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मकान पूर्वमुखी होने से सुबह तो बरामदे में धूप आ जाती है लेकिन दोपहर बाद धूप के लिए बगल के बाड़े में कुर्सी लगा लेते हैं। बाड़े की दीवारें नीची हैं। कोई चार बजे होंगे। मूली खा रहे थे कि दीवार से उचककर तोताराम ने हांक लगाई- इधर से ही खोल दे।
बैठते ही बोला- कोरोना के चक्कर में तेरा अमरीका का वीजा एक्सपायर हो गया था। अब नया बनवायेगा तो टीके का प्रमाणपत्र चाहियेगा। जब तक तीसरी लहर न आये तब तक यहाँ भी काफी कुछ खुलने लगा है। कल से चूरू-सीकर-जयपुर वाली ट्रेन भी चलने लगेगी. क्या पता, टी टी टिकट के साथ कोरोना के टीके का प्रमाणपत्र भी मांग ले सो मैं तो प्रिंट आउट निकलवाकर ले आया हूँ। देख।
हमने देखा और कहा- तोताराम, यह किसका प्रमाण पत्र ले आया? यह तो मोदी जी का प्रमाण पत्र लगता है। देख, फोटो भी उन्हीं का लगा है। कुछ तो ध्यान देता।
बोला- हाँ, मुझे पता है यह फोटो मोदी जी का है। सोच, अगर मोदी जी नहीं होते तो अब तक यह देश खाली ही हो गया होता। तबलीगियों ने तो देश को हिन्दूविहीन बनाने का पूरा षड्यंत्र रच लिया था। यह तो मोदी जी की सक्रियता और तत्परता से टीके बनवाने, जुटाने, लोगों को प्रेरित करके लगवाने से देश बच गया। ऐसे में प्रमाणपत्र पत्र पर उनका फोटो नहीं तो किसका लगेगा?
हमने कहा- लेकिन हम तो इस प्रमाणपत्र के आधार पर अमरीकी एम्बेसी में जायेंगे तो वे यही कहेंगे कि फोटो मैच नहीं करता. कहाँ 56 इंच का सीना और कहाँ 28 इंच की मरियल सीनी। कहाँ वह भरा-भरा रौबीला मुख-मंडल और कहाँ यह हमारा महंगाई और उम्र द्वारा चूसित चेहरा। कहाँ पितामह भीष्म जैसी दुग्ध-धवल श्मश्रु और कहाँ हमारी टूटे दिल वाले पुराने फ़िल्मी हीरो जैसी छह दिन की खिचड़ी खूँटियाँ। और फिर उस देश में ऐसे छोटे-छोटे कागजों पर राष्ट्राध्यक्ष का फोटो नहीं लगता।
बोला- वहाँ की बात और है. वहाँ तो ट्रंप ने टीके के लिए कुछ भी प्रयत्न नहीं किया. उसके भक्त तो अब भी कहते हैं कि टीका नहीं लगवाएंगे। हमारे यहाँ भी तो ऐसे कूढ़ मगज़ अवैज्ञानिक लोग हैं। और तो और ऐसे लोगों को सरकार भी नहीं टोकती फिर चाहे वह प्रज्ञा ठाकुर हो या कोई काढ़ा बेचने वाले रामदेव। लेकिन अब अमरीका में टीका अनिवार्य करने पर विचार किया जा रहा है।
हमने कहा- फिर भी वहाँ प्रमाणपत्र पर जो बाईडेन का फोटो नहीं लगेगा।
बोला- लेकिन तुझे मोदी जी के फोटो से ऐतराज़ क्यों है ? तुझे तो मोदी जी की कृपा से टीका फ्री में लगा है। तुझे तो फोटो पर ऐतराज़ करने का कोई अधिकार नहीं है।
हमने कहा- इस प्रकार तो केरल के कोट्टायम निवासी बुजुर्ग और आरटीआई कार्यकर्ता पीटर म्यालीपराम्बिल का ऐतराज़ जायज़ है क्योंकि मुफ्त टीकों के स्लॉट में कमी होने के कारण उन्हें एक प्राइवेट अस्पताल में कोरोना वैक्सीन की डोज के लिए 750 रुपए का भुगतान करना पड़ा।
बोला- लेकिन इस बारे में केरल के हाई कोर्ट ने भी तो कुछ सोच समझकर ही कहा होगा कि टीका प्रमाणपत्र से प्रधानमंत्री का फोटो हटाने की मांग खतरनाक है। यह वैसे ही है जैसे नोटों पर से गाँधी जी का फोटो हटाना।
हमने कहा- लेकिन गाँधी जी का फोटो तो उनके निधन के 21 वर्ष बाद 1969 में नोटों पर छापना शुरू हुआ था.इसीलिए किसी को ऐतराज़ नहीं हुआ लेकिन अब तो इस तरह छवि-निर्माण से मोदी जी को राजनीतिक फायदा हो सकता है। जब करोड़ों रुपए खर्च करके पांच किलो अनाज के थैले पर फोटो वाले अन्न महोत्सव के विज्ञापन छोटे-छोटे पोस्ट आफिसों तक में लगवाये सकते हैं तो इन प्रमाण पत्रों पर फोटो के लिए मोदी की व्यक्तिगत रुचि या दबाव से पूरी तरह से इनकार नहीं किया जा सकता। हर जगह मोदी जी का चेहरा देखकर आदमी को डर लगता रहता है कि बिग ब्रदर की तरह मोदी जी उसकी हर बात सुन और देख रहे हैं।
तभी कोट्टायम वाले याचिका कर्त्ता कहते हैं कोरोना महामारी के खिलाफ चल रहे अभियान को प्रधानमंत्री मोदी के मीडिया अभियान में बदला जा रहा है। ऐसा लगता है कि देश के खर्चे पर एक व्यक्ति को प्रोजेक्ट करते हुए प्रचार किया जा रहा है। केरल वाले फरियादी बुज़ुर्ग ने यह भी कहा कि कोरोना टीकाकरण अभियान में प्रधानमंत्री को इतनी प्रमुखता दी जा रही है कि उससे लोगों के विचार भी प्रभावित हो रहे हैं।
बोला- फिर भी यह तो माना ही पड़ेगा कि सरकार ने टीके के लिए बहुत रुपया खर्च किया ही है।
हमने कहा- खर्चे की बात भी समझ ले। अमरीका, योरप के देशों ने सब कुछ फ्री किया है जबकि भारत में टीके के बहाने घरेलू गैस, पेट्रोल, डीज़ल के दाम बढाकर २३ लाख करोड़ रुपया सूंत लिया और खर्च किये दस हजार करोड़ से भी कम।
आपदा में अवसर।
बोला- तो क्या काम करने वाले व्यक्ति और सरकार को कुछ भी क्रेडिट और यश नहीं मिलना चाहिए?
हमने कहा- तुम्हारी इस बात से हमें एक नया और न्यायपूर्ण आइडिया आया है। जिस पार्टी की भी स्पष्ट बहुमत की सरकार बने तो उसके कार्यकाल में छपने वाले नोटों पर उसके प्रधानमंत्री का ही फोटो छपे और उसका बाप ही उतने दिनों तक राष्ट्रपिता माना जाए। हमारा तो मानना है कि हर सरकार अपने हिसाब से देश के सभी शहरों, नदियों, पहाड़ों, सडकों आदि के नाम भी तय करे।
नई सरकार, नया राष्ट्रपिता, कभी मोहनदास करमचंद गाँधी, कभी केशव बलिराम हेगड़े, कभी बाल ठाकरे, कभी मुलायम, कभी लालू, कभी मायावती, कभी रामविलास पासवान, कभी अजीतसिंह, कभी फ़ारूक़ अब्दुल्ला, कभी करुणानिधि। विविधताओं के देश में और-और विविधताएं।
यदि संविधान और झंडा भी बदलते रहें तो और भी तमाशा।
(लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)
लेखक : रमेश जोशी
सम्पर्क : 9460155700
(लेखक प्रसिद्ध व्यंगकार हैं)
सीकर (राजस्थान)
प्रधान सम्पादक, 'विश्वा', अंतर्राष्ट्रीय हिंदी समिति, यू.एस.ए.