लेखक : लोकपाल सेठी
(वरिष्ठ पत्रकार, लेखक एवं राजनीतिक विश्लेषक)
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यह एक विवाद अथवा बहस का मुद्दा रहा है कि क्या राज्य सरकारें संविधान की समवर्ती सूची, जिसके अंतर्गत इन विषयों पर केंद्र और राज्य सरकारें दोनों कानून बना सकती है, ऐसा कानून कोई कानून बना सकते हैं जो केंद्र दवारा बनाये गए वैसे ही कानून के विपरीत हो यानि उसके उलट हो। यह एक प्रकार से अधिकारों को लेकर केंद्र और राज्य सरकारों की बीच टकराव के स्थिति पैदा कर सकता है।
हाल ही में केंद्र द्वारा विवादस्पद तीन कृषि कानून बनाये गए। कई राज्यों की गैर सरकारों इन्हें न केवल लागू नहीं करने की घोषणा कि बल्कि इसके ठीक विपरीत कानून बना दिए। हलाकि अधिकतर विधिवेत्ता इस राय के है कि राज्य सरकारों के पास इस तरह के केंद्रीय कानूनों को लागू करने के अलावा कोई विकल्प ही नहीं, इसके खिलाफ कानून बनाना तो दूर की बात है।
ह़ाल ही में तमिलनाडु की द्रमुक सरकार ने मेडिकल कालेजों में दाखिल को लेकर एक ऐसा कानून बनाया जो इस बारे में आज से लगभग पांच वर्ष पूर्व केंद्रीय सरकार के कानून के एक दम उलट है। राज्य सरकार का कहना है कि शिक्षा का विषय संविधान की समवर्ती सूची में है इसलिए उसे ऐसा कानून बनाने का पूरा अधिकार है।
पांच वर्ष पूर्व तक राज्य सरकारें अपने स्तर पर मेडिकल कोलेजों में दाखिले के नियम तय करतीं थी। सामान्य तौर पर हायर सेकेंडरी की परीक्षा में मिले अंको के आधार पर सबसे अधिक अंक पाने वाले छात्र दाखिले के लिए योग्य माने जाते थे। राज्य सरकारों के पास मेडिकल कोलेजों में सीटें आरक्षित करने जैसे असीमित अधिकार थे। चूँकि हर राज्य में शिक्षा का स्तर अलग अलग है इसलिए मेडिकल कोलेजों में दाखिला एक समान नहीं माना जाता था। इसी को लेकर सर्वोच्च न्यायालय ने केद्र कि कहा कि वह दाखिले की योग्यता सामान हो, इसके लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक परीक्षा हो जिसमे पारित छात्र ही दाखिले के पात्र होंगे। केंद्र ने कानून बना कर कर नेशनल एलिजिबिलटी-कम-एंट्रेंस टेस्ट (नीट) का एक कानून बना दिया। यह टेस्ट करवाने की जिम्मेदारी मेडिकल कौंसिल ऑफ़ इंडिया को दी गई। इसके पीछे एक उद्देश्य यह भी थाकि राज्यों में मेडिकल कालेजों में घपले और रिश्वत आदि को रोका जा सके। इस कानून से राज्य सरकारों पर मेडिकल कोलेजों में दाखिले के लिए अलग अलग ढंग से सीटें आरक्षित करने के अधिकार पर अंकुश लग गया। यह किसी से छिपा नहीं की उस समय मेडिकल कालेजों, विशेषकर प्राइवेट मेडिकल कालेजों, में दाखिला के लिए लाखो की रिश्वत ली जाती थी। दक्षिण के कई राज्यों में तो मेडिकल कालेजों में दाखिले के लिए बड़े-बड़े माफिया गिरोह बन गए थे। इसमें राजनीति से जुड़े लोग भी पीछे नहीं थे। प्राइवेट मेडिकल कोलेजों से स्थापना के पीछे अधिकतर अलग-अलग दलों से जुड़े नेता थे। सर्वोच्च नयायालय ने इस प्रकार केन्द्रिकृत टेस्ट करवाने के निर्णय का स्वागत किया।
पिछले दिनों तमिलनाडु विधानसभा ने एक ऐसा कानून पारित किया जिसके की अंतर्गत राज्य सरकार ने मेडिकल कालेजों में दाखिले का अधिकार राज्य सरकार ने अपने हाथ में ले लिया। इस कानून का ड्राफ्ट तैयार करने के लिए राज्य सरकार ने एक समिति गठित की थी। इस प्रस्तावित नए कानून का विरोध करने वालों ने इस समिति के गठन को मद्रास हाई कोर्ट में चुनौती दी। न्यायलय ने अपने फैसले में कहा कि राज्य सरकार को इस प्रकार का कानून बनाने का अधिकार नहीं। तब सरकार ने पैंतरा बदलते हुए कहा कि समिति का काम केवल इस बारे में लोगों की राय जानने का न कि कानून बनाने अथवा न बनाने की सिफारिश करना। जैसे की उम्मीद थी समिति ने जिस प्रकार से लोगों की राय जानी उसके अनुसार अधिकतर इस राय के थे कि राज्य सरकार को इस बारे जरूर ऐसा कानून बनाना चाहिए क्योंकि यह उसके अधिकार क्षेत्र में आता है। सरकार ने आनन फानन में एक विधेयक विधानसभा में पेश कर दिया। आश्चर्य की बात यह थी कि केवल चार सदस्यों वाले दल बीजेपी को छोड़ सभी दलों ने इस विधेयक का समर्थन किया। लेकिन यह विधेयक तब तक कानून नहीं बन सकता जब तक राष्ट्रपति के इस पर हस्ताक्षर नहीं होते।
वास्तव में 2017 में जब राज्य में अन्नाद्रमुक की सरकार थी तब भी राज्य विधानसभा ने इसी प्रकार का विधेयक पारित किया था लेकिन राष्ट्रपति ने इसे बिना हस्ताक्षर किये यह कह कर लौटा दिया कि इस बारे में केंद्रीय कानून को देखते हुए राज्य सरकार को ऐसा कानून बनाने का अधिकार नहीं। इसी के चलते इस बार राज्य में प्रमुख विपक्षी दल के रूप में अन्नाद्रमुक ने इस विधेयक का समर्थन किया था। यह लगभग निश्चित माना जा रहा है कि इस बार भी राष्ट्रपति इसे बिना हस्ताक्षर किये लौटा देंगे और केंद्र सत्तारूढ़ द्रमुक में टकराव की स्थिति पैदा हो जायेगी। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)