लेखक : डाॅ. सत्यनारायण सिंह
(लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी हैं)
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सबका साथ-सबका विकास, सबका विश्वास-सबका प्रयास व पीड़ित, शोषित वंचित, नौजवान, महिलायें सबका विकास हो, किसी से भेदभाव नहीं रहे, कोई पीछे नहीं रहे, भारत आत्मनिर्भर हो इस नारे के साथ भाजपा पांच राज्यों की विधानसभा चुनावों में सामने आई। परिवारवाद के विरूद्ध, जातिवाद के विरूद्ध वोट करने का जोरदार अभियान पूर्ण शक्ति, क्षमता व साधनों के साथ लम्बा अभियान चलाचा। स्वयं मोदीजी कई महिनों रात-दिन जुटे, देश की अन्य समस्याओं से मुंह मोडकर पचासों मीटिंगे, रोड शो, नये कामों की शुरूआत, मंदिरों व गंगा में पूजा अर्चना की, सोसियल इंजीनियरिंग किया और सफलता प्राप्त की।
सर्वांगीण विकास, मंहगाई, बेरोजगारी, पलायन, कोराना कुप्रबन्धन, कानून व्यवस्था जैसे मुद्दों की इन चुनावों में कोई भूमिका नहीं रही। चुनाव धार्मिक कट्टरता, साम्प्रदायिकता, जातिवाद, क्षेत्रवाद और चुनावी घोषणाओं की भेंट चढ़ गये। विकास के मुद्दे, उम्मीदवारों की काबलियत, महिला सुरक्षा व सशक्तिकरण की घोषणायें लुप्त हो गये और अपराधियों, पूंजीपतियों की भेंट चढ़ गये। स्पष्ट हो गया कि जाति, धर्म, रूढ़ियों से जकड़े प्रदेशों में चुनाव जीतने की सबसे अच्छी, मजबूत और कारगर रणनीति है। लोकतांत्रिक सिद्धांत, मान्यतायें, आदर्श, पार्टियों की नीतियां, मैनीफेस्टो का कोई अर्थ नहीं।
मतदाता अभी किसी खास दल या उम्मीदवार को ही अपना एकमुश्त वोट देते है। दूसरी पार्टी या उम्मीदवार की सारी अच्छाई या नीतियों व योग्यतायें निरर्थक हो जाती है, चाहे दूसरी जाति का उम्मीदवार ज्यादा प्रतिभाशाली हो। भाजपा ने भी चुनाव क्षेत्रों को मतदाताओं की जाति बहुलता के आधार पर चिन्हित किया, उसी के आधार पर उम्मीदवारों के टिकट के फैसले किये गये। समावेशी विकास की लकीर को समाज के अंतिम आदमी तक खींचने की बात करने वाली बातें सिर्फ घोषणाओं तक सीमित हो गई। धर्म व जाति विशेष के मतदाताओं को रिझाने के लिए गोलबंदी व ध्रुवीकरण के तमाम हथकंडे अपनाये गये, विकास व जनसमस्याओं के सारे मुद्दे ऐसे हथकंडों के सामने पंगु हो जाते है। जातिवाद, साम्प्रदायिकता जैसे मुद्दों का चुनावी सभा में इजाफा हुआ।
दुर्भाग्य से युवा भी सामाजिक, आर्थिक, जाति-धर्म आदि की रूढ़ियों को तोड़कर आगे नहीं आ रहे, योग्यता को तरजीह नहीं दे रहे। पढ़े लिखे प्रबुद्ध लोग जो गोष्ठियों में क्रांतिकारी विचारों को लगातार प्रकट करते रहते है, वे आज भी चुनावों में धर्म, जाति की शरण में चले जाते है और जाति, धर्म के नाम पर वोट करते है। वेाटिंग पैटर्न भाईचारा, एकता और सार्वजनिक व्यवस्था को प्रभावित कर रहा है। हम हिन्दु राष्ट्र की तरफ बढ़ रहे है जहां लोकतंत्र महज चुनाव तक सीमित होगा। सुशासन, कुशल प्रबंधन, समग्र विकास, कालाधन वापसी व भ्रष्टाचार नियंत्रण केवल कागजी घोषणायें रह गई है। चुनावों में भय का माहौल, अराजकता, गुंडागर्ती, झूंठ व बेबुनियादी आरोप प्रत्यारोप के सहारे चुनाव प्रचार चलता है। गुजरात में भारत का सबसे बड़ा बैंकिंग घोटाला हुआ परन्तु मीडिया मैनेजमेंट से उसे दबा दिया गया। चुनावों में उसकी चर्चा नहीं हुई। कोविड के दौरान कुप्रबन्ध से अलग-थलग पड़ने से बच्चों में शारीरिक व मानसिक बीमारियों की चर्चा नहीं होती। इन राज्यों में वंचित तबके के स्कूली बच्चों के हालात पर चर्चा नहीं होती।
वंशवाद ने हर एक दल को कलंकित किया है। नेताओं की राष्ट्रभक्ति व ईमानदारी पर प्रश्न चिन्ह खडे किये गये है। पार्टियों में सफेदपोश नेताओं का दबदबा है, उनका जनाधार नहीं है। मजबूत लोकतंत्र के लिए मजबूत विपक्ष की आवश्यकता है, केवल नारों से लोकतंत्र चलाने का प्रयास हो रहा है। कभी स्वतंत्रता आन्दोलन में अग्रणी रही कांग्रेस के पास आज सफल चुनावी मशील नहीं है। यथास्थितिवादी नेतृत्व, उत्साहविहीन कार्यकर्ता पतन के लिए जिम्मेदार है। पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्र नहीं है। क्षेत्रीय नेताओं की क्षमता स्थानीय स्तर तक सीमित है। सुनियोजित रणनीति व स्पष्ट विजन के अभाव में जातिवाद व साम्प्रदायिकता, व्यक्तिगत स्वार्थ, गठजोड व अनुशासनहीनता पनप रही है।
लोकतंत्र की सफलता के लिए जातिवाद, सम्प्रदायवाद, व्यक्तिवाद, परिवारवाद से हटकर नीतियों पर आधारित राजनीति आवश्यक है। राष्ट्रीय मुद्दा जाति, धर्म, सम्प्रदाय, स्थानीय के बजाय बेरोजगारी, असमानता, गरीबी, अशिक्षा, किसान, मजदूर की बहबूदी, कृषि व उद्योग का विकास, असहमति व विचार प्रकट करने की स्वतंत्रता बने। संवैधानिक संस्थाओं का स्वतंत्र अस्तित्व बना रहे। न्यायपालिका व कार्यपालिका में राजनैतिक घुसपैठ नहीं हो, जाति, गोलबंदी, ध्रुवीकरण, चेहरे मोहरे का जोर के बजाय असली मुद्दों को तवज्जो दी जाय, तब ही देश प्रगति कर सकेगा, आत्मनिर्भर बनेगा। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)