(वरिष्ठ पत्रकार, लेखक एवं राजनीतिक विश्लेषक)
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लगभग छः वर्ष पूर्व केरल में कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त लोकतान्त्रिक मोर्चे की सरकार ने राज्य में अल्पसंख्यक के छात्रों को छात्रवृतियां देने की एक योजना आरंभ की थी। इसका लाभ राज्य के ईसाई, मुस्लिम, जैन और सिख समुदायों के छात्रों को मिलना था। यह योजना 2016 के विधान सभा चुनावों से कुछ ही महीने पहले घोषित की गई थी। तब यह कहा गया था कि कांग्रेस नीत सरकार ने यह गोश्ना अल्पसंख्यकों को अपने पक्ष में करने के लिए की है। यह अलग बात है कि अल्पसंख्यकों को मोहने की इस घोषणा के बावजूद कांग्रेस नीत मोर्चा विधानसभा चुनाव हार गया तथा सत्ता मार्क्सवादी नीत वाम मोर्चे का हाथ में आ गयी।
योजना का जब विस्तृत रूप सामने आया तो इसको देखते ही विवाद शुरू हो गया। आरोप लगाया गया कि योजना पूरी तरह से भेदभाव पूर्ण है। इसके की अनुसार कुल छात्रवृतियों में से 80 प्रतिशत मुस्लिम समुदाय के छात्रों को मिलनी थी। शेष 20 प्रतिशत ईसाई तथा अन्य अल्पसंख्यक समुदाय, सिख अथवा जैन के छात्रों के हिस्से में जाती थी। सरकार के इस निर्णय को कुछ संगठनों ने केरल हाई कोर्ट में चुनौती दी। उन्होंने अपनी अपनी याचिकायों में कहा कि यह योजना पूरी तरह से भेदभाव पूर्ण है तथा मूलतः मुस्लिम समुदाय को खुश रखने के लिए बनायी गई है।
राज्य की आबादी लगभग साढ़े तीन करोड़ हैं। इसमें हिन्दू आबादी 50 प्रतिशत के कुछ अधिक है जबकि मुस्लिम कुल आबादी का लगभग 28 प्रतिशत हैं। ईसाइयों की आबादी लगभग 18 प्रतिशत है, शेष 4 प्रतिशत में जैन, सिख और अन्य समुदाय आते हैं। सरकार के निर्णय को लेकर एक लम्बी बहस चली। राज्य सरकार का तर्क था कि अल्पसंख्यकों में सामाजिक तथा आर्थिक रूप से सबसे पिछडे मुसलमान ही हैं। उनमें शिक्षा बहुत कम है तथा सरकारी और विभागों नौकरियों में उनके हिस्सेदारी तो और भी कम है। वे व्यवसाय में भी सबसे पीछे है। जो इस निर्णय के समर्थक थे उनका तर्क था कि अगर किसी स्कूल की किसी एक कक्षा में सबसे कमज़ोर छात्रों के लिए कक्षा अध्यापक अतिरिक्त क्लास लगता है ताकि कमजोर छात्र भी अच्छे छात्रों की तुलना में आ सके तो कोई गलत नहीं। उसका उद्देश्य कमजोर छात्रों को बाकि छात्रों के बराबर लाना है।
सरकार का यह निर्णय भी कुछ इस प्रकार का ही है ताकि मुस्लिम अन्य वर्गों के बराबर आ जाये, इस पर हाईकोर्ट में लम्बी सुनवाई चली। सरकार का पक्ष रखने वाले वकीलों को कहना था कि सरकार का निर्णय मुस्लिम अल्पसंख्यकों के पिछड़ेपन पर सच्चर कमेटी की रिपोर्ट पर आधारित है। रिपोर्ट में यह सिफारिश की गयी थी कि मुस्लिम अल्पसंख्यकों को आगे बढाने के लिए उनकी आर्थिक रूप से अतिरिक्त सहायता की जानी चाहिए। लम्बी सुनवाई के बाद अक्टूबर महीने के अंत में हाई कोर्ट ने अपना निर्णय सुनते हुए योजना को निरस्त करने का आदेश दिया। अपने निर्णय में हाई कोर्ट ने कहा कि पूरी योजना ही गलत सिद्धातों पर बनाई गई है।
अल्पसंख्यकों के विकास के लिए समेकित योजना बनानी चाहिए ताकि सभी अल्पसंख्यक समुदायों को इसका बराबर लाभ मिले सके। अदालत का कहना था इस योजना का प्रारूप ऐसा होना चाहिए जिससे अल्पसंख्यक समुदायों को उनकी आबादी के अनुपात में ही छात्रवृतियां जानी चाहिये। राज्य में मुस्लिम अल्पसंख्यकों की आबादी लगभग 28 प्रतिशत है इसलिए 80 प्रतिशत छात्रवृतियां केवल इसी एक समुदाय के छात्रों को दिये जाने का कोई औचित्य नहीं हैं। इसी प्रकार इसाई समुदायों की आबादी 18 प्रतिशत होने पर इस समुदाय के कम छात्रों को छात्रवृतियां दी गयी है। अल्पसंख्यक समुदायों को छात्रवृतियां देने के लिए भी योग्यता का एक सामान आधार रखा जाना चाहिए था। लेकिन इस योजना में ऐसा कोई आधार नहीं रखा गया। इसी प्रकार इस बात को भी पूरी तरह से नज़र अंदाज़ किया गया कि राज्य के किसी हिस्से में रहने वाले लोगों में मुस्लिम समुदाय की आबादी तुलनात्मक रूप से कितनी है।
राज्य की वाममोर्चा सरकार ने केरल हाई कोर्ट के इस निर्णय को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है जिसमे कोर्ट की संवैधानिक पीठ में इसकी सुनवाई होगी। लेकिन हाई कोर्ट के फैसले को लेकर जो सार्वजानिक बहस शुरू हुई है वह आने वाले दिनों में और तेज होगी क्योंकि राजनीतिक रूप से केरल देश के उन राज्यों में आता है जहाँ राजनीतिक और सामाजिक चेतना अधिक है। इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि केरल देश का एक मात्र ऐसा राज्य है जहाँ साक्षरता शत प्रतिशत है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)