लेखक : लोकपाल सेठी
(वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और राजनितिक विश्लेषक)
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जब से बीजेपी नीत एनडीए 2014 से सत्ता में आई है तब से कुछ राजनीतिक दल, जिसमें कई क्षेत्रीय दल शामिल है, एक ऐसा मोर्चा बनाने के प्रयास में जुटे है जिसमे न तो कांग्रेस हो और ना ही बीजेपी। ऐसे दलों के नेताओं का मानना है कि देश में धीरे कांग्रेस कमज़ोर होती जा रही है तथा केवल ऐसा तीसरा मोर्चा ही बीजेपी को चुनौती दे सकता है। अलग अलग समय इन दलों के नेताओं ने मोर्चे के गठन के प्रयास किये लेकिन उन्हें इस काम में सफलता नहीं मिली। इसका बड़ा कारण यह है कि जिन क्षेत्रीय दलों के नेताओं ने तीसरे मोर्चे के गठन की दिशा में काम शुरू किया उनका प्रभाव और छवि अपने राज्यों तक ही सीमित थी। दूसरा हर क्षेत्रीय नेता अपने आपको दूसरे क्षेत्रीय दलों के नेताओं से बड़ा मानता है।
इस दिशा में सबसे बड़ा प्रयास पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और वहा सत्तारूढ़ दल तृणमूल कांग्रेस की सुप्रीमो ममता बैनर्जी ने किया था। एक समय था जब वे कांग्रेस के बहुत नज़दीक थी तथा उनकी पार्टी ने कांग्रेस के साथ मिल कर चुनाव भी लड़ा। इन चुनावों में कांग्रेस के बजाये ममता दीदी की पार्टी को अधिक लाभ मिला। राज्य में लगातार दो बार विधान सभा के चुनाव और राज्य में अधिकांश लोकसभा सीटें जीतने के बाद उनको लगने लगा के उन्हें वे अब बड़ी राजनीतिक हस्ती बन गयी है इसलिए उन्हें अब राष्ट्रीय राजनीति की तरफ मुहं करना चाहिए। चूँकि वे पहले भी केंद्र में कई बार मंत्री राह चुकी हैं इसलिए उनको यह लगता था की उनकी राष्ट्रीय पहचान है इसलिए वे आने वाले समय में देश की प्रधान मंत्री भी बन सकती है। उन्होंने सबसे पहला काम अपने और अपनी पार्टी को कांग्रेस से दूर करने का निर्णय लिया। अपने बल पिछले साल के शुरू में राज्य में विधान सभा का चुनाव लड़ा और पहले से अधिक सीटें जीती। राज्य में बीजेपी को छोड़ अन्य सभी दलों का सफाया हो गया।
चुनावों में विजय के बाद उन्होंने सबसे पहला प्रयास राष्ट्रीय स्तर पर तीसरे मोर्चे के गठन की दिशा में काम करना शुरू किया। लेकिन अन्य क्षेत्रीय दलों से नेताओं से मिलने के बाद उनका उत्साह ठंडा पद गया। महाराष्ट्र में शिव सेना सुप्रीमो उद्धव ठाकरे ने उनसे मिलने से इंकार दिया। ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक वैसे भी बीजेपी के निकट माने जाते है। केवल तेलंगाना के मुख्यमंत्री और वहां के सत्तारूढ़ दल तेलंगाना राष्ट्र समिति के सुप्रीमो के. चंद्रशेखर राव से उनकी लम्बी बात जरूर हुई। लेकिन कुछ दिनों बाद जब दीदी को यह पता चला कि दक्षिण के ये नेता खुद तीसरा मोर्चा बना राष्ट्रीय राजनीति में अपने पैठ बनाना चाहते है तो ममता बैनर्जी का उत्साह ठंडा पड़ा गया। उन्होंने तीसरा मोर्चा बनाने की बजाये पूर्व और पूर्वोत्तर राज्यों में अपने दल का विस्तार करने की नीति अपना ली।
राज्य में 2014 से सत्ता में आये चंद्रशेखर राव ने कभी नहीं छिपाया कि वे अब राष्ट्रीय राजनीति में अपनी जगह बनाना चाहते है। दक्षिण भारत के किसी भी राज्य के नेताओं को हिंदी बोलनी नहीं आती पर राव धाराप्रवाह हिंदी बोलते है। इसका कारण यह है कि अविभाजित आंध्रप्रदेश, जो कभी हैदराबाद रियासत थी और जहाँ मुस्लिम निज़ाम का राज था, में दक्कनी बोली जाती है जो हिंदी और उर्दू के मिश्रण से बनी है। राष्ट्रीय राजनीति में स्थान बनाने के एक बड़ी शर्त हिंदीबोलना और समझना मानी जाती। इसके चलते पी बी नरसिम्ह राव देश के प्रधान मंत्री पद तक पहुंचे।
चन्द्रशेखर राव मार्च से तीसरे मोर्चे के गठन की कोशिशों में लगे है। कुछ माह पूर्व उन्होंने लगभग के सप्ताह दिल्ली में बिता कई दलों के नेताओं से मुलकात की जिसमे दिल्ली के मुख्यमत्री और आप के नेता अरविन्द केजरीवाल से मुलाकात हुई। पर वे चाह कर भी समाजवादी पार्टी के सर्वेसर्वा अखिलेश यादव से नहीं मिल पाए। उन्होंने मुंबई जा कर उद्धव ठाकरे के साथ भी मीटिंग की। उनको लगा ये नेता उनको मोर्चे के प्रमुख के रूप में स्वीकार करने का तैयार नहीं।
इसके बाद उन्होंने दक्षिण के एक बड़े नेता तथा देश के प्रधानमंत्री रहे एचडी देवेगौडा की ओर मुहँ किया। वे बंगलुरु जाकर उनसे मिले तथा उनके साथ तीन घंटे की लम्बी बातचीत की। ऐसा माना जाता है कि देवेगौडा ऐसे प्रस्तावित मोर्चे के मुखिया बनाने को तैयार है। चंद्रशेखर राव उनको आगे रख अपनी राजनीति खेलना चाहते है। देवेगौडा से मिलने के बाद वे बड़े उत्साहित लगे और दावा किया कि अगले कुछ महीनो में तीसरा मोर्चा वजूद में आ जायेगा। उनके नज़दीकी लोगों का कहना है इस मोर्चे के गठन की घोषणा दशहरे के दिन की जा सकती है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)