तमिलनाडु में द्रमुक, कांग्रेस गठबंधन में दरार

लेखक : लोकपाल सेठी

(वरिष्ठ पत्रकार, लेखक एवं राजनीतिक विश्लेषक) 

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तमिलनाडु में कांग्रेस और क्षेत्रीय दल  द्रमुक में पुरानी दोस्ती है। दोनों  दल काफी समय से मिलकर चुनाव लड़ते आ रहे है। हालांकि कांग्रेस एक राष्ट्रीय दल  है, लेकिन दक्षिण के इस राज्य में इसका संगठन इतना कमज़ोर पड़ गया है कि अब वह द्रमुक के छोटे भाई की भूमिका में आ गया है। अब राज्यसभा के दो उप चुनावों के लेकर इन दोनों में दरार पड़ गयी है। अगर समय रहते कुछ हल नहीं निकला तो यह दरार अगले कुछ महीनों में और भी अधिक चौड़ी होने की आशंका को नकारा नहीं जा सकता। 

कुछ महीने पहले राज्य में हुए विधान सभा चुनावों में इन दलों में जो समझौता हुआ था उसमें से कांग्रेस को राज्य सभा की एक सीट भी मिलनी थी। लेकिन  कांग्रेस की भीतरी गुटबंदी के चलते द्रमुक सुप्रीमो और राज्य के मुख्यमत्री स्टालिन ने दोनों सीटों पर अपने उम्मीदवार उतार दिए। कांग्रेस को एक सीट नहीं  दिए जाने के लिए दोनों दल एक दूसरे को जिम्मेदार ठहरा रहे है। 2016 के विधान सभा चुनावों में दोनों दलों में जो समझौता हुआ था उसमे कांग्रेस को विधान सभा की 234 सीटों में से 41 सीटें ही मिली और केवल नौ पर ही जीत पाई थी। उन चुनावों में द्रमुक को पूरा भरोसा था कि वह जयललिता के नेतृत्व वाली अन्नाद्रमुक सरकार को पराजित कर फिर सत्ता पर काबिज़ हो जायेगी। इसके पीछे बड़ा तर्क यह था कि राज्य में हर पांच साल बाद बारी-बारी से दोनों दल सत्ता में आते रहे है। इसलिए इस बार द्रमुक की बारी सत्ता में आने की है। लेकिन सभी चुनावी आकलनो को धत्ता बताते हुए अन्नाद्रमुक राज्य में  लगातार दूसरी बार सत्ता में आ गयी। नतीजों को लेकर द्रमुक नेताओं को बड़ा झटका लगा। उनका यह आकलन था की अगर कांग्रेस अपनी मिली सीटों पर  अच्छा प्रदर्शन करती तो उनका गठबंधन सत्ता पाने के नज़दीक पहुच सकता था। 

इसलिए जब इस बार के विधान सभा के चुनावों में दोनों दलों में सीटों के बंटवारे की बात चली तो द्रमुक कांग्रेस को दो दर्जन से अधिक सीटें देने को तैयार नहीं थी जबकि कांग्रेस 80 सीटें मांग रही थी। चूँकि इस बार तय था कि जयललिता के निधन के बाद हो रहे चुनावों में अन्नाद्रमुक सत्ता में नहीं आ पायेगी  इसलिए स्टालिन और उनकी पार्टी के अन्य नेता कांग्रेस को अधिक सीटें  देने को  तैयार नहीं थे। कांग्रेस को राज्य में अपनी ताकत कम होने का अहसास था इसलिए  वह 80 के स्थान पर 25 सीटें लेना मान गयी। लेकिन सीटों के समझौते को बनी सहमति में यह जोड़ दिया गया कि कांग्रेस को भविष्य में  राज्य सभा और लोकसभा की एक एक सीट भी  मिलेगी। जानकारों का अनुमान है कि द्रमुक अपनी ओर से राज्य सभा के दो उपचुनावों में से एक सीट देने को तैयार थी लेकिन इसे साथ एक शर्त लगादी कि कांग्रेस का उम्मीदवार उनकी सहमति से तय होगा। हॉल तक कांग्रेस पार्टी के राज्यसभा में नेता रहे गुलाम नबी  आजाद  का राज्यसभा का कार्यकाल समाप्त हुए कुछ महीने हो चुके है लेकिन  कांग्रेस के पास ऐसा कोई राज्य नहीं था जहाँ से उन्हें  फिर राज्य सभा में लाया जा सके। 

इससे भी अधिक कारण यह था आज़ाद, कांग्रेस के असंतुष्ट गुट, ग्रुप 23,खड़ा करने के पीछे गुलाम नबी आजाद नबी की एक बड़ी भूमिका था . यह ग्रुप 23  सोनिया गाँधी के नेतृत्व को चुनौती दे रहा था तथा इस बात के लिए दवाबा डाल रहा था कि  कांग्रेस का नेतृत्व अब गांधी परिवार के बहार का कोई व्यक्ति के हाथ में  होना चाहिए। चूँकि गुलाम नबी आज़ाद स्टालिन के बहुत करीब माने जाते है  इसलिए स्टालिन चाहते थे कि कांग्रेस पार्टी केवल उन्हें  ही अपना उम्मीदवार बनाये। जबकि कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गाँधी अपने एक खास को यहाँ से राज्य सभा में लाना चाहते थे। राहुल गाँधी चाहते थे कि  पार्टी के डाटा एनालिटिक्स विभाग के प्रमुख प्रवीण चक्रवर्ती को इस स्थान पर पार्टी का उम्मीदवार बनाया जाये। लेकिन यह शर्त स्टालिन को मंजूर नहीं थी। जब कोई सहमति नहीं बनी तो द्रमुकने अपनी पार्टी के दो नेताओं को उम्मीदवार बना दिया। 

 अगले साल जून में राज्य विधान सभा से राज्यसभा की पांच सीटें खाली होनी है। अब द्रमुक ने कहा है कि विधान सभा चुनावों के समय हुए समझौते के अनुसार वह इनमें से सीट कांग्रेस को देने को तैयार है। कांग्रेस के बड़े नेता और दक्षिण में पार्टी के चेहरे पी. चिंदबरम का राज्य सभा कार्यकाल अगले साल जुलाई में खत्म होने वाला है इसलिए वे इस सीट के लिए बड़े दावेदार होंगे। इस बात की उम्मीद कम है कि कांग्रेस पार्टी उस समय गुलाम नबी आजाद को यहाँ से अपना उम्मीदवार नहीं बनायेगी। जबकि स्टालिन फिर जोर दे सकते है कि केवल उन्हें ही पार्टी का उम्मीदवार बनाया जाये। उस समय आखिर में गोटियाँ कैसे बैठती है इसका अभी से कयास लगाया जाना मुश्किल है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)