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ट्रेजेडी किंग यानी हिंदी दुखांत फिल्मों के बादशाह स्व. दिलीप कुमार के बारे में एक ऑडियो वीडियो जमकर वायरल हो रहा है। इस ऑडिओ वीडियो में दिलीप साहब को एक तरह से देशद्रोही सिद्ध करने की विवादास्पद कोशिश की जा रही है। कहा जा रहा है, कि उक्त अभिनेता पाकिस्तान के लिए जासूसी करता था। इस मामले में पुलिस के हाथ उन तक पहुंचने ही वाले थे, लेकिन राजनीतिक खलीफाओं ने मामला रफा-दफा करवा दिया। दिलीप साहब की देश भक्ति, तो उनके न जाने कितने किरदारों में झलकी है, लेकिन इसका सबसे बड़ा सबूत उनकी आत्म कथा उर्फ़ ऑटोबायोग्राफी "द सबटेंस एण्ड द शेडो" में लिखे एक किस्से से मिलता था। तब आम चलन था कि पाकिस्तान के हजारों लोग रोज़ी रोटी की तलाश में मुंबई, पुणे या भारत के किसी अन्य शहर में आ बसते थे।
दिलीप कुमार के पिताजी भी पुणे आ गए। इस शहर में उन्हें सैन्य ठिकाने की कैंटीन चलाने काम मिल गया। दिलीप अपने अब्बू के काम में सहायता करते। देखते ही देखते दीलिप कुमार के हाथ से बने सैंडविच बड़े चाव से खाए जाने लगे। दिलीप साहब को भी खूब प्रसिद्धि मिलने लगी। दिलीप कुमार लिखते हैं कि इस आलम को देखकर उनका एक दोस्त इतना खुश हुआ, कि दिलीप साहब को उसने सलाह दी तुम्हें देश भक्ति या भारत का पक्ष लेते हुए एक सार्वजनिक भाषण देना चाहिए। वो, ब्रिटिश हुकूमत के दिन थे। उसके खिलाफ औफ़ करना भी गुनाह माना जाता था।
देश भक्ति से लबालब दिलीप साहब ने भारत के सम्बंध में एक तरह का क्रांतिकारी भाषण दे दिया। उनकी बल्ले-बल्ले हो गई। दिलीप कुमार लिखते हैं, मैं खुशियों से फूल नहीं समा रहा था। दूसरे ही दिन फिरंगी पुलिस के कुछ अफसर आए, और मेरे हाथों में हथकड़ियां डालकर ले गए। दिलीप कुमार के अनुसार उन्हें यरवडा जेल में डाल दिया गया। दिलीप कुमार का कसूर सिर्फ़ इतना सा था, कि उन्होंने भारत की लगातार तारीफ करते हुए इसे एक अहिंसक, सच्चा, ईमानदार और मेहनतकशो का देश बताया था। इस भाषण को ही अंग्रेज पुलिस ने हुकूमत विरोधी मान लिया। जिस यरवडा जेल में दिलीप कुमार बंद किए गए थे, वहाँ गाँधीवादी सत्याग्रहियों का मेला लगा हुआ था। उन्होंने भूख हड़ताल कर रखी थी। दिलीप कुमार लिखते हैं, कि मैं भी उन गांधीवादी सत्याग्रहियों की भूख हड़ताल में सम्मिलित हो गया। सेना के एक मेजर को जब यह बात पता चली, तो उसने मुझे (दिलीप कुमार) को पुलिस से छुड़वा लिया। बाद में लोगों ने तमगा दे दिया, गाँधीवाला दिलीप कुमार।
अब भी किसी कोई शक.. शायद नहीं। जिन स्व. दिलीप कुमार साहब को कोई अभिनय का मसीहा कह रहा है, कोई इतिहास की वो किताब कह रहा है, जिसे नई नस्लें हेण्डबुक की तरह जेब मे रखेंगी उनके साथ हुई बदसलूकी को कैसे भुला जा सकता है। यह घटना कुछ साल पहले की ही तो है। दरअसल, मुम्बई की जिस हवेली में दिलीप साहब अंत तक रहे, उस पर न जाने कब से मुम्बई के भूमि माफिया की काली नज़र थी। इस गुंडागर्दी ने लाचार और बुजुर्गवार दिलीप साहब और सायरा बानो का जीना दुश्वार कर दिया था। वो, तो सायराजी व्यक्तिगत रूप से महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे और अन्य नेताओं के साथ मीडिया के जरिये सम्पर्क में रहीं, वर्ना भूमि माफिया जो करें सो कम है। दिलीप साहब को पसंद किए जाने का सबसे बड़ा कारण यह था, कि उनके जीवन और अदाकारी में अपना देश, इंसानियत, अदब के साथ एक अलग सा मुक़म्मल लहजा भरा हुआ था। साहित्य में इसे ग्रेस फुलनेस के अलावा कुछ नहीं कह सकते। वो निकले थे, तो पेशावर से थे, मगर पता नहीं भारत के छोटे-छोटे गॉंव उनमें कहाँ से बस गए थे। कहीं कोई फुहड़ता नहीं, कभी वाचालता नहीं।
आज अटलजी होते तो आडवाणीजी के साथ दिलीप साहब को यह कहकर बिदा देते, आ इस शज़र से लिपटकर रो लें ज़रा, कि तेरे मेरे रास्ते यहाँ से जुदा होते हैं। शाहरुख खान को अपना बेटा मानने का कारण भी दिलीप साहब के लिए निराला था। हुआ यह था, कि एक फिल्मी जलसे में दीलिप कुमार के साथ मनोज कुमार को भी सम्मानित किया जा रहा था। मनोज कुमार ने अपना सम्मान पत्र दिलीप साहब के हवाले कर दिया। बैठे मेहमानों ने देर तक तालियाँ बजाईं। तब शाहरुख़ खान की देवदास रिलीज होने को थी। मजमे में शाहरुख के पास शो मैंने सुभाष घई भी बैठे हुए थे। सुभाष घई ने शाहरुख खान की एक हथेली ज़ोर से दबाकर, कहा एक दिन तुम्हें भी ऐसा ही ट्रेजिडी किंग बनना है। जब संजय लीला भन्साली की देवदास पर्दे से कई सप्ताह तक हटी नहीं, तो सुभाषजी को अपने आप अपने सवाल का जवाब मिल गया। अभिनेत्री रेखा सालों तक सपना सजाती रही कि उन्हें दिलीप साहब के साथ काम करने को मिले। जब रमेश सिप्पी ने किला फ़िल्म बनाई तो उसमें रेखा को दिलीप साहब के साथ लिया जो उनकी अंतिम फ़िल्म थी। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)
लेखक : नवीन जैन
स्वतंत्र वरिष्ठ पत्रकार
इंदौर, 9893518228