लघु कथा
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बात यूँ है कि सब्जियों के दाम बढ़ गये हैं पर भाई टमाटर तो बढ़ -चढ़ कर दौड़ रहा है, ऐसा हमें लग रहा है, क्योंकि हम तो मध्यमवर्ग में आते हैं तो हमारे लिए 100 रु. किलो तो बहुत महंगा लगता है किसी को शायद न लगता हो, अच्छा जिसे न लगता हो वो एक मिन्ट के लिए खुद से ही बात कर ले कि लगता है कि नहीं लगता हैं।
अच्छा जी अब इसी मध्यमवर्ग की बात करुँगी क्यो की मै इसी श्रेणी में आती हूँ तो थोड़ा ज्यादा सोचती हूँ तो सोच रही थी कि शादी का सीजन चल रहा है, शादी में भौकाल चलता है, क्यो चलता है?
यह हमें भी नही पता है। पता करना तो चाहती हूँ, कुछ आँखे तरेर के कहते हैं लड़ना चाहती हो, अब लड़ाई बाहर की हो तो लड़ भी लो, पर घर में अपनों से लड़ना बहुत कठिन है। पर लड़ते भी लोग अपनों से ही हैं, चाहे इतिहास देख लो, बाहर से तो हम इसीलिए हारे क्यो की हम तो घर में ही भिड़े थे बाहर की तैयारी ही न हो पायी, खैर-- बात मैं टमाटर की ही करुँगी महगाई के सीजन में हम काम चला लेंगे, कुछ और चीजें खा लेंगे, टमाटर के बिना बना लेंगे कुछ गूगल से क्लिप ढूढ़ लेंगे ठीक है न, एक बात मेरे भीतर उमड़- घुमड़ रही है वो यह है कि शादी उत्सव और उमंग से कीजिए, आशीर्वाद-दुआ लीजिए, मान और सम्मान की सोच बनाइये, न कि बेटी के पिता को भोजन की लिस्ट दिखाइए की बरातियों के स्वागत में पहले सूप चलेगा, फिर पनीर बहेगा, और तरह-तरह स्टॉल-एक रात की थाली में एक मानव कितना खा सकता है?
वो खिलाने वाला पिता जिसने महीनों से ढंग से दो बार दाल, रोट , सब्जी न खायी होगी!
(लेखिका का अपना अध्ययन एवं अपनी परिकल्पना है)