्ग विहीन समाज। यह वेशक उत्तम आदर्श है परन्तु जब इस आदर्श को हासिल करने के लिए हिंसा का प्रयोग करने की बात आती है, मेरा रास्ता उससे अलग हो जाता है। असमानता व ऊंच नीच की बुराई असह्य है परन्तु तलवार दिखाकर निकालना स्वीकार नहीं है। लोगों में द्वैष या वैर पैदा करने में और उसे बढ़ाने में उनका विश्वास है। राज्य सत्ता पाने पर लोगों में समानता पर अमल करायेंगे। 

मैं धनवानों द्वारा की गई मोटरों और सुविधाओं का फायदा उठाता हूं, मगर मैं उनके वश में नहीं हूूं। औद्योगीकरण का अनिवार्य परिणाम यह होगा कि ज्यों-ज्यों प्रतिस्पर्धा और बाजार की समस्याएं खड़ी होंगी, त्यों-त्यों गांवों का प्रगट या अप्रगट शोषण होगा। कुछ प्रमुख उद्योग जरूर होने चाहिए। आराम कुर्सी वाले या हिंसा वाले समाजवाद में विश्वास नहीं है। जहां बड़ी संख्या में मिलाकर काम करना है, वहां मैं राज्य की मालिकी की हिमायत करता हूं। 

वर्ग युद्ध की अनिवार्यता स्वीकार नहीं है। जमींदारों और पूंजीपतियों को अहिंसा के द्वारा हृदय परिवर्तन करना चाहता हूं। मजदूर व किसान ज्योही अपनी ताकत पहचान लेंगे, त्योही जमींदारी की बुराई या बुरापन दूर हो जायेगा। मजदूर वर्ग को अपनी स्थिति के महत्व का ज्ञान कराने की आवश्यकता है। श्रम ज्योही अपनी स्थिति का महत्व और गौरव पहचान लेगा त्योही धन को अपना उचित दर्जा मिल जायेगा। हड़ताल माली हालत के लिए की जाती है, उसमें अंतिम ध्येय के तौर पर राजनीतिक मकसद की मिलावट नहीं होनी चाहिए। गांवों के लिए रोटी ही अध्यात्म है। 

मार्टिन लूथर किंग ने कहा था ‘‘ईसा ने हमें लक्ष्य और गांधी ने राजनीति दी।’’ बापू की आत्मकथा किसी व्यक्ति की गाथा से अधिक संघर्ष की जीवंत कथा है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)