लेखक : डाॅ.सत्यनारायण सिंह
(लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी है)
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लम्बे स्वाधीनता संघर्ष के पश्चात भारत एक लोकतंत्रात्मक गणराज्य बना। देश की शासन व्यवस्था के बुनियादी ढांचे, विभिन्न अंगों, शक्तियों, नीतियों व दायित्वों को परिभाषित करते हुए लिखित संविधान बनाया गया। संविधान राज्य के प्रमुख अंगों की स्थापना करता है, उनके कर्तव्यों व अधिकारों की व्याख्या करता है। साथ ही उनके दायित्वों का सीमांकन करता है। संसद व राज्य विधानसभायें कानून निर्मित करती है। कार्यपालिका कानून व नियमों के अनुसार शासन चलाती है। न्यायपालिका विवादों का निपटारा करती है, प्रभुसत्ता व बुनियादी मामलों पर अपनी राय प्रकट करती है, न्याय करती है। संविधान पृथक-पृथक अधिकार क्षेत्र तथा आमजनता के अधिकार व कर्तव्यों के साथ, सम्बन्धों की व्याख्या करता है। भारत संघ व राज्यों के बीच शक्तियों व अधिकारों का बंटवारा व दायरा निर्धारित करता है।
हमारा संविधान एक सामाजिक संविदा भी है जिसके अन्तर्गत लोगों की आशाओं और अपेक्षाओं के अनुरूप देश की विविध व विभिन्न भाषा, धर्म, विचारधारा, मान्यताओं के समन्वय के साथ न्यायपूर्वक व स्वतंत्र रूप से राज्य कार्य सुनिश्चित करता है। देश की सम्पूर्ण जनता में आपसी विश्वास व मानवीय सम्बन्धों को जोड़कर रखता है। संविधान निर्माताओं ने दुनिया के प्रजातांत्रिक देशों के संविधान का अध्ययन कर सभी दृष्टिकोणों से आवश्यक व महत्वपूर्ण प्रावधानों को रखा गया जिसे आज दुनिया का सर्वश्रेष्ठ राजनीतिक संविधान कहा जाता है।
ब्रिटिश शासकों ने कहा था कि भारतीयों में अपने संविधान बनाने की क्षमता नहीं है। चुनौती के रूप में मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में गठित समिति ने संविधान का एक प्रारूप तैयार किया। ‘‘नेहरू रिपोर्ट’’ के नाम पर प्रसिद्ध इस प्रारूप को सभी दलों ने स्वीकार किया व समर्थन किया। तदनुसार 31 दिसम्बर 1929 को पं. जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में कांग्रेस ने पूर्ण स्वराज्य के लक्ष्य की घोषणा की। 15 अगस्त 1947 को प्रभुसत्ता संपन्न संविधान सभा डा. राजेन्द्र प्रसाद की अध्यक्षता में गठित हुई। डा. भीमराव अम्बेडकर प्रारूप समिति के सभापति बनाये गये।
हमारा संविधान राज्य व्यवस्था के मूल सिद्धांत, संविधान निर्माताओं की सोच व आदर्शो को निहित रखते हुए राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक आकांक्षाओं को प्रकट करता है। यह एक जड़ दस्तावेज नहीं है, सजीव संवैधानिक संस्थाओं का सजीव विवरण है। सरकार के अधिकार सीमित ओर विधि के अधीन हो, स्वेच्छाचारी, सत्तावादी और सर्वाधिकारी नहीं हो, यह सुनिश्चित करता है। मूल अधिकारों के साथ राज्य के नीति निर्देशक तत्वों को स्पष्ट उल्लेखित किया गया है। सभी निर्णय संविधान निर्माताओं की मंशा व इच्छा को ध्यान में रखकर ही किये जा सकते है।
हमने संसदीय लोकतंत्रात्मक प्रणाली को चुना जिसे पर्याप्त अधिकार, प्रभुत्व एवं सम्मान दिया गया। देश और राज्यों के बड़े आकार के कारण प्रत्यक्ष लोकतंत्र के स्थान पर प्रतिनिधि लोकतंत्र प्रणाली अपनाई गई जिसमें जनता निर्णय करती है कि किस प्रकार से व किसके द्वारा शासन हो। प्रारम्भिक लोकसभाओं में सत्ताधारी कांग्रेस दल में कुछ बड़े गौरवशाली और प्रबुद्ध सांसद थे, शक्तिशाली विरोधी पक्ष के प्रबुद्ध लोग थे। संसदीय प्रक्रिया के मर्मज्ञ थे, विषयों पर साधिकार बोलते थे। सत्ता पक्ष व विपक्ष दोनों ने गुणात्मक रूप से तथा सदस्यों की उच्च नैतिकता और योग्यता की दृष्टि से महत्वपूर्ण योगदान किया। प्रधानमंत्री सहित सभी प्रबुद्ध सांसद गम्भीर विचार विमर्श व बहस में सम्मिलित होते थे। संसदीय कार्य को महत्व दिया जाता था।
संविधान सभा में बाबा साहब अम्बेडकर ने अपने दिशा बोधक वक्तव्य में कहा था ‘‘जाति ओर मजहब के रूप में, हमारे शत्रुओं के अतिरिक्त, हमारे देश में भिन्न और विरोधी विचारधाराओं वाले राजनीतिक दल होंगे और यदि वे अपने मत व मजहब को देश के उपर रखेंगे, हमारी आजादी खतरे में पड़ जायेगी। हम सबको दृढ़ता से उस सम्भाव्यता से अपनी रक्षा करनी होगी। अपने रक्त की अंतिम बूंद तक हमें अपनी स्वतंत्रता व लोकतंत्र की रक्षा के लिए कृत संकल्प होना चाहिए। हमारी राजनीति धर्म, सम्प्रदाय आधारित हो गई व व्यवस्था बिगड़ गई।’’
राष्ट्र के समक्ष उपस्थित परिस्थितियों व समस्याओं का सामने करने के बजाय विभिन्न दल अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने लगे। राजनीतिक जीवन में पारदर्शिता, निष्ठा व गरिमा समाप्त हो गयी, निर्वाचन व्यवस्था में सुधार नहीं होने से अपराधीकरण, भ्रष्टाचार, अनैतिकता बढ़ती गई। राजनीतिक अग्रदूत कहे जाने वाले राजनीतिज्ञ अपने हितों की खातिर गठबन्धन व सरकार बनाने लगे। चुनावों में योग्यता का स्थान जातिवाद, धनबल, बाहुबल ने ले लिया। प्रमाणिकता, मूल्य, निष्ठा, नैतिक आचरण, स्वस्थ परम्परायें, अनुशासन समाप्त हो गये। संसद व सांसदों, विधायकों की प्रतिष्ठा गिरती गई। गरीब देश के करोड़पति प्रतिनिधिसयों ने अपने हितों के अनुसार नीतिगत निर्णय लेना प्रारम्भ कर दिये। नोट की ओट में वोट चल निकला। लोकतंत्र का चेहरा दागदार हो गया।
राजनीति का अर्थ देश में सुव्यवस्था बनाये रखना नहीं, अपनी सत्ता और कुर्सी बनाए रखना हो गया। राजनीतिज्ञ का अर्थ उस नीति निपुण व्यक्तित्व से नहीं रहा जो हर कीमत पर राष्ट्र की प्रगति, विकास, विस्तार और समृद्धि को सर्वोपरी महत्व दें, उस विदूषक विशारद व्यक्तित्व से रह गया जो राष्ट्र के विकास और समृद्धि को अवनति के गर्भ में फेंक कर अपनी कुर्सी को सर्वोपरी महत्व दे। राजनेता का अर्थ राष्ट्र को प्रगति की दिशा में अग्रसर करने वाला नहीं, अपने दल को सत्ता की ओर अग्रसर करने वाला रह गया।
डा. अम्बेडकर ने संविधान सभा में बोलते हुए कहा था ‘‘मैं महसूस करता हूं, संविधान चाहे कितना भी अच्छा कयों न हो, यदि वे लोग जिन्हें संविधान को चलाने का काम सौंपा जायगा, खराब निकले तो निश्चित रूप से संविधान भी खराब सिद्ध होगा। दूसरी ओर संविधान चाहे कितना भी खराब हो, यदि उसे चलाने वाले अच्छे लोग हुए तो संविधान अच्छा सिद्ध होगा।’’
नतीजतन कार्यपालिका का भी राजनीतिकरण हो गया। प्रशासन व व्यवस्थाओं में भ्रष्टाचार, लालफीताशाही, सामंती प्रवृति, निरंकुशता तथा असंवेदनशीलता बढ़ती गई। पक्षपात, वंशवाद, जातिवाद बढ़ने से प्रशासनिक व्यवस्था का स्तर दिन-ब-दिन गिरता गया। न्यायपालिका से भी जन विश्वास ढिगता जा रहा है। न्याय महंगा, अनिश्चित व अत्यधिक समय लेने वाला बन गया। निष्पक्षता की अपेक्षा सहूलियत, व्यक्तिगत सोच व कानूनी पेचीदगियों में न्याय उलझ गया।
स्वच्छ लोकतंत्र के हित में सभी राजनीतिक दलों का सम्प्रदाय, जातिगत अथवा अन्य विभाजनकारी आधारों पर गठित वोट बैंक की राजनीति छोड़कर, व्यापक जनाधार व जनता के हित में, समर्थन खोजना होगा। आवश्यक चुनाव सुधार द्वारा योग्य, कुशल, चरित्रवान लोगों को अवसर देने के लिए कदम उठाने चाहिए, अन्यथा व्यवस्था में और अधिक गिरावट आयेगी। राजनेता व नौकरशाही अच्छी होगी तो लोकतंत्र स्वतः स्वस्थ और अच्छा हो जायेगा। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)