येद्दियुरप्पा की राजनीति में रहने की सक्रिय कवायद

लेखक : लोकपाल सेठी

(वरिष्ठ पत्रकार, लेखक एवं राजनितिक विश्लेषक हैं) 

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पिछली 26 जुलाई को जब बीजेपी के कद्दावर नेता और राज्य के चार बार मुख्यमंत्री रहे बी.एस. येद्दियुरप्पा ने मुख्यमंत्री पद से त्याग पत्र दिया तो उन्होंने  बड़े साफ़ शब्दों में कहा था की वे राज्य में बीजेपी को मज़बूत रखने के काम करते रहेंगे लेकिन उन्हें अब कोई पद नहीं चाहिए। यह छिपी नहीं है कि वे 2023 तक इस पद पर रह कर मुख्यमंत्री के रूप में अपना चौथा कार्यकाल पूरा करना चाहते थे। लेकिन अखिर में उन्हें केंद्रीय नेतृत्व के दवाब में अपने दो साल पूरे होने के बाद ही पद छोड़ना पड़ा।

राज्य में लिंगायत समुदाय के सबसे नेता होने के कारण वे इस समुदाय में अपनी पकड़ बनाये रखना चाहते हैं। राज्य में लम्बे समय से यह समुदाय पार्टी से जुदा हुआ है और इसके बल पर ही बीजेपी राज्य में सत्ता में आती रही है। पद से हटाये जाने के बाद अपनी पार्टी में अपना दवाब बनाये रखने के येद्दियुरप्पा इसी समुदाय के बल पर अपना राजनीतिक रुतबा बनाये रखने के कोशिश कर कर रहे है। अगस्त के महीने में उन्होंने घोषणा की कि वे राज्य का दौरा करेंगे तथा जगह जगह सभाएं और रैलियां करेंगे। पार्टी नेतृत्व को लगा की इस कार्यक्रम के जरिये वे पार्टी की राजनीति में समानांतर सत्ता का केंद्र बनने की कोशिश कर रहे है। मूल कार्यक्रम के अनुसार राज्य में उनकी यह यात्रा 15अगस्त से शुरू होनी थी। लेकिन केंद्रीय नेतृत्व के निर्देश पर उन्हें अपना कार्यक्रम टालना पड़ा। बाद में उन्होंने गणपति पूजा के बाद अपनी यात्रा शुरू करने की घोषणा की। पार्टी का नेतृत्व चाहता था कि अगर वे वास्तव में पार्टी को मजबूत करने के नजरिये से यात्रा करना चाहते है तो उन्हें अपने साथ राज्य पार्टी अध्यक्ष सहित संगठन के अन्य नेताओं को भी इस यात्रा में अपने साथ रखना चाहिए। नेतृत्व चाहता था कि उनकी यात्रा एक तरह से पार्टी का कार्यक्रम हो न कि उनका व्यक्तिगत जन संपर्क अभियान, लेकिन यह शर्त येद्दियुरप्पा को मंजूर नहीं थी। उन्होंने एक बार फिर यात्रा को आगे के लिए टाल दिया। अब वे और उनके समर्थक फिर से इस यात्रा को शुरू करने का कार्यक्रम बना रहे हैं। हालाँकि इस यात्रा की तिथियाँ अभी घोषित नहीं की हैं लेकिन यह यात्रा नवरात्रों के आस पास शुरू हो सकती है। 

पार्टी जानकारों का कहना है कि जब उन पर त्यागपत्र दिए जाने के दवाब बनाया जा रहा था तो वे कुछ शर्तों के साथ पद छोड़ने को तैयार थे। उनकी पहली  शर्त थी कि उनके बाद लिंगायत समुदाय के किसी नेता को ही यह पद दिया जाये। दूसरी शर्त थी कि उनके बेटे विजयेंद्र को नई साकार में कैबिनेट रैंक का   मंत्री बनाया जाये। तीसरा उनको पार्टी संगठन में कोई बड़ी भूमिका दी जाये। पार्टी ने उनकी पहली शर्त को मानते हुए बसवराज बोम्मई को  मुख्यमंत्री  बनाना स्वीकार कर लिया। बोम्मई, जो लिंगायत समुदाय से आते है, पार्टी को ठीक भी लग रहे थे। वे राजनीतिक परिवार से आते हैं। उनके पिता एस. आर. बोम्मई, जनता दल के कद्दावर नेता थे और इसी के चलते वे मुख्यमंत्री बनने में कामयाब हुए थे। बोम्मई ने जब अपने मंत्रिमंडल का गठन किया तो उसमें विजयेंद्र को शामिल नहीं किया। चूँकि  मंत्रियों का चयन केंद्रीय नेतृत्व की सलाह पर किया गया था इसलिए यह माना गया कि केंद्र  के कहने पर उन्हें मंत्री नहीं बनाया गया। यह बात येद्दियुरप्पा को किसी भी तरह हज़म नहीं हुई। आश्वासन के बावजूद उन्हें अब तक संगठन में कोई जिम्मेदारी नहीं दी गई है। 

इन सबके चलते येद्दियुरप्पा अपने आप को राजनीतिक रूप से अपने आप को  हाशिये पर महसूस करने लगे थे, बताया जाता है कि येद्दियुरप्पा राजनीति में हाशिये पर पहुँचने से पूर्व अपने बेटे को राजनीति में हर हाल मरीं स्थापित करना चाहते हैं। इसलिए उन्होंने अपने दोनो बेटों, परिवार के सदस्यों की सलाह और समर्थन के बाद इस यात्रा  का कार्यकर्म  बनाया था। पार्टी के केंद्रीय नेता येद्दियुरप्पा पर राज्यपाल का पद स्वीकार करने के लिए  जोर डालता  ताकि आने वाले समय में वे राज्य नहीं रहें। केंद्र उनकी भूमिका आनंदीबेन पटेल जैसी चाहत़ा जिन्हें गुजरात के मुख्यमत्री पद से हटा कर  उत्तर प्रदेश का राज्यपाल बना दिया गया था। इसके चलते वहां के नए मुख्यमंत्री के रूप में रूपाणी को सरकार चलाना आसान हो गया था। हालांकि की पद संभालने  के बाद मुख्यमंत्री  बोम्मई ने येद्दियुराप्पा के शासन में लिए गए किसी निर्णय  को बदला नहीं है, फिर भी उन्हें महसूस  होने लगा है  कि आने वाले समय में येद्दियुरप्पा उनके कामकाज में दखल देना शुरू कर सकते है। इसलिए   केंद्रीय नेतृत्व के कहने पर एक से अधिक बार येद्दयुरप्पा को राज्यपाल का पद स्वीकार करने को कह चुके है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)