निशान्त की रिपोर्ट
लखनऊ (यूपी) से
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इंसान की नुकसानदेह गतिविधियों के कारण जलवायु और जैव-विविधता में हुए अप्रत्याशित बदलाव अब एक साथ मिल गये हैं और इनकी वजह से पूरी दुनिया में कुदरत, मानव जीवन, रोजीरोटी तथा लोक कल्याण के लिये खतरा बढ़ गया है। मानव द्वारा की जाने वाली आर्थिक गतिविधियां, जैव-विविधता को हो रहे नुकसान और जलवायु परिवर्तन दोनों का ही मूल कारण हैं और दोनों ही परस्पर रूप से एक-दूसरे को मजबूत करते हैं। जब तक दोनों को एक साथ इलाज नहीं किया जाएगा तब तक समस्या का सफलतापूर्वक समाधान नहीं किया जा सकता। जैव-विविधता और जलवायु क्षेत्र से जुड़े दुनिया के 50 शीर्ष विशेषज्ञों द्वारा आज प्रकाशित वर्कशॉप रिपोर्ट में यही संदेश दिया गया है।
विशेषज्ञों द्वारा आपस में ही समीक्षित यह रिपोर्ट विशेषज्ञों के चार दिवसीय वर्चुअल वर्कशॉप का परिणाम है। इसमें हिस्सा लेने वाले विशेषज्ञों का चयन इंटरगवर्नमेंटल साइंस-पॉलिसी प्लेटफॉर्म ऑन बायोडायवर्सिटी एण्ड इकोसिस्टम सर्विसेज (आईपीबीईएस) तथा इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) द्वारा गठित साइंटिफिक स्टीयरिंग कमेटी ने किया। इन दोनों अंतरसरकारी इकाइयों के बीच यह अपनी तरह का पहला तालमेल था।
रिपोर्ट में पाया गया कि पूर्व की नीतियों के तहत जलवायु परिवर्तन और जैव-विविधिता को होने वाले नुकसान को आमतौर पर अलग-अलग देखकर काम किया जाता था और अगर सामाजिक प्रभावों का आकलन करते वक्त जैव-विविधता को होने वाले नुकसान को कम करने और जलवायु परिवर्तन से निपटने के प्रयासों को एक साथ मिला दिया जाए तो इससे ज्यादा से ज्यादा लाभ और वैश्विक विकास लक्ष्यों को हासिल करने का अवसर मिलता है।
साइंटिफिक स्टीयरिंग कमेटी के सह अध्यक्ष प्रोफेसर हैंस-ओटो पोर्टनेर ने कहा मानव की हानिकारक गतिविधियों के कारण कुदरत और लोगों के प्रति उसके योगदान पर खतरा लगातार बढ़ रहा है। इसमें जलवायु परिवर्तन के असर को कम करने की उसकी क्षमता भी शामिल है। धरती जितनी गर्म होती जाएगी, विभिन्न क्षेत्रों में भोजन, पेयजल तथा कुदरत द्वारा किये जाने वाले अन्य प्रमुख योगदानों में कमी आती जाएगी।
उन्होंने कहा जैव-विविधता में बदलाव के परिणामस्वरूप जलवायु पर प्रभाव पड़ता है। खासतौर पर यह असर नाइट्रोजन, कार्बन और जल सम्बन्धी चक्रों के जरिये पड़ता है। सुबूत बिल्कुल जाहिर है : इंसानों और कुदरत दोनों के ही लिये सतत वैश्विक भविष्य का लक्ष्य अब भी हासिल किया जा सकता है, मगर इसके लिये रूपांतरणकारी बदलाव करने होंगे और ऐसे दूरगामी कदम बहुत तेजी से उठाने होंगे, जो पहले कभी नहीं उठाये गये। ये कदम उत्सर्जन में कटौती के महत्वाकांक्षी लक्ष्यों पर आधारित हों। जलवायु और जैव-विविधता के बीच कुछ मजबूत और जाहिर तौर पर न टाले जा सकने वाले परस्पर तालमेल का समाधान करने से कुदरत से सम्बन्धित व्यक्तिगत और साझा मूल्यों में गहन सामूहिक बदलाव लाया जा सकेगा। जैसे कि सिर्फ जीडीपी पर आधारित विकास को ही आर्थिक प्रगति मानने की परिकल्पना से दूर हटना और ऐसा मत बनाना जो गुणवत्तापूर्ण जीवन के लिये कुदरत के बहुविध मूल्यों और मानव विकास में एक संतुलन पैदा करे और जैव-भौतिकी तथा सामाजिक सीमाओं का उल्लंघन भी न हो।
लेखकों ने इस बात के लिये भी आगाह किया है कि जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये संकीर्ण रूप से केन्द्रित कदम उठाये जाने से कुदरत को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से नुकसान पहुंच सकता है, मगर ऐसे अनेक उपाय मौजूद हैं जो इन दोनों ही क्षेत्रों में उल्लेखनीय सकारात्मक योगदान कर सकते हैं। इस रिपोर्ट में जिन सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण उपलब्ध कदमों की पहचान की गयी है, वे निम्नलिखित हैं :
जमीन और महासागरों में कार्बन और जैव प्रजातियों के लिहाज से समृद्ध पारिस्थितिकी तंत्रों को हो रहे नुकसान और उनके अपघटन को रोकना। खासकर जंगलों, वेटलैंड्स, पीटलैंड, घास के मैदानों और सवाना के मैदानों को। इसके अलावा तटीय पारिस्थितिकी तंत्रों जैसे कि मैंग्रूव, नमक के दलदल (साल्ट मार्शेज), केल्प फॉरेस्ट और समुद्री घास के मैदानों के साथ-साथ डीप वाटर और पोलर ब्लू हैबिेटैट्स को भी संरक्षित करना होगा। रिपोर्ट में इस बात को रेखांकित किया गया है कि वनों के कटान और उनके अपघटन में कमी लाकर मानव की गतिविधियों के कारण पैदा होने वाली ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में हर साल 0.4 से लेकर 5.8 गीगाटन कार्बन डाई ऑक्साइड के बराबर की कमी लायी जा सकती है।
कार्बन और जैव प्रजातियों के लिहाज से समृद्ध रहे पारिस्थितिकी तंत्रों को फिर से पुरानी स्थिति में लाना। लेखकों ने उन सुबूतों की तरफ इशारा किया है जो यह बताते हैं कि पुनर्बहाली ही वह प्रकृति आधारित उपाय है जो सबसे सस्ता और तेजी से नतीजे देने वाला है। इससे पौधों और जीवों को उनका बहुप्रतीक्षित ठिकाना मिलता है। इस प्रकार जलवायु परिवर्तन की शक्ल में इससे जैव-विविधता के टिकाऊपन में वृद्धि होती है। इसके अलावा बाढ़ के नियमन, तटों की सुरक्षा, पानी की गुणवत्ता में वृद्धि, मिट्टी के अपरदन में कमी और परागण का सुनिश्चित होना जैसे अनेक अन्य फायदे भी मिलते हैं। पारिस्थितिकी की बहाली होने से रोजगार पैदा हो सकते हैं और आय में वृद्धि हो सकती है, खासकर जब स्थानिक लोगों और स्थानीय समुदायों के अधिकारों की आवश्यकता और उन तक उनकी उपलब्धता को ध्यान में रखा जाए।
जलवायु परिवर्तन के प्रति अनुकूलन की क्षमता में वृद्धि करने, जैव-विविधता को बढ़ाने, कार्बन स्टोरेज में बढ़ोत्तरी करने और उत्सर्जन में कमी लाने के लिये कृषि एवं वानिकी सम्बन्धी सतत पद्धतियों को अपनाने में वृद्धि करना जरूरी है। इन उपायों में रोपित फसलों, वन्य जैव-प्रजातियों, कृषि-वानिकी तथा कृषि-पारिस्थितिकी का विविधीकरण शामिल है। रिपोर्ट के मुताबिक खेती की जमीन और चरागाहों के प्रबन्धन को बेहतर बनाने, जैसे भूमि का संरक्षण करने और खाद के इस्तेमाल में कमी लाने से 3-6 गीगाटन कार्बन डाइऑक्साइड के बराबर जलवायु परिवर्तन उत्सर्जन की सालाना क्षमता उत्पन्न होने का अनुमान है।
संरक्षण सम्बन्धी बेहतर-लक्षित उन कदमों को तेज करना जिन्हें जलवायु अनुकूलन और नवोन्मेष का मजबूत समर्थन हासिल हो। इस वक्त संरक्षित क्षेत्रों का दायरा जमीन के 15 प्रतिशत और महासागर के 7.5 फीसद हिस्से में फैला है। उल्लेखनीय रूप से बढ़ रहे अक्षुण्ण और प्रभावशाली तरीके से संरक्षित क्षेत्रों से बेहतर नतीजे मिलने की उम्मीद है। अनुकूलन करने योग्य जलवायु, स्व-सतत जैव-विविधता और जीवन की अच्छी गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिये आवश्यक प्रभावशाली रूप से संरक्षित क्षेत्रों की वास्तविक आवश्यकताओं के वैश्विक अनुमान अभी तक स्थापित नहीं किये जा सके हैं, मगर ये सभी महासागरों तथा भूतल क्षेत्रों के 30 से 50 प्रतिशत के बीच हैं। संरक्षित क्षेत्रों के सकारात्मक प्रभावों को बेहतर बनाने के विकल्पों में अधिक संसाधनीकरण, बेहतर प्रबन्धन और प्रवर्तन तथा इन क्षेत्रों के बीच बढ़े हुए अंतर्सम्पर्क के साथ बेहतर वितरण शामिल हैं। संरक्षित क्षेत्रों से परे संरक्षण के उपाय भी चर्चा का विषय हैं। इनमें विस्थापन कॉरिडोर और बदलते हुए पर्यावरणों के लिये योजना के साथ-साथ कुदरत के साथ लोगों का बेहतर जुड़ाव भी शामिल है ताकि उपलब्धता में समानता और लोगों के प्रति प्रकृति के योगदान का बेहतर इस्तेमाल सुनिश्चित हो सके।
वनों का कटान, उर्वरक का जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल और अत्यधिक मत्स्य आखेट जैसी जैव-विविधता को नुकसान पहुंचाने वाली स्थानीय और राष्ट्रीय स्तर की गतिविधियों का कारण बनने वाली सब्सिडी को खत्म करने से जलवायु परिवर्तन की तीव्रता को कम करने और अनुकूलन को बेहतर बनाने में मदद मिल सकती है। साथ ही इससे व्यक्तिगत उपभोग की तर्ज में बदलाव, हानि और कचरे में कमी होने और खासकर धनी देशों में आहार सम्बन्धी वरीयताओं को कृषि आधारित विकल्पों की तरफ मोड़ने जैसे लाभ भी मिल सकते हैं।
इस रिपोर्ट के मुताबिक जलवायु परिवर्तन न्यूनीकरण और अनुकूलन सम्बन्धी कुछ केन्द्रित उपाय जैव-विविधता और लोगों के प्रति प्रकृति के योगदान के लिये नुकसानदेह हैं। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)