लेखक : डाॅ. सत्यनारायण सिंह
(लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी है)
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प्रजातांत्रिक व्यवस्था आज संक्रमण के दौर से गुजर रही है। बारोन्मुख आर्थिक विकास के हिमायती लोग जब राजनीतिक परिस्थितियों से उभरने के लिए आन्दोलन करते हैं तो सिर्फ अव्यवस्था व जन असंतोष एवं तनाव पैदा करते है व लोकतंत्र विरोधी विचारधारा को ही प्रश्रय देते है, लोकतांत्रिक शासन की पारदर्शिता और लोक स्वीकृति की स्थापित व्यवस्था को कमजोर करते है। प्रजातांत्रिक व्यवस्था के आधार को विस्तार देने की बजाय उसे संकुचित करते है।
आज हमारी सरकारें है। उसकी नीतियों, निर्णयों का विरोध अधिक शांत, परिष्कृत व संजीदा वाला होना चाहिए। विरोध के लक्ष्य, साधनों व माहौल में भी परिवर्तन आवश्यक है। आन्दोलनों का नेतृत्व उपयुक्त लोगों के हाथों में होना चाहिए। आन्दोलनों का लक्ष्य केवल येन-केन-प्रकारेण अराजकता व अव्यवस्था फैलाना हो रहा है इससे आन्दोलनों का स्वरूप कुरूप हो गया है। आन्दोलनों में बंद व घेराव जैसी कार्यवाहियां शामिल हो गई है जो जनता की असुविधा बढ़ाने का रूप लेती है जो जनता की असुविधा बढाने का रूप लेती है, आन्दोलन कुछ लोग करते है, आम जनता में असुविधा, रोष व आक्रोश बढ़ता है। अपनी पार्टी के लोगों की सहायता से किसी भी इशू या नान इशू को लेकर कभी भी गैर कानूनी व अमानवीय तरीका अपनाते है।
कुछ राजनेता सतत चर्चा में रहने के लिए सतत आन्दोलनरत रहते है। उभरने के लिए नये-नये मुद्दे प्रस्तुत किये जाते है। लोगों को जुलूस, धरना, घेराव, नारे व हडताल करने के लिए उकसाया जाता है। ऐसे वर्गो में विद्यार्थी, बेरोजगार, मजदूर, किसान, सफाई कर्मचारी प्रमुख है। वे रास्ता रोकते, घेराव व अनेक प्रकार से अनशन, बंद करते रहते है। कानूनों में जो शिकायत निवारण के उपाय है उनका ये बहुत कम आश्रय लेते हैं, नगरों की व्यवस्था व शांति का निरन्तर हनन करते है। राजनेता इन वर्गो को सतत आन्दोलनरत रखना चाहते है ताकि वक्त जरूरत उनके काम आये। जुलूस, रैलियों आदि में शामिल होने व करने के अलिखित नियम व मेहनताने भी तय हो गये है, लकड़ी व गत्ते पर लिखे नारे थोक के भाव थोडे समय में बना देने की दुकानें खोल ली है।
इन तमाम आन्दोलनों के भद्दे स्वरूपों का मुद्दों से असंबद्धता रहती है, इनके केन्द्र में आदर्शो व सभ्य प्रकृति से दूर अनुशासनहीन, हिंसक व उग्र प्रकृति के लोग होते है जिनके डर से धरने, बंद, हड़तालें, रैलीयां सफल होती है। शांति को ये अद्विग्न व्यक्ति व खरीदे गये समूह खंडित कर सकते है। आन्दोलनों की चपेट में गरीब है, असंगठित श्रमिक भूखे रह जाते है, रोगी अस्पताल नहीं जा पाते, अदालतों के रास्ते रूक जाते है। लाखों रूपया खर्च कर अथवा दादागिरी से वाहन लेकर खाने-पीने का खर्चा भुगतान कर भीड इकठ्ठी करते है। दबाब में एक तरफा फैसले होते हैं। व्यापार, यातायात, सामान्य नागरिक गतिविधियां अवरूद्ध होने से राज व समाज की करोड़ों रूपयों की हानि होती है, आम लोगों के संवैधानिक अधिकारों का हनन होता है। हड़ताल, बंद व रैलीयों में कितने लोग स्वेच्छा से भाग लेते है? केवल दबाब व लालच सैर सपाटे हेतु कितने आते है? इस प्रकार के आयोजित बंद, रैलियों, हड़तालों को असंवैधानिक व गैर कानूनी घोषित किया जाना आवश्यक है। विरोध के लक्ष्य, साधन व माहौल में परिवर्तन हो गया।
आन्दोलन शांत, परिष्कृत, संजीदा स्वरूप वाला होना चाहिए, अराजकता या अव्यवस्था फैलाने व जनता की असुविधा बढ़ाने हेतु नहीं। किसी भी अफसर या मंत्री का छोटे से मुद्दे को लेकर घेराव हो जाता है। एक हैडमास्टर के स्वभाव को लेकर, कनिष्ठ अधिकारी व कर्मचारी की लापरवाही को लेकर घेराव हो जाता है। भद्दे नारे, पुतले जलाने, मान भंग करने, जोर जबरदस्ती के तरीकों को अपराधिक मामले मानकर दण्डित किये जाने चाहिए। आन्दोलन कानूनों व अपराध संहिताओं की एक साथ धज्जियां उडाने के लिए नहीं करने दिये जाने चाहिए। नेताओं की तुष्टीकरण के आन्दोलन नहीं सुलटाने चाहिए, इसका दुष्परिणाम होता है। दो चार असंतुष्ट सिरफिरे नेता विश्वविद्यालयों का शैक्षणिक वातावरण धूल में मिला देते है। अनुशासन की सारी परम्परायें व नियंत्रण की सारी श्रृंखलायें टूट जाती है। आन्दोलन उन लोगों द्वारा होते हैं जो लम्बे अरसे से सरकारी कानूनों व नियमों को तोड़ते है, अपने हित में नियम बदलवाना चाहते है, अनियमितताओं को बख्श देने की मांग होती है। आन्दोलन को सफल बनाने को उन्हें उग्र बनाया जाता है, सरकारें झुकती है, आन्दोलनों को बल व प्रेरणा मिलती है।
महात्मा गांधी ने जब विदेशी सरकार की नीतियों के प्रति जनता के रोष, जनहित विरोधी कानून, अन्याय का विरोध, स्वतंत्रता के लिए आन्दोलन किये गये तो आन्दोलनों को अहिंसक व शांत स्वरूप दिया था। नियत व प्रभाव के बारे में जनता को शिक्षित किया था, तब पूर्व घोषित ढंग से उन कानूनों, आदेशों, निर्णयों का विरोध किया। कानूनों के उल्लंघन पर विरोधकर्ता पकड़े जाते थे, मुकदमा चलता था, जेल जाते थे। आन्दोलनों में कारावास व दण्ड को गौरवशाली समझा जाता था, आन्दोलनकारी जमानत, अपील, क्षमा नहीं मांगते थे। नैतिक रूप से शासन प्रशासन आन्दोलनों के आगे झुकता था। आन्दोलनों के नेता व स्वयंसेवक अनुशासन बनाये रखते थे, सहिष्णुता होती थी। मामला गंभीर होने पर भूख हडताल का सहारा लेते थे।
आज जब हम आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे है, सभी राजनीतिक दलों को मिलकर जन आन्दोलनों के स्वरूप पर विचार करना चाहिए। आन्दोलनों, हड़तालों, रैलीयों, बन्दों, घेरावों में जोर जबरदस्ती, असभ्यता, हिंसा नहीं हो, सस्ती लोकप्रियता अर्जित करने की मानसिकता को त्यागकर जनता के रोष व असंतोष को अहिंसक, सभ्य व शांतिपूर्ण तरीकों से परिभाषित करना चाहिए। अखबारों में सुर्खिया पाने के रोग से बचना चाहिए। अनावश्यक अव्यवस्था व अराजकता फैलाकर सस्ती लोकप्रियता अर्जित करने के प्रयासों से बचना चाहिए। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)